जगदीश प्रसाद मण्डल
जन्म- ५ जुलाइ १९४७
पिताक नाओं : स्व. दल्लू
मण्डल, माताक नाओं : स्व. मकोबती देवी,
पत्नी- श्रीमती रामसखी देवी, पुत्र- सुरेश मण्डल, उमेश मण्डल, मिथिलेश मण्डल। मातृक- मनसारा, घनश्यामपुर, जिला-
दरभंगा।
मूलगाम- बेरमा, भाया- तमुरिया,
जिला-मधुबनी, (बिहार) पिन- ८४७४१०
मोबाइल- ०९९३१६५४७४२
शिक्षा- एम.ए. (हिन्दी आ राजनीति शास्त्र) मार्क्सवादक
गहन अध्ययन। हिनकर कथामे गामक लोकक जिजीविषाक वर्णन आ नव दृष्टिकोण दृष्टिगोचर
होइत अछि। गामक जिनगी लघुकथा संग्रह लेल विदेह समानान्तर साहित्य अकादेमी
पुरस्कार २०११क मूल पुरस्कार आ टैगाेर साहित्य सम्मान २०११; एवं बाल-प्रेरक विहनि कथा संग्रह ‘‘तरेगन’’
लेल बाल साहित्य विदेह सम्मान २०१२ (वैकल्पिक साहित्य
अकादेमी पुरस्कार रूपेँ प्रसिद्ध) प्राप्त।
साहित्यिक कृति-
उपन्यास- (१) मौलाइल गाछक फूल (२००९), (२) उत्थान-पतन (२००९), (३) जिनगीक जीत (२००९),
(४) जीवन-मरण (२०१०), (५) जीवन संघर्ष (२०१०)
नाटक- (१) मिथिलाक बेटी (२००९), (२) कम्प्रोमाइज (२०१०), (३) झमेलिया बिआह (२०१२)
लघुकथा संग्रह- (१) गामक जिनगी (२००९), (२) अर्द्धागिनी... सरोजनी... सुभद्र... भाइक सिनेह इत्यादि (२०१२),
(३) सतभैंया पोखरि (२०१२)
बाल-प्रेरक विहनि कथा संग्रह- (१) तरेगन
(२०१०)
विहनि कथा संग्रह- बजन्ता-बुझन्ता
(२०१२)
एकांकी संग्रह- (१) पंचवटी (२०१२)
दीर्घकथा संग्रह- (1) शंभुदास
(२०१२)
कविता संग्रह- (१) इंद्रधनुषी अकास (२०१२), (२) राति-दिन (२०१२)
गीत संग्रह- (१) गीतांजलि (२०१२), (२) तीन जेठ एगारहम माघ (२०१२)
किछु विहनि कथा
१. बुधनी दादी
२. अकास दीप
३. कनमन
४. खिलतोड़
५. मुँह-कान
६. अनदिना
७. अपन काज
८. दूरी
९. पुरनी भौजी
१०. छूटि गेल
११. काल्हि दिन
१२. अप्पन हारि
१३. कनफुसकी
१४. मुँहक बात मुँहेमे
१५. कनीटा बात
१६. गति-गुद्दा
१७. बिसवास
१८. कचहरिया-भाय
१९. गुहारि
२०. शिवजीक डाक-बाक्
२१. सोग
२२. पनचैती
२३. कचोट
२४. अजाति
२५. पटोर
२६. फुसियाह
२७. गति-मुक्ति
२८. चौकीदारी
२९. झगड़ाउ-झोटैला
३०. घबाह ट्यूशन
३१. दादी-माँ
३२. पटोटन
३३. मुसाइ पंडित
३४. भरमे-सरम
३५. देखल दिन
३६. फज्झति
३७. काँच सूत
३८. बुधि-बधिया
३९. पहाड़क बेथा
४०. उमकी
४१. बजन्ता-बुझन्ता
४२. चर्मरोग
४३. शंका
४४. ओसार
४५. छोटका काका
४६. सीमा-सड़हद
४७. रमैत जोगी बहैत पानि
४८. गंजन
४९. सजाए
५०. घटक बाबा
५१. आने जकाँ
५२. दान-दछिना
५३. उड़हड़ि
५४. मत्हानि
५५. मेकचो
५६. झुटका विदाइ
५७. मुँहक खतियान
५८. कोसलिया
५९. हूसि गेल
६०. पोखला कटहर
६१. सरही सौबजा
६२. तेरहो करम
६३. डुमैत िजनगी
६४. चोर-सिपाही
६५. दूधबला
६६. टाइपिस्ट
६७. समदाही
६८. बुढ़िया दादी
बुधनी दादी
जहिना कुमहारकेँ भादवक रौद बादलमे झपा गेने दुर्दिन आगूमे
नाचए लगैत तहिना बुधनी दादीकेँ साल भरिसँ भऽ रहल छन्हि। साल भरि पहिने तक, जाबे पति जीबैत छलनि ताबे दिल्लीक कमाइसँ जे सुख केलनि, रहितो आब नै भऽ पाबि रहल छन्हि। सोलह कोठरीक हथिसार जकाँ मकानमे
असकरे रहैत डर होइ छन्हि जे कहीं सुतली रातिमे भूमकम भेल आ घर खसल तँ महीनो दिनमे
ऊपर हएब िक नै। तरेमे सड़ि कऽ महकि जाएब।
जहियासँ
बुधनी दादी नैहरसँ सासुर एली तहियेसँ कहू आकि नैहरोमे तइसँ पहिनेसँ कहू, नहेला पछाति हनुमान चलीसा पढ़िते छथि। किताब देखि कऽ नै मुँह जुआनिये।
गामक तीन टोलक आबा-जाही बुधनी दादीक छन्हि। कोन-पावनि कहिया हएत आ कोन उपास
कहिया पड़त से हिसाव जोड़ए अबै छन्हि। तइ संग ईहो छन्हि जे सामाक गीत टोलक
कोन बात जे गामेमे सभसँ बेसी अबै छन्हि।
छठिक भिनसुरका अर्ध पड़ि गेल आइसँ
सामाक गीत हएत। दसमी श्रेणीक राधा बुधनी दादी लग पहुँचल। पहुँचिते राधा बुधनी
दादीकेँ गोड़ लागि बाजल-
“दादी, अपन
मोबाइल नंबर दऽ दिअ। जखन अबैक छुट्टी हएत एबो करब नै तँ मोबाइलेपर लिखि देब।”
मोबाइलिक नाओं सुनिते बुधनी दादीक मन
गाछसँ खसल कटहर जकाँ आँठी उड़ि कतौ, कमरी उड़ि कतौ, नेरहा उड़ि कतौ, छहोछित भऽ गेलनि। बजलीह-
“बुच्ची, आब तोरा सबहक जुग-जमाना एलह।
बेटा मोबाइल पठा देलक जइसँ कहियो काल धियो-पुतो आ बेटो-पुतेाहुसँ गप-सप होइ छलए।
सेहो केदैन चोरा लेलक। भरि दिन अंगनेमे बैसल रहब से पार लागत। मूस तते भऽ गेल
अछि जे ने नुआ-विस्तरक सेखी रहए दइए आ ने खाइ-पीबैक।”
राधा- “दादी, अहिना जिनगी
चलै छै।”
बुधनी दादी- “बुच्ची, जीबैक मन होइए मुदा तेहेन-तेहेन आपैत-विपैत सभ अछि जे हाेइए तइसँ नीक
भरमे-सरमे मरि जाइ।”
~
अकास दीप
दिवालीक एक दिन पहिने गाममे रंग-बिरंगक अकासदीपक खूँटा
गड़ल देखि मनोहरोक मनमे उठल जे अपनो ऐठाम जराबी मुदा लगले मन घेड़ा गेलै जे पावनि-तिहार
तँ परम्पराक हिसाबे चलैत अछि, जँ से नै तँ एके समाज माने एक जातिक
समाजमे एकेटा पावनि किछु गोटेकेँ होइत छन्हि, किछु
गोटेकेँ नहियो होइत छन्हि। कारणो स्पष्ट अछि जे जाति दियादमे बँटल अछि।
जँ िदयादीक भीतर पावनिक दिन अशौच भऽ जाइए तखन टूटि जाइए। किछु गोटे खंडित
बूझि जोड़ि लैत छथि, किछु गोटे छोड़ि दैत छथि। तइ संग
ईहो होइत रहै छै जे बहरवैया आमदनीपर जिनका नहियो होइत छलनि ओहो नव शिरासँ
शुरूहो करैत छथि। ओझराइत मनोहर बाबासँ पुछैक विचार केलक।
मनोहर
हाइ स्कूलमे पढ़ैत अछि। घरक कोनो काज करैसँ पहिने बाबासँ पूछब जरूरी बुझलक।
सात
बजे साँझ। चाह पीब पान खाइते श्यामलाल गप करैक मूडमे एला। केकरो नै देखि चौक दिस
जाइक विचार करिते रहथि आकि मनोहर आबि बाजल-
“बाबा, एकटा विचार मनमे भेल?”
श्यामलाल- “की?”
“ऐबेर अपना गाममे सइयोसँ बेशी अकास दीप दिवाली दिन बड़त!”
“ई तँ नीक बात भेल।”
श्यामलालकेँ अनुकूल होइत देखि मनोहर बाजल-
“बाबा, अपनो दरबज्जापर...?”
श्यामलाल मुड़ी डोलबैत सोचए लगलाह मनोहर बच्चा अछि
हलहोड़िमे मन उड़ि गेलै। काँच कड़ची वा पघिलल काचकेँ जेहेन साँचामे देल जाइ छै
तेहने ने वस्तुओ बनैत अछि। सोचि श्यामलाल कहलखिन-
“बौआ, जइ गाममे मटिया तेल, जेकर उपयोग गाममे खाली डिबिये टामे होइ छै, तहूक
हाहाकार मचल रहै छै। तइठाम तू भरि राति मासो दिन डिबिया बाड़बह से केहेन हएत?”
~
कनमन
साढ़े चारि बजैत। हाइ स्कूलसँ अबिते सुधीरक नजरि दरबज्जापर
बैसल बाबा श्याम सुन्दरपर पड़लनि। दरबज्जा-अंगनाक बीच मोड़पर सुधीर तेकठी जकाँ
ठाढ़ भेल। केम्हर डेग बढ़ौत से फड़िछेबे ने करैत। बाबाकेँ पुछियनि जे किअए मन
खसल अछि, आकि किताब रखि कपड़ा बदलि आबी। रस्तेसँ भूखो-पियास लगले
अछि। नबे बजेक खेलहा छी।
तेकठीक
तीनू खूँटाक बीच अपनाकेँ सुधीर पौलक जे दूटाक कनोति तेकठी नाओं धड़बैत अछि जखन
कि तेसरक नाआें गोरी भऽ जाइ छै, जेकरा ऊपर लाद लादि लदाना दइ छै।
बाबाक बात बूझब सभसँ जरूरी अछि, मुदा बरदाएल हाथे कइये कि
सकबनि। कपड़ा बदलब ओते महत नै रखैत अछि तँए एना करी जे बाबाकेँ कहियनि जे
हमहूँ आबि गेलौं जइसँ जाबे ओ अपन बात बजता ताबे किताव राखि आएब। कनी डेगमे झाड़
अानए पड़त। सहए केलक। बाजल-
“बाबा, किअए मन खसल अछि?”
कहि किताव राखए आंगन गेल। किताव राखि श्याम सुन्दर लग
आबि सुधीर बाजल-
“बाबा, मन खसैत कारण की अछि?”
आस-निआसक
बीच श्याम सुन्दर ओझड़ाएल रहथि, तँए नजरि खसल छलनि।
पोताक जबाब भारी पबैत छलाह। चालीस बर्खक संगी हेरा-फेरीमे जहल चलि गेल छलनि, तेकरे सोग। मुदा बाल-बोध लग बाजी वा नै बाजी। छिपाएब झूठ हएत नै छिपाएब
सेहो तँ नीक नहिये हएत। नीकक चर्च हेबाक चाही, अधलाक तँ फलो
अधले हएत। एहनो तँ भऽ सकैए जे छिपबैत-छिपबैत छिनारक छिनरपनिये छीप जाए। मुदा
एहनो तँ भऽ सकैए जे एक-दोसराक अधला छिपबैत-छिपबैत छिपारकेक समाज बनि जाए।
तत्-मत् करैत श्याम सुन्दर बाजल-
“बौआ, अखने सुनलौं जे रूपलाल जहल चलि
गेल। मिरचाइक झाँझ जकाँ ओहए मनकेँ मलीन केने अछि।”
श्याम
सुन्दर जे कहि अपनाकेँ हटबए चाहथि से लगले नै हटलनि। कारण भेलनि जे जहलक नाओं
सुनि सुधीर दोहरा देलकनि-
“किअए रूपलाल बाबा जहल गेला?”
सुधीरक प्रश्न श्याम सुन्दरकेँ ज्वर आनि देलकनि मुदा
ज्वार नै बनि तुड़छैत ज्वारि तँ आबिये गेल रहनि। बुझबैत बजलाह-
“एते पुरान रहितो रूपलाल समैकेँ ठेकानबे ने केलक। पुरना चालिसँ
आब काज चलैबला छै! बुझथुन जे केहेन दादासँ पल्ला पड़ल।”
~
खिलतोड़
आकाशवाणी केन्द्रक कार्यक्रमक कृषि विभागसँ दयाकान्त
तीस बर्ख पछाति सेवा-निवृति भेला। खेती-पथारीक कार्यक्रमक चिन्हार चेहरा
बनौने रहला। नोकरी पाबि जिनगीमे बहुत किछु केलनि। तीनू बेटो आ दुनू बेटियोकेँ
पढ़ा-िलखा, नोकरी धड़ा नेने छथि। अपनो रहैक बेवस्था शहरेमे कऽ लेलनि।
सेवा-निवृत्तिक चारि बर्ख पछाति मन उबियेलनि जे शहरमे नै रहब, बाप-दादाक बनाओल गामेमे रहब। मन उबियाइक कारण भेलनि जे पुरना संगी सभमे
किछु गोटे आन शहर, तँ किछु गोटे गाम आ किछु गोटे मरियो
गेलाह। पछाति जे संगी भेटलनि, हुनका सभसँ तेहेन सम्बन्ध
नै बनि सकलनि जेहेन पहिलुका सबहक संग छलनि। दूर रहने परिवारोक (बेटा-बेटीक)
सम्बन्ध पतराये गेल रहनि। पत्नियो संगी नै बनि सभ दिन भनसिये रहि गेलनि।
खंडहर
जकाँ घर-घराड़ी। गाम अबिते पहिने घर-अंगना, बीस बर्खसँ परता पड़ल
चापाकल उड़ाहलनि। दरबज्जापर अबैत-अबैत मास दिन लगि गेलनि। दरबज्जापर अबिते
देखलनि जे अगिला बाड़ी परती पड़ल अछि। जँ एकरा चौमास बना लेब तँ सालो भरि परिवारक
तीमन-तरकारी तँ चलबे करत जे किछु बाँटियो-खोंटि लेब।
सहए केलनि। कहिया कतए सँ परता पड़ल खेतकेँ गहींरसँ ताम
करबा दयाकान्त चौमास बनौलनि। अल्लूक खेती केलनि। अखन धरि जे अल्लूक खेतीक
सम्बन्धमे बुझै छलाह तही हिसाबसँ तैयारो केलनि आ खाद-कीटनाश दऽ रोपबो केलनि।
बीस
दिन रोपला पछाति खेतमे चारि आना गाछ देखलनि। मुदा घबड़ेला नै, सबूर केलनि जे अखन जनमइयोक समए छैहे। तीस दिन पछाति जखन ओहो चौअन्नी
गाछमे सँ आधासँ बेसी जरिये गेलनि तखन माथ ठमकलनि। मुदा पुछबो किनकासँ कएल जाए।
तहूमे जिनगी भरि अपने दोसरकेँ बुझेलौं। ओना ओझरी मनमे लगए लगलनि मुदा चेत
गेलाह। जे खेतीक मर्म बुझैत होथि तिनकासँ बूझब नीके छी। बूझब, गहराइसँ बूझब आ मर्म बूझब भिन्न होइत अछि।
ठेहिआएल
दयाकान्त दीनानाथ ओइठाम पहुँचलाह। दयाकान्तकेँ देखिते दीनानाथ बजला-
“आऊ-आऊ, लाल भाय।”
रेडियो स्टेशनमे लाल भाइक नाओंसँ दयाकान्त छला तँए लाले
भाइक नाओंसँ जनैत छन्हि।
चाह पीब दयाकान्त बजला-
“दीना भाय, अल्लू रोपलौं से गाछे ने भेल?”
जहिना सौरखीक पात देखि डाँट पकड़ि सौरखी उखाड़ल जाइत तहिना
दीनानाथ पकड़ि पुछलखिन-
“अल्लू खुनि कऽ देखलिऐ जे सड़ि गेल आकि जीविते अछि?”
“हँ, सभ सड़ि गेल।”
“खेतमे हाल केहेन अछि?”
“से तँ बढ़िया अछि। ओते नै अछि जे अल्लू सड़ि जाएत।”
“तखन?”
“सएह नै बुझै छी।”
“बीआ काटि कऽ रोपने छलौं कि सौंसे?”
“गोटगरहा सौंस रोपने छलौं। तइ संग खादो आ कीटनाशको भरपूर देने
छलौं।”
खादक मात्रा सुनि दीनानाथ बजला-
“देखियौ कहिया कतए सँ जमीन पड़ता छल खिलतोड़ भेल। ओकरा
अपनेमे ओते शक्ति छै जे सुभर उपजा दऽ सकैए। तइमे तते खाद दऽ देलिऐ जे बीए जरि
गेल।”
~
मुँह-कान
काल्हिये बैंकक मैनेजर आबि सुनरलालक गाएकेँ सेहो देखि
गेल छलाह। एक्कैस हजारक गाए। गामक किसानक बीच एकछाहा चर्च। कियो सिलेब रंगक
चर्च करैत तँ कियो सिंह-सिंगहौटीक। कियो थुथुनक चर्च करैत तँ कियो गरदनिक अगिलाक।
जइठाम
मनुखोकेँ उचित अन्न नै भेट रहल अछि तइठाम मवेशी पालन धिया-पुताक खेल छिऐ। कते
दूधक जरूरत अछि, तइले कते मवेशीक जरूरत पड़त मूल प्रश्न
भेल।
एक तँ एक्कैसक हजारक गाए गाममे आएल अछि। अखन धरि जे नै
आएल छल। बैंकक लाभ जरूर भेल। मनधनो काका गाए देखए सुनरलालक ऐठाम एला।
गाइक
रंग-रूप देखि मनधन काका चैन होइत तमाकू खाइले बैसलाह। खुशीसँ खुशिआएल सुनरलाल
बाजल-
“काका, बहूदिनसँ हीक गड़ल छल जे एकटा नीक
गाए खुँटापर बान्हब, से भगवान पूर केलनि।”
भवधारमे बहैत सुनरलालकेँ देखि मनधन काका कहलखिन-
“बड़ सुनर गाए छह। मलकार की सभ कहलकह?”
काजक जड़ि दिस बढ़ैत सुनरलाल बाजल-
“चारि मास पछाति एक संझू भऽ जाएत आ छह मास लागत।”
“कते दूध होइ छह?”
“दू किलो भिनसर आ डेढ़ किलो साँझमे।”
दूधक नाओं सुनि मनधन काका चौंक गेला जे बाप रे कतए सँ
बैंकक कर्ज चुकाओत, कतए सँ गाइक खर्च जुटाओत आ कतए सँ अपने
गुजर करत। बात आगू नै बढ़ा मनधन काका सुनरलालकेँ चरिअबैत कहलखिन-
“छब दे तमाकुल खुआबह। एकटा काज मन पड़ि गेल।”
“एना अगुताइ किअए छह?”
मुदा मनधन काकाकेँ कोनो जबाब नै फुड़लनि। मनमे नचैत रहनि
युग तँ आर्थिक मोड़ लऽ रहल अछि। मुदा घिड़नीक चालि किमहर छै वस्तुक गुण दिस
आकि सुआद दिस?
~
अनदिना
शिक्षक अमरनाथकेँ देखिते रामकिसुन बाजल-
“मास्सैव, अनदिना गाममे देखै छी?”
रामकिसुनक प्रश्नसँ अमरनाथ अचंभित भऽ गेला जे एहेन बात किअए
पुछलनि। मुदा बाजबो तँ उचित नहिये हएत। रंग-बिरंगक जहिना शिक्षक छथि तहिना
विद्यार्थियो अछि। जेहने चलबैबला अछि तेहने चलौनिहारो अछि। कि हमरा कहने
झूठ भऽ जेतै जे शिक्षक सभ दरमहे टा उठबए विद्यालय जाइ छथि,
तँए कि ईहो झूठ भऽ जाएत जे सरकारो दहिन गबैया जकाँ महिने-महिने दरमाहा देब
छोड़ि सालक-सालेक पाहि लगबै छै। अमरनाथक मन ठमकलनि। अनदिना गाममे देखै छी,
अहाँ गामसँ हटि नोकरी करै छी, बिनु छुट्टीक
दिन गाममे छी, कि समाजक एतबे दायित्व बनै छै जे फल्लाँ
भाइक सातो बेटा गुरुजी बनि गेलखिन। अधभर मुस्की दैत अमरनाथ कहलखिन-
“भाय, की कहै छी, जुगेमे
भूर भऽ गेलै। अमैया छुट्टीमे गाम एलौं हेन आ ऐठाम देखै छी जे फैजली सभ कोशेबो ने
कएल हेन।”
दिन ठेकनबैत रामकिसुन बाजल-
“कते दिनक छुट्टी अछि जे एना हदिया गेलौं?”
“आब कि ओ जुग-जमाना रहल जे रोहनियासँ फैजली तक खाइक छुट्टी
होइ छै। आधासँ बेसी छुट्टी कटियो गेल अछि। जब हमर स्कूल खुजल तेकर पछाति आन-आन
स्कूलमे छुट्टी हेतै।”
रामकिसुन- “ई तँ अजगुते भेल?”
दहिना हाथसँ चानि ठोकि अमरनाथ बाजल-
“अहाँ अजगुत कहै छिऐ। एतबे अछि। पहिने सरकारियो ऑफिसमे आ
आनो-आनो ठाम किरानी होइ छलै अखनो अछि। तहिना स्कूलमे शिक्षक होइ छला अखनो छथि।
मुदा आबक शिक्षक सालो भरिक नै छह मसिया बनि गेलाह। छह मास धिया-पुताकेँ पढ़ाउ
आ छह मास ऑफिसक काज करू। जहिना नाचमे लेबरा सभ नै लेबराइ करैए तहिना ने हमहूँ
सभ कखनो माल्थस रॉविनसन करै छी तँ कखनो आबि घरे-घर बकरी-छागरक गिनती करै छी।”
अमरनाथक बात सुनि रामकिसुन ओल जकाँ कबकवेला नै, मुस्की दैत बजलाह- “होउ, अहीं
सबहक जुग-जमाना छी, जे काटब से काटि लिअ।”
रामकिसुनक
काटब सुनि अमरनाथ अह्लादित होइत बजलाह-
“ठीके ने अहाँ कहै छी। अपना सभकेँ जे सभसँ छोटका दिन होइए,
ओइमे कथीक छुट्टी होइए से बूझल अछि?”
“नै।”
“बड़ा दिनक!”
~
अपन काज
तेजीसँ समए अगुएने, विकास भेने महगियोक
वृद्धि धकधका गेल। तहूमे तीमन-तरकारीक तेजी भेने, बाड़ी-झाड़ीसँ
टपि खेत-पथार दिस बढ़ल। जइ चौमासमे अंडी-बगहंडीसँ लऽ कऽ भाँग-धथुरक बिरदावन
रहैत आएल छल ओ कटि-खोंटि चौमासो दिस घुसकुनियाँ कटलक।
अखन धरि कपलेसर परिवार धरिक तरकारी उपजबैत छल सेहो
कोनचरमे सजमनिक गाछ, आ गौसारपर अल्लू-कोवी, मिरचाइ, भट्टा उपजबैत छल ओ चारि कट्ठा कोवी खेती
करत। ओना पाँच बीघा जोतक किसान कपलेसर, मुदा खेतमे खादक हिसाब
धाने-गहुमक बुझैत अछि।
मिरचाइ
बाड़ीकेँ कड़चीसँ भोला बतिअबैत रहथि आकि कपलेसर अबिते पुछलकनि-
“भैया, चारि कट्ठा कोवी खेती करब,
तइमे कते खाद लगतै?”
कपलेसरक प्रश्न सुनि भोला तारतममे पड़ि गेला। रंग-बिरंगक
प्रश्न मनमे उठलनि। जइ खेतमे पहिल बेर खेती हएत आ जइ खेतमे साले-साल होइ छै,
उपजैक दृष्टिसँ दुनू एक केना भेल। कोवीक पछिला फसिल कि छलै, सिरो तँ रंग-रंगक होइ छै। कोनो छह आंगुर ऊपरे धरिक तँ कोनो बीत भरिक,
कोनो तोहूसँ गहींरक। जँ खेत खसले अछि तँ कते दिनसँ खसल अछि तही
हिसाबसँ ने रसेबो करत। तहूमे पृथ्वीक रस तँ आरो एकभग्गु छै। भोलाक मनमे लगले
उठलनि जे जखन बेचारा पूछए आएल सेहो ओहिना नै देखबो करैए। तखन किछु नै कहिऐ से
केहेन हएत। किछु कहैले ठोर चटपटेलनि मुदा मनमे उठि गेलनि जे कोन खादक नाओं
कहबै। ओहोमे तँ करामतिये अछि। एक्के खादमे कथूक मात्रा बेसी रहै छै तँ कथूक कम।
मन अकछए लगलनि जे अनेरे अपनो काज बरदा मगजमारी कऽ रहल छी। मुदा धाँइ दऽ किछु कहियो
देब केहेन हएत। मन घुमलनि अपन जबाब अपने उठलनि जे काज बरदाइए आ कि दोसर काज
ठाढ़ करैए। असथिर मन होइते पोखरिक पानिमे जहिना हवा पाबि हिलकोर लगैए तहिना
हिलकोर उठलनि। प्रकृतिक हिसावसँ मौसम बनै-बदलैत अछि। फसिलक अपन गति छै।
तइठाम क्षेत्र-क्षेत्रक मिलान नै हएत तँ उपजाक कते भरोस कएल जाएत। दुनियाँ घर
अंगना बनि गेल अछि दुरसक बात बेसी बूझै छी आ घरक बात बुझिते ने छी। गहुमेक
बाउगक समए इलाका-इलाकामे अलग-अलग तिथिसँ होइत अछि, तेकरा
केना बूझब। अपन बात सहजे शीतगृहमे रखि देने छी नइ तँ जयंती बाबड़ीमे थोड़े बन्हाएत।
मन थीर होइते भोला बाजल-
“कपले, पढ़ल-लिखल जेहेन छी से तहूँ जनिते
छह, आब तोरो उमेर कम नहिये भेलह। खेती करै छी पुछलह तँ कहै
छिअह। चारि किलो डी.ए.पी. तीन किलो पोटाश, कीटनाशक संग
खेतमे मिला दिहक। नवका किश्मक बीआ छेबे करह सवा-हाथ, डेढ़-हाथपर
रोपिहह।”
~
दूरी
जहिना समैपर काज भेने, भोजन आ अराम भेने,
मनमे हलचल कम उठैत तहिना नै भेने बेसी उठैत अछि। लोहोक मशीन नियमित
चलने अपन जिनगीक गारंटी करैत अछि तहिना मनुष्योकेँ गारंटीक सीमा भरिसक हेबे
करतै।
नियमित
जिनगीमे चलैत चिन्तू चाहक प्रतीक्षामे बैसल रहथि। ओना चाहक संयोग नीक छलनि जे
पुतोहुक बदला पत्नी हाथक चाह कएक दिनुका पछाति भेटतनि मुदा मन ओझड़ाइत रहिन जे
पत्नी बिनु पुछनहि तीन दिनपर चारि बजे भोरे आबि गेलखिन। मनक ओझरीक दूटा कारण
छलनि। पहिल-बिनु पछुने भाय-भौजाइ ऐठाम गेल रहथिन, जहिना गेल रहथिन तहिना बिनु बजौने चलिये आएल रहथिन। दोसर कारण रहनि
जे जखन ने हम हुनका (पत्नी) भरोसे जीबै छी आ ने ओ हमरा भरोसे, तखन जँ नहिये पुछलनि तँ कि हेतै।
समैसँ
बहुत पहिने तँ नहिये, अपने दोसरे दिस रहथि, मुदा सइयक अन्त नै शुरूहे दिसक रहनि तँए चिन्तूक मन बेसी आगू नै
बढ़ि ठमकि गेलनि। मुदा ठमकल नै रहलनि जना पछिलुके गप मोनकेँ तेना हौड़ि-हाँड़ि
देलकनि जे चाहक एके चुस्की लैत दोसर ठाढ़ भऽ गेलनि। ओ ई भेलनि जे पुरुष-औरत मिलि
एक जिनगी ठाढ़ करैत अछि, मुदा दुनू (माए-बाप)क बीच दूरी तँ
अछिये। तखन किअए कहै छै जे एक बाप-माएक दुनू परानीक बीच जे दूरी अछि ओकरो
झुठलौल जा सकैए। दू इलाका (लग-दूर) दू बोली, दू संस्कृति
जिनगीक क्रिया।
तइ
बीच अपसियाँत होइत पोता इन्तू आबि आगूमे ठाढ़ भऽ गेलनि। इन्तूक ड्यूटी छलै भिनसुरका
चाह बाबाकेँ पहुँचाएब। चाह पहुँचा पत्नी अटकली नै तइ बीच इन्तू आबि गेल। बाबा चिन्तूकेँ
अनुकूल बनबैत इन्तू बाजल-
“बाबा हौ, मन बड़ खुशी देखै छिअह?”
लत्तिये जकाँ बातो लतड़ै छै। साङह लगबैत
चिन्तू पुछलखिन-
“से तूँ केना बुझै छीही?”
इन्तू टपकि खसल-
“दादीयोकेँ हँसैत जाइत देखने छेलियह।”
~
पुरनी भौजी
बीस दिन बरिसाइत भेनौं धुर-झाड़ आम पाकब शुरू नै भेल अछि।
बिनु
बरखाक गरै जकाँ मेघक रूखि पकड़लक। दसो पोता-पोतीकेँ नेने पुरनी भौजी रोहनिया आमक
झमटगरहा गाछ लग बैस दसोकेँ कहलखिन-
“जे पहिने पाओत से मीरा, जे दोसर पाओत से
दोहल, जे तेसर पाओत से तेहल आ जे चारिम पाओत से चौहल।”
पुरनी
भौजीकेँ तीनटा बेटा छन्हि। बिनु गहबर गेनौं पोती-पोतीक ढवाहि लागल छन्हि।
बच्चा देखि माएक ममता तँ स्वाभाविक अछि। बाप तँ भरि दिन बोनाएले रहै छथि।
दस
बर्खक पोता जे मिड्ल स्कूलमे पढ़ैए; टेटियाह सुग्गा जकाँ
टाहि मारलक-
“मीरा माने कि भेल?”
बिहाड़ि
तँ बिड़हा गेल मुदा हवाक सिहकी उठल। ढेनुआर जकाँ धऽ कऽ भरभड़ा गेल। के पहिने
पौलक तेकर ठेकाने ने रहल।
~
छूटि गेल
तृतीयाक साँझ भगवती स्थानमे दऽ सावित्री बाबा लग आबि
फुदकैत बाजल-
“बाबा, एकटा बात बुझलौं हेँ?”
मद भरल पोतीक बात सुनि आगू सुनैक आशामे आस काशीनाथ ओइ
संगीत प्रेमी जकाँ जे एकक पछाति दोसरो सुनए चाहैत, मुँह बाबि पोती
दिस देखए लगलाह। मुँह रोकि सावित्री महराइक पलगाँ जकाँ प्रतिक्षा करए लगली।
काशीनाथक मन फड़फड़ेलनि जे भरिसक चुप्पा-चुप, धुप्पा-धुप
खेल ने भऽ गेल। हमरा उठलेसँ काज तँ हमरा बैसलेसँ काज।
सावित्रीकेँ काशीनाथ पुछलखिन-
“की सुनलौं?”
“अबै छलौं ते अहाँ दे लोक सभ बजै छलाह जे ओ आब ककरो नै गरिअबै
छथिन!”
गाइरिक नाओं सुनि सावित्रीकेँ अनुकूल बनबैत काशीनाथ
बजलाह-
“बुच्ची, कतेकेँ गरिआएब। अपने मुँह दुखा
जाइए। छोड़ि देलिऐ तँए छूटि गेल।”
~
काल्हि दिन
हमरा गामक पजरे पाभरि हटल कटहरबा गाम छै। हमरा गाम जकाँ
बरहवर्णा तँ नै मुदा तैयो दू सय घरसँ उपरेक छै। तीनिये-चारि जातिक बस्ती।
समांगक पातर रहने परदेश नै जाइ छी। अधपुरान साइकिलपर मसल्लाक
(मिरचाइ, हरदी, धनिया, लहसुन
इत्यादि) कारवार करै छी। हमर मेन मारकेट कटहरबे छी। पनरह-बीस घरक पाहि लगौने छी,
सभ दिन हरियरिये रहैए। बनियाँ जाति वाकी दुनियाँसँ कोनो मतलब
नै।
पैछला सालक भोट दिन कि भेलै से अखनो ने
बुझै छी। एतबे देखै छी जे दुनू गामक बीच खूब मारि भेल। दुनू गामक लोक झोरा लऽ लऽ
कोट-कचहरी करैए। चाहे जेकर गोटी लाल होय आकि कारी, हमरा कोन मतलब।
छगुन्तामे पड़ल छी जे मारि केलक कोय
रोजी-रोटी हमर केना छीना गेल। एकठाम रहितो दुनू गामक आबा-जाही किअए बन्न भऽ गेल?
अपना खेत-पथार अछि जे अपने आगिये-पानिये निमहब! तइ बीच
पत्नी आबि बजलीह- “एना सोग-पीड़ामे परिवार चलत?”
“काल्हि
दिन केना चलत सएह तँ अपनो िवचारै छी!”
~
अप्पन हारि
मनकेँ कतबो अपना दिससँ बहटारए चाहै छी तैयो कुकुड़ जकाँ
दुआर-दरबज्जा छोड़बे ने करैए। छोड़बो केना करत? कोनो कि आइयेक
संगी छी आकि जहिये पशु-पक्षी दिस तकलौं तहियेसँ ने ओहो संग लगि परिवारमे सटि
गेल।
अपन दुरागमन भेल। आने सभ जकाँ अपनो बूझि
पड़ए लगल जे सौंसे दुनियाँ दुलहनियेसँ भरल अछि। तहिना पत्नियोक आँखि हमरा
छोड़ि किछु देखबे ने करनि। थोपड़ी की कोनो एक्के हाथे बजैए। ओइले तँ दुनू हाथ
चाही। से भेबो कएल। बूझि पड़ए जे सौंसे दुनियाँ फूसि आ दुइये प्राणी सत् छी।
एहन स्थितिमे मेल-मिलानक कथे की। कान्हीसँ विचार धड़िक।
जहिना दुनू कसमकस पार्टीक बीच फैसला उचित
होइत तहिना भगवान निसाफो केलनि। तइसँ फलो नीक भेटल। जौआँ बेटा भेल। जँ दुनू दू
रहैत तँ बेइमानियो होइतै से एक्के रहए। खुशी तँ दुनू प्राणीकेँ भेल मुदा दू दिशामे।
अपना मनमे हुअए जे हे भगवान दसो साल जँ एहेन उपजा देलह तँ गाममे बीस भऽ जाएब।
तरे-तर माघक खेसारी जकाँ मन गदगदाएल। मुदा पार्टनरक विचार दोसरे रहनि। एकहरी बच्चाक
होन्हहारी-दर्द दोहराएल रहनि तँए पाण्डु रोग जकाँ पीड़ी पकड़ने।
चारि-पाँच मासक पछाति फेर दुनियाँ िदस
दुनू पार्टनर तकलौं। मुदा विचारमे खट-पट हुअए लगल। खट-पट एते बढ़ि गेल जे एक-एक
बेटा बाँटि दुनू दू दिस भऽ गेलौं।
तीन बर्ख भऽ रहल अछि। पत्निक हिस्साक
बच्चा फूल सन लहलह करैए। वएह अपन दहिना हाथक चटकन दिन-राति खाइए। कोन दुरमतिया
कपारपर चढ़ि गेल जे औझका थापर एहेन लागि गेलै जे मुँहेँ भरे माटिपर खसल।
अपन कोखिक कनैत बच्चाकेँ देखि पत्नी
गड़ियबैत बजलीह-
“पुरुख नै पुरुखक झड़ छी।”
सुनि क्रोध नै उठल। जना मनक सभ ताप-संताप मेटा गेल हुअए।
लजाएल आँखि, आँखिपर देलियनि तँ बूझि पड़ल जे झपटि लेतीह। मुदा जहिना
रौद पानिमे आ पानि रौदमे सटि नव जीवन धड़ैत तहिना आब अपनो विचारै छी।
~
कनफुसकी
गामेक स्कूलमे सोहनक संग दोस्ती भेल। ओना एक्के गाममे कनिये
हटि कऽ दुनू गोरेक घरो अछि मुदा आने गाम जकाँ। तीस साल पूर्व जखन एक्के विद्यालयमे
नोकरी भेटल तखन नजदीकी आएल। पाँच बर्ख पछाति अबर-जात नौत-पिहानमे बदलि गेल। दू
जाति रहितो छान-बान कमल।
तीस बर्ख बाद, आइ एहेन भऽ गेल जे नजरि दिससँ नजरि मिलए नै चाहैत अछि। सभ गुण मिलतो
एकटा अवगुन सोहनमे शुरूहेसँ रहल जे अनका कानमे फुसफुसा विचार कऽ घुसका-फुसका दैत।
जे ऐबेर बुझलौं। सेहो केना बुझलौं तँ जेकरा लग बजलाह ओ आबि जड़ि-सँ-अंत धरि
कहलनि। मन तुरुछि गेल। संग केने जखन सोहन लग पहुँच पुछलियनि-
“भाय, की सभ भोला भायकेँ कहलियनि हेँ?”
प्रश्न सुनि जना सोहनक बीख ओइ साँप सदृश बूझि पड़ल जे हबक
मारैले ककरो खेहारए लगैत, तइ बीच दोसरकेँ पाबि काटि लैत, तहिना! ने ओ किछु बजलाह आ ने दोहरा कऽ किछु पुछलियनि।
~
मुँहक बात मुँहेमे
पछबारि गामबलाकेँ एहेन दशा कहियो ने भेल हेतनि जेहेन आइ
बहिरा माए केलकनि?
पछबारि गामक घटक बहिरापर अबैत छलाह। गाम, घर-बरक चर्च सुनि नेने छेलखिन। मन मानि गेल छलनि जे अपना जोगर कुटुमैती
नीक अछि।
गामक सीमानपर अबिते एक गोटेकेँ पूछि
देलखिन। सभ गुणक चर्च नीके बूझि पड़लनि मुदा बहिरा नाओं सुनि मन भनभना गेलनि।
मन भनभनाइते, बैलून जकाँ देहक शक्ति निकलए लगलनि। आमक गाछ देखि, निच्चामे बैस सोचए लगलाह जे आब की करब?
घटकक भाँज बुझिते बहिरा माए विदा
भेली। घटक लग पहुँच बाजली-
“कोन गाॅ रहै छी, कतए जाएब?”
घटक- “एतै एकटा लड़का उदेसे आएल छलौं मुदा
लड़िकाक नउए बहिरा छिऐ। मन भटकि गेल। आब घुरि जाएब।”
बहिरा माए- “जँ बेटा-बेटी खेलाइ पाछू
बेहाल रहए आ माए-बापक आदेश नै सुनए, ते की बाप-माए ओकरा
मारतै आकि बहिरा कहि छोड़तै?”
~
कनीटा बात
कनीटा बात कत्ते नमहर भऽ जाइए ओ आब बुझै छी। पढुआ काका बेटे
जकाँ बूझै छलाह। जे कहै छेलियनि आँखि मुनि विश्वास कऽ लैत छलाह। खास कऽ
पाइ-कौड़ीबला काजमे कहियो दोहरा कऽ नै पुछलनि। ओइ दिन कोन दुर्मतिया चढ़ि गेल
जे मुँहसँ झूठ निकलि गेल। आरो ई भेल जे पुन: ओइ बातकेँ झूठ नै कहि देलियनि।
मुदा हुनका लग कोन झूठपकड़ा मशीन छन्हि जे ओ बूझि गेलाह, कहलनि-
“बौआ, तहूँ तहिना?”
कहि आगूमे थूक फेक देलनि।
सकपकाइत कहलियनि-
“की, कक्का?”
मुदा पढ़ुआ काका दोहरा कऽ किछु नै बजलाह जे आब बूझि रहल
छी।
~
गति-गुद्दा
सोलह बर्खक पछाति सुखदेव बम्बईसँ गाम आएल। पहिलुका
सुखदेवा नै जे ठोरनमड़ासँ जानल जाइत छल। ओ सुखदेव जे बम्बईक गली-कुचीसँ नोकरी
करैत सोलहम जिनगी एयर पोर्ट (शिवाजी टर्मिनल) पहुँच गेल अछि। खाली नोकरिये नै
नोकरी तँ ओहनो होइत अछि जे पानि पीऔनिहार गलियो-कुचीमे रहैत अछि आ एयरो
पाेर्टमे। ओ सुखदेव जे होटलक मसल्ला पीसब टा नै, काजक गति सेहो आ
मानसिक गति सेहो तेज केलक। ग्रेजुएत सुखदेव, आँफिसर
सुखदेव, जीप-कार-ट्रकक ड्राइवर सुखदेव।
गाम
अबिते सुखदेव भजिऔलक तँ भाँजपर चढ़ल जे खुशीलाले बाबा टा एहेन रहला अछि जिनकर
समांग नै बहड़ेलखिन। पुरना ढर्ड़ाक लोक खुशीलाल बाबा। जिनगी ओइठामसँ देखने जइठाम
पालकी, महफा, ओसारक ओहार, घरक ओहार चलैत छल। आइ कि देखै छी। मन-चित मारि अपन कुल-खनदानक जड़िमे
पानि ढारैत जीब रहला अछि। जइठाम गाम हमरा छोड़ि देलक, आ
हम गामकेँ छोड़ि देलिऐ, एहेन बहैत धारक त्रिवेणी मोरपर
खुशीलाले बाबा टा छथि। कने जिरेलाक पछाति भेँट करबनि।
तीन
बजेक समय। सुखदेव खुशीलाल बाबा ऐठाम पहुँचि गोर लागि अपन परिचए देलकनि। बैसैक
इशारो करथि आ सुखदेवक समाचारो सुनथि। मने-मन खुशियो होन्हि जे अही माटि-पानिक
बम्बईक शिवाजी टर्मिनलमे ऑफीसर बनल अछि। जहिना साँप अपन छन्द सुनबैत-सुनबैत
पड़ा गेल मुदा गड़ूल देखबे ने केलनि। तहिना खुशीलाल बाबा सुखदेवक समाचारमे हरा
गेलाह।
बजैत-बजैत सुखदेवकेँ बूझि पड़ल जे भरिसक हम अपने खिस्सा सुनबए एलियनि। विचार
रोकि पुछलखिन-
“बाबा, अपना दिसक कि हाल-चाल अछि?”
जहिना पुरना संगी पाबि हृदय खोलि सभ गप करैत तहिना
खुशीलाल बाबा बजलाह-
“बौआ, ऐठामक गिरहस्तकेँ कोनो गति-गुद्दा
अछि। धार माटि दुइर कऽ देलक। कोसी-नहर ठीकेदार खा गेल। मौनसूनी बर्खाकेँ रौदी खा
गेल। की कहबह।”
~
बिसवास
पनरह दिनसँ परेशान डॉक्टर परमेश्वर ओना माझिल
भाय-भागेश्वरक पेटक ऑपरेशनसँ परसुए पलखति पौलनि मुदा अपन अस्त–व्यस्त
जीवनकेँ पटरीपर अनैमे दू-दिन सेहो लगिये गेलनि। पटरीपर अनैक मतलब भेल निश्चित
समैपर िनर्धारित काज करब।
साँझक सात बजैत। चाह पीब सिगरेट सुनगा पहिलुक दमक धुआँ
मुँहसँ फेकिते रहथि कि मनमे उठलनि, ऑपरेशन करैबलामे हमरो
लोक जनैए मुदा अपना ऑपरेशनमे भाय-सहाएबक मन किअए ने मानलकनि। जखन अपने घरक समांग
बिसवास नै करत तखन दुनियाँक अशे की? मुदा मझिलो भैया तँ
ओहन नहिये छथि जे आँखि मूनि किछु करताह।
जते डाॅ. परमेश्वर इनारक पानि जकाँ डोलसँ ऊपर करथि तइसँ
बेसिये पानि तलाव टुटल मोकर जकाँ मनमे भरि जान्हि। हाँइ-हाँइ तीनटा सिगरेट
पीब गेलाह मुदा पश्नक उत्तरक माटि नै छूबि सकलाह। बिसवास करब..., नै करब..., मनमे ओझरी लागि गेलनि। जहिना नन्हकी
काँट बुढ़-पुरानक नजरियोपर नै पड़ैत आ धिया-पुता लप दऽ निकालि लैत। तहिना
डॉक्टर सहाएबकेँ अंतिम विचार मनमे अँटैक गेलनि जे भागेश्वर भैया आन थोड़े छिआ
जे लाज-संकोच करब। हुनकेसँ पूछि मन थीर कऽ लेब।
ओना भागेश्वरक आदति छन्हि जे सोझमे पड़ैत पूछि दैत छथिन
जे भैया कि काका आकि बौआ, की हाल-चाल अछि। तँए जखने पुछताह कि टटके
प्रश्न पूछि देबनि।
आराम करैत भागेश्वर गपे केनिहारक प्रतिक्षा करैत रहथि।
डाॅ. परमेश्वरकेँ लगमे देखिते पूछि बैसलाह-
“बाउ, की हाल-चाल अछि?”
हाल-चाल सुनिते डॉ. परमेश्वर व्याख्या करैत बजलाह-
“हाल-चाल कि रहत भैया अहाँसँ िनवृत्ति भेलौं आ एकटा बात मनमे
उठि कऽ ठाढ़ भऽ गेल अछि।”
बिच्चेमे भागेश्वर टोकलकनि-
“एते भूमिका बन्हैक कोन प्रयोजन, कोन
बात?”
डाॅ. परमेश्वर- “पेटक ऑपरेशनक डाॅक्टर
हमहूँ, कतेको करबो केलौं, कतौ अजस नै
भेल। मुदा अहाँसँ जखन पुछलौं तँ दोसरकेँ किअए पसिन केलिऐ?”
भागेश्वर- “बौआ, अहाँ साधारण श्रेणीक नै छी जे किछु कहि देब। दू रूपमे ज्ञान काज करै
छै। गुण आ िनर्गुण। अहाँ छोट भाए छी, जखन पेट कटितौं तखन
छाती दहैलियो सकै छलए। मुदा देखैक जे भार देलौं से अही दुआरे जे अपन जेठ भाय बूझि
नीकसँ तकतियान करितौं।”
~
कचहरिया-भाय
कचहरिया-भायकेँ देखिते नीरस बाजल-
“भाय, ओहूँकेँ कचहरिया उत्तरी भरिसक नहिये
उतरत?”
कचहरिया भाय आ नीरस लंगोटिया संगी। भरिसक नै साल, तँ महिने, नै महीना तँ दिने, नै दिन तँ घंटे-मिनट नीरसे पैघ हेतनि। जिनका जन्म–टिप्पणि लिखाएल हेतनि तिनका ने जिनका नै लिखाएल हेतनि ओ तँ अपने
टीपत। कचहरिया-भाय बच्चेसँ चंगला से नीरसमे कम छल। जहिना बगुला पोखरिक वा पानिक
किनछरि धड़ैत तहिना एकठाम रैन-बसेरा रहितो कचहरिया-भाय कचहरीक लाट पकड़ि
लेलक। नीरसक प्रश्न कचहरिया भाइक मन हौड़ि देलक। दुनियाँ बड़ीटा छै, झूठ-सच चलिते रहतै। चलबो केना नै करतै? कोनो की अन्हार
इजोत एक दिना छी जे ओरा जाएत। तखन तँ भेल जतए छी ततए कुहेसकेँ भगा कऽ राखी। तहूमे
नीरस लंगोटिया भैयारी छी, कोन दिनक कोन गप एहेन हएत जे नै
बूझल हेतइ। रसे-रसे मनकेँ सोझ करैत बाजल-
“बौआ नीरस, रहल तँ रस, नै तँ बेरस। आब अपना सभ अंतिम घाटक घटवार भेलौं। भगवान तोरा सन बेटा सभकेँ
देथुन जे कन्हाक भार उतारि अपना कन्हापर लऽ लेलक।”
आगूक बात बजैले कचहरिया भाइक ठोर पटपटाइते रहै आकि बीचेमे
नीरस टोकि देलक-
“अहाँक बेटा की दब छथि?”
जना कचहरिया भाइक छाती चहकि गेलनि। फुटल कसताराक दही
जकाँ मुँहसँ निकललनि-
“रसगुल्ला रसक चहटि शुरूहेसँ लगि गेल जे अपनो बुझै छी।
हलवाइक कुकुड़ जकाँ एक्कोटा रुइयाँ देहमे नै अछि मुदा चहटियो तँ चुहटि कऽ
चोहटबे करत।”
बाल-बोध जकाँ नीरस मनकेँ फुसलबैत-बहलबैत बाजल-
“अच्छा भाय, एकटा कहू जे जुआनी आ
बुढ़ाड़ीमे की बूझि पड़ैए?”
सह पबैत कचहरिया भाय भगैतक पलगाँइ जकाँ बाजल-
“गेल रे जुआनी फेर कतए पएब।”
नहलापर गुलाम फेकैत नीरस भाय बाजल-
“कृपा पाबि कियो मूकसँ वाचाल बनैए तँ कियो वाचालसँ मूक!”
कहि मुड़ी डोलबैत दुनू गोरे जिनगीक कुन्ज भवनमे घुमए
लगलाह।
~
गुहारि
कमला कातक नवटोलीक गहबर बड़ जगताजोर। सएह सुनि अपनो गुहारि
करबैक विचार भेल। भाँज लगेलौं तँ पता चलल जे तीनू वेरागन-सोम, बुध आ शुक्र- भगता भाउ खेलाइ छथि मुदा शुक्र दिनकेँ तँ साक्षात् कालियेक
आवाहन रहै छन्हि। मन थिर भेल। डाली लगबए पड़ै छै तँए ओरियौनक विचार भेल। मन
भेल जे पत्नीकेँ डाली ओरयौनक भार दियनि। मुदा बोलकेँ रोकि विचार कहलक-
“देवालयक काज छी, एकोरत्ती कुभाँज भेने
गुहारियो उनटे हएत। डालीक बौस बाजरसँ कीनए पड़त। मुदा सस्त दुआरे जनिजाति
उनटा-पुनटा बौस कीन लेतीह।”
मन उनटि गेल। अपने हाथे किनैक िनर्णए केलौं।
बाजार पहुँच फूल काढ़ल सीकीक रँगर डालीक
संग बेसिये दाम दऽ दऽ नीक-नीक बौस कीनलौं। मन पड़ल जे भरि दिन उपास करए पड़त।
चाहो तक नै पीब सकै छी। जँ पीबैओक मन हएत तँ गोसाँइ उगैसँ पहिने भलहिं पीब लेब।
तनावसँ भरि दिन मन उदीग्न रहैए। ने काज करैक मन होइए आ
ने कियो सोहाइए। एहेन तनाव दुिनयाँमे ककरो भरिसके हेतै।
कोन जालमे पड़ि गेल छी। तहूमे एकटा रहए तब ने। जालक-जाल
लागल अछि। जमीन-जत्थाक जाल, जन-जाल, मन-जाल,
तन-जाल, शब्द-जाल,
अर्थ-जाल, विचार-जाल, वाक्-जाल नै
जानि कते जाल बनौनिहार कते जाल बना कऽ पसारि देने अछि। एक तँ ओहिना इचना माछ
जकाँ लटपटाएल छी तइपरसँ जालक-जाल। गैंचीक नजरि तँ नै जे ससरि-फसरि छछारी कटैत
जान बचा सोलहन्नी जिनगी पाबि लेब। तँए नवटोलीक गहबरमे डाली लगेलौं।
गुहरियाक कमी नै। अकलबेरेसँ गुहरिया
पहुँच पतियानी लगा बैस गेल। गहबरक भीतर भगत बैस धियान मग्न भऽ गेलाह। गहबरसँ
उदेलित भाव भगतक हृदैकेँ कम्पित करैत। गुहारि करए बाहर निकललाह। हाथमे जगरनथिया
बेंतक छड़ी नेने। भगत गुहारि शुरू करैत कहलखिन-
“भगत-अश्रमसँ श्रमक बाट पकड़ि चलि जाउ। आगू किछु ने हएत।”
भगतक पछाति डलिवाह कहथिन-
“पाछु घुिर नै ताकब। कतबो जोगिन सभ कानि-कानि किअए ने बजए
मुदा घुरि नै ताकब।”
हमरो नम्बर लगिचाएल। मुदा एक्के वाक् सुनि उत्सुकता ओते
नहिये रहए जते नव वाक् सुनैक होइत। अनेरे मनमे तुलसीक विचार उठि गेल। कहने छथि
जे जेकरा जंजाल रहै छै तेकरा ने चिन्ता होइ छै। जेकरा नै छै?
तही बीच भगत सोझमे आबि गेलाह। पैछले बातकेँ दोहरबैत एकटा
नव बात पुछलनि-
“छुटि गेल किने?”
बिनु तारतमे बजा गेल- “हँ।”
विदा भेलौं। बाटमे विचारए लगलौं जे
अश्रमक अर्थ कि होइ छै। मुदा कोनो अर्थे ने लागल। हारि कऽ ऐ निष्कर्षपर एलौं
जे एक सोगे आएल छलौं दोसर नेने जाइ छी।
गाम अबिते टोल-पड़ोसक लोक भेँट करए आबए
लगलाह। सभ एक्के बात पुछथि-
“की भेल?”
किछु गोटेकेँ प्रश्ने बना कहलियनि- अश्रमक अर्थे ने
बुझलौं। अहीं कहू। मुदा जते मुँह तते रँगक उत्तर भेटए लगल। सुनैत-सनैत मन
घोर-मट्ठा भऽ गेल। पछाति जे कियो पूछथि तँ कहए लगलियनि-
“जहिना छलौं तहिना छी। जहिना छलौं तहिना छी।”
~
शिवजीक डाक-बाक्
चौदहो भुवन भ्रमणमे काग-भुशुंडी बौराएल रहथि कि तइ बीच शिवजीक संग
गुरूओजी पहुँचलथि। सज्जा सजल शव जकाँ काग-भुशुंडी, ने गुरूएजी आ ने
शिवजीए दिस तकलनि। मणिक जोहमे अपने समुद्रमे डूबकी लगबैत। दलदल पानि सदृश
गुरूजी, तॅँए कोनो आनि-पीड़ा नै भेलनि। मुदा पाछु पिछड़ैत काग-भुशंुडीकेँ देखि
शिवजीक क्रोध सीमा तोड़ि बहरा गेलनि। जहिना हुकड़ैत ढेनुआर गाए चुकड़ैत बच्चाकेँ
देखि मलकार (पोसिनिहार) जँ नै दुहै तँ कि गाए कोकणि नै जाएत। के दोखी?
शिवजीक बाक-डाक नै। काग-भुशुंडीक लेल धैन-सन। चाँकि नै देखि काग-भुशुंडीकेँ शिवजी
कहलखिन-
“जा रे अभगला, अजेगरोक कान कटलह।”
~
सोग
आने दिन जकाँ तड़गरे प्रोफेसर लीलाधरक नीन टुटलनि। जना आन
दिन नीन टूटिते ओछाइन छोड़ि टहलए विदा भऽ जाइ छलाह से आइ नै भेलनि। ओछाइन
छोड़ैसँ पहिने मनमे उठि गेलनि एक्कैस मार्च। पचास बर्ख पूरि एकावनममे प्रवेश
कऽ रहल छी। मनमे उठलनि जिनगीक पचास बर्ख। जँ सइये बर्खक अधार बनबै छी तैयो अधा
टपि गेलौं। मुदा से केना हएत? जिनगी तँ विभाजित अछि। तँए एकक
बाद दोसरमे प्रवेश आ पैछलाक नीक-अधलाक समीक्षा। मुदा हिसाबे उकड़ूमे
पड़ि गेल अछि। सए बर्ख जीबे करब तेकर कोनो गारंटी अछि..।
तखन अधा केना मानब। लगले नजरि नोकरी दिस बढ़लनि। जइ दिन नोकरी शुरू केने रही तइ दिन बतीस
बर्खक जोड़ने रही। गुन भेल जे तीन बर्ख बढ़ि गेल। पेइतीस बर्खक नोकरी भऽ गेल जइमे पच्चीस बर्ख
पूरि गेल अछि। दसे बर्ख बचल अछि। अहू पच्चीस बर्खमे आठ बर्ख ओझे-गुनी खेलक।
सत्तरह बर्खक नोकरीकेँ नोकरी बुझलौं, जखन कओलेज सरकारी भेल।
एकाएक बीस गुना जिनगीमे उछाल आएल। साठि हजारक नोकरी कोनो मामूली छी, जइठाम अखनो कते पेटेपर खटैए। मुदा जहिना तीआरि जालक ओझरी जे छोड़बै दुआरे
लोक पूँजिओ गमा फेकिये दैत अछि। मुदा से तँ लीलाधरकेँ नै भऽ पाइब रहलनि हेँ।
ओझरी जत्ते छोड़बए चाहथि तते अमती काँट जकाँ ओझराइते जाइत छलनि।
तखने पत्नी ओछाइन छोड़ि,
कपड़ासँ पौछैत मुँह, एेनामे देख,
कटोरिया धोंधि नेने फुदकैत विजयक खुशीसँ मुस्की दैत लीलाधरक ओछाइन लग
पहुँच मुँह दिस तकलनि।
टक-टक आँखि तकैत लीलाधर पत्नीकेँ नै देखलनि। मनुष्य कि चिड़ै आकि कौछ छी
जे अंडा दऽ पड़ा जाए। पड़ाएल कि पड़ाओल गेल एे प्रश्नमे लीलाधर ओझराएल।
टकटकी देखि पत्नी डरि गेलीह। मुदा तैयो अपन अर्ज निमाहैत
बजली-
“कथीक सोग...?”
प्रो. लीलाधर-
“किछु ने?”
जिनगीक सोग। मरैइयो बेर तक पत्नी सिरे चढ़ि खेती, काल्हि धरि केलौं? यएह ने जे तते हित-अपेछित बना
लेलौं जे सालक दस प्रतिशत कमाइ भोज-भातमे चलि जाइए। तइपर अपनो सभ दिन अनके खेबै, से केहेन हएत। मुदा सभ दिन जँ भोजे खेबै तँ विद्यापतिक हिसाब (अधा जनम
हम नीन गमाओल) केँ की करब। ने किछुओ पाइ जमा कऽ राखि सकलौं आ जेहो
केलौं ओ दस
बर्ख बादे भेटत। की तीनू बच्चाकेँ आगूक शिक्षा दऽ पाएब।
~
पनचैती
परसूसँ सौंसे गाम यएह चरचा जे ई पनचैती केना हएत। एक दिस
सोनेलाल बाबा आ दाेसर दिस विधायक जीक प्रतिनिधि। तहूमे खासे मसियौत सेहो छियनि।
विधायकजी भिन्ने गजुआइत जे एक जातिक वोट प्रभावित हएत।
मुदा अपनो आदमी तँ किछु नै कहत सेहो बात तँ नै। नीक हएत अस्पताल धऽ ली। भेँट करए
सभ एबे करत, ओतइ सँ फरिया देब।
सोनेलाल बाबाक दियाद-वाद, जाति-समाज इन्दिरा अावासक भाँजमे। तँए या तँ गबदी मािर देत
या तँ सोझा एबे ने करत। पुतोहूक दुआरे बेटोसँ मिलान नहिये जकाँ। मुदा बिना फड़िओने
तँ टुटल गाड़ीक पहिया जकाँ गेबे करत। ‘काँकोड़-रोटी।’
चेहरासँ सोनेलाल बाबा अस्सी बर्खक बूझि पड़ै छथि मुदा
छथि छियासठिये बर्खक। जरल मनमे आगि उठलनि। तीन साल पहिने इन्दिरा आवास वएह
प्रतिनिधि विधायक जीक सोझमे गछलखिन। सोनेलाल बाबा तही दिनसँ बौआइ छथि। मुदा
अखन धरि नै भेटलनि। बेचाराक मनक धधड़ा ओइ दिन भभकि उठल जइ दिन सोनेलाल बाबा
पुछलखिन-
“नेताजी, दौगैत-दौगैत टाँग टूटि
गेल। आबो कहू?”
प्रतिनिधि-
“आइक युगमे बिना खुऔने-पीऔने काज चलै छै?”
सोनेलाल बाबा- “ई बात ओइ दिन किअए ने
कहलौं जइ दिन हमरो हाथमे भोट छल।”
“अखन एते छुट्टी नइए, दोसर दिन बात करब।”
पगलाएल सोनेलाल बाबा कि केलनि से अपनो
नै बुझलखिन।
~
कचोट
आजादीक चौसठिम वर्षगाँठ मनबए खुशीक समुद्रमे आबाल-वृद्ध डुमल।
चौदह अगस्तक निसभेर राति। अचानक पत्नीक छातीमे टनक उठलनि। दू बजैत। बारहे बजे
रातिसँ जहाँ-तहाँ रबासि-फटाका फुटैत। अधिक धिया-पुता भेने बेसीकाल घरवाली
खन-खनाएले रहै छथि। अपनो अभ्यस्त भऽ गेल छी। जइसँ ने डाॅक्टर ओइठाम जाइमे
अबूह लगैए आ ने लसुन-तेला बना मािलस करैमे। घरक अनिवार्य खर्चमे दवाइयो-दारू आबि गेल अछि। तँए कखनो
मनमे चिन्ता-फिकिर नहिये जकाँ रहैए।
एक तँ सौन-भादबक अन्हार, तइपर मेघडम्बर जकाँ मेघौन। एत्ती
रातिमे की करब? ने गाममे डाक्टर छथि जे लालटेनो हाथे बजा
अनबनि, थाल-खिचारक रस्ता, चारि किलोमीटरपर
डाॅक्टरक घर। जहिना कोनो फनिगा मकड़जालमे फँसि छटपटाइत तहिना मन छटपटाए लगल।
मन पड़ल दुनू प्राणीक जिनगी। समाजमे अपना सन कते जोड़ा अछि जे दोहरा कऽ सिनूर
भरने हएत। जीता-जिनगी विश्वासघाती नै बनब। जे बनि पड़त तइमे पाछू नै हटब। उत्साह
जगल।
घरक जते टँगर रही सेवामे जुटि गेलौं। कियो तेलक मालिस तँ
कियो सुखले ऐँठुआ ससार करए लगलनि। अपने रिक्सा भजियबए विदा भेलौं। मझिली
बेटी माएक आंगुर फोड़ि-फोड़ि रोग जाँचए लगलि। जहिना थर्मामीटर लगा डाॅक्टर
बोखारक जाँच करैत तहिना ने मलकारो मालक पाउज गनि रोगक जाँच करैए।
तीन बजे भोरमे रिक्सा नेने पहुँचलौं। माएकेँ उठा बेटा-बेटी रिक्सापर
चढ़ौलक। जेठका बेटाकेँ संग केने डॉक्टर ओइठाम विदा होइत तेसर बेटाकेँ
कहलिऐ-
“बौआ दिनेश, माल-जालक तकतान करब।”
गामेक मिड्ल स्कूलक पाँचमा क्लाशमे पढ़ैत दिनेश। फस्ट
करैए। शिक्षककेँ जहिना गुरूक आदर करैए तहिना अपनो दुनू बेकतीक लेल श्रवणे-कुमार छी।
साढ़े एगारह बजे घुमि कऽ एलौं। एक तँ
रौद तइपर कठगुमारी। पियासे मन तबधल। दरबज्जापर रिक्सा देखिते
दिनेश लोटामे पानि नेने पहुँचल। लोटाक पानि देखि हृदए उमड़ि गेल। अनायास
मुँहसँ निकलल-
“बौआ, इस्कूल...।”
अखन धरि दिनेश बिसरि गेल छल पनरह अगस्त, स्वतंत्रता दिवस।
बिसरि गेल छल झंडाक संग मिल चलब, बिसरि गेल छल नव वर्षक
उपहार।
दिनेश बाजल-
नै, केना जेतौं।”
मनमे असहनीय कचोट भेल। मुदा बात बहलबैत बजलौं-
“बौआ, एहेन फेड़ा जिनगीमे कहियो ने भेल
छल। मुदा सभ शुभ-शुभ सम्पन्न भेल।”
~
अजाति
गुरु काका, बड़का काका, पढ़ुआ
काका, लाल काका, भैया काका, दोस काका, संगी काका सभ एकठाम बैस रघुनाथक गप चलौलनि।
गुरु काका बजलाह-
“शेतानक चरखी अछि रघुनत्था।”
सह मारैत बड़का काका कहलखिन-
“एहेन छुतहर एकोटा ने कुल-खनदानमे भेल।”
एकमुहरी गप देखि दोस काका बजलाह-
“एना गौं-गौं केने नै हएत? किछु स्पष्ट
विचार करए पड़त।”
अपन भार हटबैत पढ़ुआ काका टपकि गेलाह-
“भने दोसक विचार छै। लाल भाय अहीं अपन िनर्णए सुना दिऔ।”
गंभीर होइत लाल काका फैसला देलखिन-
“रघुनाथ अजाति भऽ गेल।”
~
पटोर
किशोरी ऐठाम बिआहक काज तेतरी सोहो देखलक। पक्का पति-भक्त
तेतरी। राति-दिन पतिक विचारक सेवा हृदैसँ करैत।
रंग-रंगक पटोर साड़ी पहिरल देखि
लाड़-झाड़ करैत पति-गुलेतीकेँ तेतरी कहलक-
“हमरो पटोर साड़ी कीन दिअ?”
अनुकूल रखै दुआरे गुलेती अनुकूल शब्दक सहारा लैत सोचए लगल
जे जहिना अन्हार घर साँपे-साँप होइ छै तहिना ने दुनू बेकती छी। रंगक चमकी देखि
ओ (तेतरी) लटुआएल अछि आ अनुकूलक अपने लटुआएल छी। मुदा छी तँ दुनू एक्के रंग। जखन
एक्के रंग छी तखन बीचमे बाधा कथीक। जेहने अपने पटोर साड़ीक सम्बन्धमे जननिहार, किनिनिहार छी तेहने ने ओहो अछि। तखन तँ भेल जे, की
परसै छी, तँ फूसि। तहन कनी लगा कऽ देबइ। ओना अपन आँट-पेट
देखि गुलेती सहमल नै। बुझलक जे जहिना गुलेतीक शिकार तहिना ने मुँहक शिकार
होइए। दुनूक सोल्हैनी गारंटी थोड़े अछि। तहूमे चोबिसो घंटा संग रहनिहारि नारीक
नश-नश नै बुझी तँ ई केकर दोख। जहिना कलीसँ गुलाब छिटैक छिटकए लगैत तहिना
चौवन्निया मुस्की छिटकबैत गुलेती बाजल-
“केहेन पटोर लेब?”
जहिना स्वर्गक आशामे लोक, सभ किछु दान
करैले तैयार रहैत अछि तहिना पटोरक आशामे तेतरी भेल। हजारोक भीड़मे जहिना प्रेमी
प्रेमीकेँ पकड़ि सटि जाइत, तहिना गुलेतीक हृदैमे तेतरी
सटि गेल। गोदीक बच्चाक सुतैक भार जहिना गोद लैत तहिना एेलिसाएल तेतरी बाजल-
“जेहने किशोरीक अंगनामे देखलिऐ।”
“एक्के रंगक देखलिऐ?”
“नै, सभ रंगक रहै।”
एकटा संगी रहने ने लोक हराइए जौं तइसँ बेसी होइ तँ केना
हराएत? जेतै हराए लगत ततै संगी भेट जेतै। पत्नीकेँ हराइत देखि
गुलेती बाजल-
“अहाँक विचार नै मानब तँ दुनियाँमे केकर विचार मानै बला अछि।
अहाँकेँ हाथ पकड़ि अनने छी तहन विचार केना नै मानब। अहाँक मांग मानि लेलौं।
कागजमे लिख लेलौं। जइ दिन बजार जाएब तइ दिन किनने आएब। खाली बजार जाइ घड़ी
पुरजी मोन पाड़ि देब अहाँ। अच्छा एकटा बात बूझल अछि, ओ
साड़ी (पटोरबला) एक्के बेर पहिरला बाद खिंचल जाइ छै से। से सभ दिन कतए खिंचबै?”
साड़ी खिंचब सूनि तेतरीक विचार ठमकि गेल। बाजलि-
“तखन ऐबेर छोड़ि दिऔ। आगू साल अगते कीन देब।”
भार घुसकैत गुलेती दुनू जाँघपर हाथक शान पिजबैत बाजल-
“कहू तँ भला, अच्छा अहीं माेन पाड़ि दिअ
जे एतेक उमेरमे अहाँक कोन गप कहिया कटलौं?”
केकरो गप अपने टूटि जाइ छै तँ ऐमे केकर दोख। हँ तखन ई बात
जरूर भेल अछि जे गामक चालि बदलल! पहिने गाममे चोरकेँ अबिते
जएह देखलक सएह चोर-चोर हल्ला करए लगैत छल मुदा अर्थक चक्का तेहेन दिशा पकड़ि
लेलक जे सामाजिकता तहस-नहस भऽ गेल अछि। जहिना राम-रावणक बीचक जे तीर चलए आ
दस-दस बीस-बीस गर्दनि कटि हवामे उधियाइत एकठाम भऽ सटि जाइत तेहने ने भऽ रहल अछि।
(ई कथा, “पटोर” मनोज कुमार कर्ण उर्फ मुन्नाजी लेल...)
~
फुसियाह
सुभितगर समए भेने अनुकूल काजक वृद्धि जिनगीकेँ आगू
मुँहेँ ओहिना ससारैत अछि जहिना प्रतिकूल भेने विपरीत दिशामे पाछू मुँहेँ
ससारैत अछि। मुदा किछु भेद तँ भइये जाइत अछि। ओ छी कम-बेशीक गणित।
साँझक आठ बजैत। ओना माघक आठ राति कहबैत
अछि मुदा से नै साओन-भादोक आठ साँझे कहबैए। आठ घंटा दमकल चला घरपर आबि कमलदेव
गद्गदाएल मने पत्नी-सुचित्राकेँ कहलनि-
“पहिने चाह पिआउ, पछाति एकटा गप कहब?”
जहिना कर्मकेँ वचन सदति दबैत रहैत अछि तहिना सुचित्रा
चाह बनबैसँ पहिने हठ करैत बजलीह-
“सुनल रहत तँ चाहो बनबै बेर विचारब, ओना
खट-खुट मन केने कहीं चाहो ने दुइर भऽ जाए।”
पत्नीक बात सुनि कमलदेव सोचमे पड़ि गेलाह। शुभ काजमे अशुभ
बात ओहन करामात कऽ दैत जहिना एकटा छिक्का हाइ-कोर्टक फैसला उनटा-पुनटा दैत अछि।
हो ने हो कहीं अही गपक धूनिमे चाहक धूनि बिसरि जाथि। तखन तँ दिन-भरिक मेहनति
तँ मेहनते रहि जाएत, बजला-
“अनेरे कोन झूठ-फुसिक फेरिमे पड़ै छी पहिने चाह पिआउ,
तखन दुनियाँ-दारीक गप-सप हेतइ।”
मुस्की दैत सुचित्रा उत्तर देलनि-
“तँए ने पहिने घर-परिवारक काज निबटा लिअ चाहै छी। अहीं सन
पुरुख हम थोड़े छी जे भरि दिन छाती भरे खटै छी आ गामक लोक फुसियाहा कहैए।”
पत्नीक बात सुनि कमलदेवक मनमे झोंक एलनि। जहिना गुम
हवामे सूर्यक ताप अपन करामात करैत तहिना एक तँ कमलदेवक मनमे चाहक झोंक चढ़ल
तइपरसँ पत्नीक मुँहेँ फुसियाह सुनि झोंक तेज भऽ गेलनि,
बजलाह-
“ने अहाँ कहने कटहर हएत आ ने गौआँ कहने बरहर हएत। कटहर कटहरे
रहतै, बरहर बरहरे रहतै। एक रंग आँठी-कमड़ी भेनहि की हएत?”
पतिक विचारकेँ अांकैत सुचित्रा बजलीह-
“अहाँ तमसा गेलौं। तमसाउ नै। लोक जे अहाँकेँ फुसियाह कहैए तेकर
कारण अछि जे काजक हिसाबसँ समए नै दइ छिऐ, घड़ीक हिसावसँ
समए दऽ दइ छिऐ।”
पत्नीक विचारकेँ आंकैत कमलदेव दोहड़बैत बाजला-
“कनी फरिछा कऽ कहियौ?”
सुचित्रा-
“केकरो खेत पटबैक जे समए दइ छिऐ ओ खेतक हिसाबसँ समए दिऔ।
काजक समए दोसर होइ छै आ घड़ीक समए दोसर।”
~
गति-मुक्ति
सज्जासनसँ उठि आँखि मीड़िते बाबा रमचेबलाकेँ उठबैत
कहलखिन-
“रे रमचेलबा, दिन-रातिकेँ लोक एकबट्ट
करैक भाँजमे अछि आ तूँ ढेंग जकाँ पड़ले रहमे?”
आँखिक काँच-सूखल काँची पोछैत रमचेलबा ओछाइनेपर सँ बाजल-
“जे कहै छह से तँ कइये दइ छिअ। तखन ढेंग किअए कहै छह?”
जाधरि बाबा नहलापर गुलाम फेंकितथि ताधरि ओछाइनपरसँ उठि
रमचेलबा लगमे पहुँच गेलनि। बाबा कहलखिन-
“रे तों ते हमर ने कऽ दइ छेँ, तइसँ थोड़े
हेतौ।”
मुँह बाँबि जहिना चूजा अहार मंगैत तहिना रमचेलबा पुछलकनि-
“तब?”
रमचेलबाक जिज्ञासा देखि बाबा कहलखिन-
“अपना ले कर।”
बाबाक पक्का चेला रमचेलबा। एक पाइ बाम-बुच नै। मुड़ी डोलबैत
बाजल-
“अच्छा, गिरह बान्हि लेलियह। मुदा
ढेंग किअए कहलह?”
रमचेलबाकेँ मानै जोकर भाषामे बाबा कहलखिन-
“देख, जाबे गाछक शील काटि कऽ राखल रहै छै
ताबे ढंेग कहबै छै। ओकरे जखन आड़ा-मशीनपर लऽ जा तख्ता चीड़ा नाव बना पानिमे
दौड़बै छै तखन ओहो अपन भरि पेट आदमीकेँ धारमे झिलहोरि खेलैत पार करै छै। मुदा
एकटा बात कहि दइ छियौ, जे जे पुछबाक होउ से पूछि ले,
किअए तँ एको मिशिया जीवैक मन नै होइए।”
पाछू उनटि रमचेलबा तकलक तँ बूझि पड़लै जे जाबे जीवैक लूरि
नइए ताबे जीवै केना छी। तहूमे बाबाक संगे। मुदा बूढ़-पुरानक बिसवासे कत्ते जँ
कहीं टटके आँखि मूनि देलनि तखन तँ अपनो मनमे आ हुनको मन लगले रहि जेतनि।
पुछलकनि-
“बाबा हौ, गति-मुक्ति केकरा कहै छै?”
रमचेलबाक प्रश्न सुनि बाबा विह्वल भऽ गेलाह। भावावेषमे
कहए लगलखिन-
“चौबीसो घंटा जँ समए संग मनोनुकूल जिनगी जीबए लगी, यहए भेल गति-मुक्ति।”
~
चौकीदारी
तीन दिन झंझारपुर-मधुबनी दौड़-बरहा केला पछाति चौकीदार
रामटहल दास पछिला आठ मासक दरमहो आ आनो-आन भत्ता उठा सात बजे गामपर माने घर
पहुँचल। रस्तेसँ निआरि लेलक जे आरो जे हेतइ से पछाति हेतइ पहिने भरि पोख
सूतब। तीन दिनक दौड़-बरहा कोनो लज्जति देहक रहए देलक। ने नहाइक ठेकान आ ने
खाइक। ठाकुरो जीकेँ एक लोटा जल नै चढ़ा सकलौं। खैर जे हौ, जे पुत हरबाही गेल देव-पितर सभसँ गेल। मुदा ओछाइनपर पहुँचैसँ पहिने जे
काज अछि से तँ करए पड़त। मुँहक रोहानीसँ पत्नी परेखि नेने रहथि तँए पाँचटा
तरूआ-भुजुआक ओरियानमे जुटि गेली।
स्नान-धियान, तिलक-चानन, पूजा-पाठ कऽ रामटहल दास भोजन करए आँगन
पहुँचल। अँगनाक चुहचुही देखि मनमे खुशी भेलै। मुदा चुहचुहीक कारण नजरिपर पड़बे
ने कएल। पत्नीपर आँखि पड़िते आंकि लेल जे चुह-चुही आंगनक किरतबे नै आंगनवालीक
किरतबे भेल अछि। चिक्कनि माटिक ठाँओं, नमगर-चौड़गर
आसनपर बैसिते पाँचटा तरूआ, पाँचटा भुजुआक संग अचार-चटनी सजल
थारी आगूमे देखलक। देखिते पत्नीसं किछु पूछैक विचार रामटहल दासकेँ भेल मुदा
थारी राखि राम पिआरी सुतैक ओछाइन सरिऔनाइकेँ काजक एक नम्बर सूचीमे रखने,
तँए अखन गप केना करितथि।
सरकारीकरण नै भेला पूब चौकीदारी समाजक
दायित्व बूझल जाइत छल। टैक्सक रूपमे चौकीदारी छोट-पैघ किसानसँ लेल जाइत छल आ
पनरह रूपैआ मािसक वेतनक रूपमे देल जाइत छल। अन्हरिया सप्तमीसँ लऽ कऽ इजोरिया
षष्टी धरि -पनरह दिन- गामक पहरा चौकीदार करैत छल। गाममे दूटा चौकीदार तँए एककेँ
हाथमे फरसा आ दोसरकेँ हाथमे भाला रहैत छल। घरसँ निकलिते चौकीदार जोरसँ टाँहि दैत
छल जइसँ गामोक लोक बूझि जाइत छल जे पहरूदार पहरा दइले निकलि रहल अछि। निन्न
टुटिते बीड़ी-तमाकुलक संग कतौ माल-जालक तकतान तँ कतौ लघी-विरती शुरू भऽ जाइत छल।
टोले-टोले घूमि-घूमि चौकीदार ठहकवो करैत आ जगेबो करैत। जँ कतौ चोर अभड़ैत तँ संग
मिलि आगू-आगू दौगवो करैत। विल्कुल पारदर्शी कारोवार छल।
ओछाइनपर पति-रामटहल दासकेँ देखिते रामपियारीक
मन सिहरल। मन सिहरिते विचारक भाव बदलल। एक तँ कमासुत पति तोहूमे आठ मासक बकिऔताक
गरमी। बदलल मनमे उठलनि जानक जंजाल परिवार होइए। जानकेँ अकछ-अकछ केने रहैए। एक
बोल दुनू परानी गपो करब सेहो ने होइए। मन घुमलनि। तँए कि लोक मनो-मनोरथ छोड़ि
देत। सहटि कऽ पति लग आबि बजली-
“दरमाहा उठबैमे पाइयो-कौड़ी खरचा भेल?”
पत्नीक जिज्ञासा भरल शब्द सुनि रामटहल बाजल-
“जाबे बबाजी नै भेल छलौं ताबे आ अखनमे बड़ अन्तर भऽ गेल अछि।
सौंसे थानाक सेक्रेटरी छी। आन-आनकेँ तँ खरचा हेबे करै छै मुदा हमरा नै होइए।”
“कते भेटल?”
कते भेटल सुनि रामटहल दासकेँ, जहिना सीक परक मटकूर खसिते टुकड़ी-टुकड़ी भऽ छिड़िया जाइत तहिना भेल।
सुखक नीनकेँ छोड़ए नै चाहलनि। मुदा तैयो बजाइये गेलनि-
“भेटत कि अल्हुआ, धैन समाज अछि जे मुँहक
लाली अछि नै तँ अठ-अठ महीना पेट बान्हि के खटत। जेकरा ऊपर-झपटी छै, तेकरा ने हमरा कोन अछि।”
~
झगड़ाउ-झोटैला
भोरे अर्द्धांगिनिक रग्गड़सँ ठमकि लाल काका दरबज्जाक
बीचला खूँटामे ओंगठि कुही होइत मने-मन विचारैत जे औझुका िदन भंगठले अछि। जहिना
यात्रा काल भंगठल इंजनक कोनो भरोस नै तहिना पत्नीक खट-पटसँ लाल काकाक मनमे सेहो
होइत। औझुका दिन केहेन हएत केहेन नै तेकर कोनो ठेकान नै। अपनो किछु हुसलौं।
हुसलौं की! पावर चढ़ल छलए। ओह: भोरे लोक राम-नाम लैत उठैए आ कोन दुरमतिया
चढ़ि गेल से नै जानि। कोन एहेन पहाड़ टूटि खसल जाइ छलै जे भोरे अढ़ौती-अढ़ा
देलियनि। निअमानुसार अपन-अपन पुरौला पछातिये ने कियो दोसर दिस देखत। तइ बीच
हाथमे चाहक गिलास नेने मुसिकिआति पत्नीकेँ दू हाथ आगू अबैत देखलनि। जना कोनो
कोकनल खूँटाबला घर हड़हड़ा कऽ खसैत अछि तहिना लाल काका अकाससँ खसलाह। मुदा भिनसुरका
तामस सोलहो आना नै मेटाएल छलनि, तँए चाह लेल हाथ नै बढ़ौलनि।
ससुराएल लोक जकाँ लाल काकाकेँ देखि लाल काकीक मनमे उठलनि जे पुरुख छिया कि
पुरुखक झड़। हाथ पकड़ि कहबनि जे चाह लिअ। आगूमे ताड़क गाछ जकाँ ठाढ़ रहली।
जहिना नमहर गाछक ऊपरका डारि टूटि डारि-डारिपर
रूकि-रूकि कऽ निच्चा खसैत तहिना लाल कक्काक मन फेर खसलनि। थोड़े सबूर मनमे
सेहो भेलनि जे दुपहरिया खेनाइ नै गड़बड़ाइत। पाछू उनटि तकलनि तँ मन पड़लनि जे
एहेन-एहेन झगड़ा तँ बेसी काल होइए। मुदा खेनाइ-पीनाइमे कहाँ कहियो बाधा भेल। ओह
तामसमे बिसरि गेल छलौं। पत्नीक चौअनियाँ मुस्कीक जबाबमे लाल काका अठनियाँ ठाह
दैत, हाथक गिलास पकड़ैत बजलाह-
“मीठगर चाह अछि कि ने?”
लाल काकाकेँ मुँहमे गिलास लगबैसँ पहिने लालकाकी ठमकल रहली, मुदा मुँहसँ गिलास हटबिते, पुछलखिन-
“ठाेरमे ठोर सटैए किने?”
चाहक गरमी लाल काकाकेँ चढ़िते रहनि। अवसर केँ बिनु गमौने
बजलाह-
“दूधसँ नै चीनीसँ।”
~
घबाह ट्यूशन
घिड़नीक तिनकमिया बंशीक घबाएल माछ जकाँ, बुधियार काका बीस बर्खक नोकरीक पछाति घबाएल मने अपना दिस तकलनि। घबाएल
मन ऐ लेल जे प्रतियोगिता परीक्षामे बैइसै जोकर बेटा भऽ गेलनि। उचित तँ यएह ने
बनैत जे वयस देखि-देखि अपन विषयक बात बेटोसँ पूछि लेब। एकर मतलब ई नै जे
छौड़ाकेँ बापक पएरक जूतो आ अंगो अँटि जाइ छै।
जइ दिन नोकरी शुरू केलौं, तीन मन धान महीना गौआँ मिलि दैत छलाह। राजा-रजवारक गाम नै, जे स्कूल-अस्पताल खुजत। परिवारो तहिना छल, गौआँ
मुँह देखि कोनो धड़ानी गुजर करैत छलौं आ गामेक बच्चाकेँ पढ़ेबो करै छलौं। अपनो
बूझि पड़ै छल आ समाजो शिक्षक बुझैत छलाह।
अपने ऊपर दुरिमतिया चढ़ल कि समाजक ऊपर
चढ़ल आकि सरकारक ऊपर चढ़ल से बुझबे ने करै छी। जे विद्यालय या तँ व्यक्ति-विशेषक
वा सामाजिक स्तरपर चलैत छल ओकरा आगू केना बढ़ौल जाए। मूल प्रश्न छल। मुदा भेल की? खाली संस्कृते विद्यालयकेँ कहबै आकि मेडिकल, इंजीनियरिंग
आदि जेनरल विद्यालयकेँ, सभटा एक्के सिरहाने पेटकुनिया
लधने अछि।
प्रकाशकेँ सोर पाड़ि बुधियार काका
कहलखिन-
“बौआ, आब तोरा ले
दुनियाँक बहुत बाट खुजैक समए आबि गेलह मुदा समए एहेन बनि गेल अछि जे जते
सहयोगक जरूरत तोरा पड़तह, ओते नै दऽ सकबह। अपनो जुआन भेल जाइ
छह, अपनो तँ किछु सोचिते हेबह?”
पिताक विचार सुनि प्रकाश बाजल-
“बाबूजी, ट्यूशनक नव क्षेत्र तँ बनिते जा
रहल अछि, बूझल जेतै।”
प्रकाशक विचार सुनि, कनी काल गुम रहि बुधियार
काका बजलाह-
“बौआ, तीनटा विद्यार्थीकेँ ट्यूशन पढ़ा
अपनो शिक्षक बनलौं, मुदा आब लड़कीक शिक्षा बढ़लासँ ओहो
घबाह भेल जा रहल छै।”
~
दादी-माँ
सत्तरि बर्खक दादी-माँकेँ अखनो वहए चुहचुही गाममे बूझि
पड़ै छन्हि जे चुहचुही सासुरमे सभकेँ बूझि पड़ैत। जइ दिन रंगल वस्त्र, भरल पेट, काजर लगौल आँखिसँ गाम देखलनि ओ जीते-जी
केना बिसरि जेती।
ओना दादी-माँकेँ परिवारमे दू पीढ़ीसँ
मुखतियारी चलि अबैत मुदा पलखतिक दुआरे ऐ बातपर नजरिये ने कहियो गेलनि। कारणो
अछि जे दू तरहक जिनगी लोककेँ भेटै छै, एककेँ बनल-बनाएल दोसर
टुटल-फुटल। टुटल-फुटल घरकेँ दादी-माँ सभ दिन चिकने करैमे लागल रहली तँए सासुरक
सुख दिस धियाने ने गेलनि। एक तँ ओहुना जे कुरसीपर बैस जाइए ओ थोड़े बुझै छै जे
कुरसीक पुवरियो पार छै आ पछवरियो पार। तँए जिनगीकेँ तीनू पार देखैक लूरि हेबाक
चाही। मुदा से दादी-माँ केँ नै छन्हि परिवारक सभक धौजनि सुनैक अभ्यस्त छथि
तँए आश्वासन तँ सभकेँ दइते छथिन, मुदा जे पहिने बिसरै।
सत्तरि बर्खक अपनाकेँ नै बूझि दादी-माँकेँ छोड़ल केचुआ जकाँ लहलही छन्हिये।
तहूमे कोरा-काँखकेँ सभ दिन बच्चा सभकेँ लैत रहली तँए किअए नै रहतनि।
छह बर्ख पहिने परिवारमे एकटा गाए एलनि।
जहिना मनुष्यसँ लऽ कऽ बाध-बोन धरि लक्ष्मी छिड़िआएल छथि तहिना दादी-माँ
गाएकेँ बूझि सेवा करए लगलीह। थैर-गोबर अपन काजक सूचीमे लऽ लेलनि। छबे बर्खक
दौड़मे आइ दसटा गाए खुट्टापर छन्हि। पहिने एकटाकेँ थैर-गोबर करैक अभ्यास छलनि
अखन दस टाक भऽ गेल छन्हि, किअए मनक चुहचुही कमतनि।
अोना अखन धरि सभ तूर परिवारक काजमे सटि
चलै छन्हि मुदा दुनू पुतोहुओ आ भाइयोमे खट-पट हुअए लगलनि से भनक छन्हि मुदा
जेकरा जे मनमे हेतै से तेहेन पाऔत, तँए धनि-सन। दुनू बेटो
आ पुतोहुक बीच उठैत विवादक कारण पिता-शिवशंकर नीक जकाँ बुझैत। जइठाम लाखक विधायक,
सांसद, बेपारी, ठीकेदार
करोड़ कूदि अरबमे टहलि रहल अछि तइठाम मनक उछाल स्वाभाविके छै। तँए गुम्म।
जहिना दृष्टिकूट विश्राम बेर होएत
तहिना दादी-माँकेँ बूझि पड़लनि। पति-शिवशंकर सोझसँ गुजरिते रहथि कि दुनू
बेटा, ताल ठौकैत पहुँचल। अधरस्तेपर दादी-माँ अँटकि गेलीह। शिवशंकर
पुछलखिन-
“तोरा दुनू भाँइक बीच एना किअए होइ छह?”
पिताक प्रश्नसँ दुनू भाँइ प्रकाशो आ जोगियो एक दोसरपर दोख
मढ़ए लगल। तही बीच आंगनमे सेहो दुनू पुतोहु डंका पीटए लगली। शिवशंकर बूझि गेलाह।
जे अंगने आगि असमसान तक जाइ छै। भार हटबैत शिवशंकर दुनू भाँइकेँ कहलखिन-
“माएसँ पूछि लहक?”
अपना-अपनीकेँ प्रकाशो आ जोगियो दुनू भाँइ बाँहि पसारैत
दादी-माँकेँ पुछलक-
“माए, तूँ केनए?”
गरमाएल साँस छोड़ैत दादी-माँ बाजल-
“केम्हरो ने। अपने दिस।”
शिवशंकरो आ दादियो-माँ, दुनू बेकती विचारए
लगलथि जे समए एहेन दुरकाल बनि रहल अछि जे रातिक कोन बात जे दिनोकेँ सुरक्षित
रहब कठिन भऽ गेल अछि, तइठाम घरेमे कुकुड़-कटौज करत तँ जानत
अपने। आब कि जीबैक कोनो लीलसा अछि, कमाइ छी खाइ छी।
~
पटोटन
अद्राक पहिल बरखा। मास्टर सहाएब आ बड़ाबाबू, दुनू गोटे एक्के मोटर साइकिलसँ गामसँ झंझारपुर जाइत रहथि। साते किलोमीटर
झंझारपुर तँए दुनू गोटे गामेसँ जाइ अबै छथि। थानाक बड़ाबाबू नै कोर्टक बड़ाबाबू
देवनन्दन आ हाइस्कूलक शिक्षक प्रेमनन्दन। ओना दुनू गोटे शहरूआसँ बेसी गमैइये
छथि मुदा तैयो कलप कएल कपड़ा पहीरि कऽ ऐबे-जेबे करै छथि।
पँचकोशीमे सिंहेश्वरक नाओं एकटा नीक
घरहटियाक रूपमे लोक जनैत। ओना नाउऍं तँ नाआें छी, तइमे तँ कमी नै
भेलनि अछि मुदा परदेशियाक कमाइ आ इन्दिरा आवासक चलैत काजमे कमी तँ भइये गेलनि
अछि। उमेर बेसी भेने मनमे खुशिये होइत रहै छन्हि जे भने काज कमि रहल अछि। एक
तँ परदेश भगने नव घरहटिया नै बनि रहल अछि, दोसर हमहीं सभ
जे पुरना पाँच गोटे छी सएह कते सम्हारब।
ब्रह्मपुर गाममे प्रवेश करिते बुन्दाबुन्दी
पानि शुरू भेल। बड़ाबाबू ड्राइवरी करैत आ मास्टर सहाएब पाछूमे बैसल। बुन तँ
गोटगर पड़ैत रहै मुदा कम-सम। बीत-डेढ़ बीतक दूरीपर बुन खसै तँए कपड़ा सोखनहि चलि
जाइत मुदा जते आगू बढ़ैत छलाह तते पानियो बेशिआएल जाइत। बढ़ैत-बढ़ैत सिंहेश्वर
घर लग अबिते अँटकि जाएब नीक बुझलनि। सड़केपर गाड़ी लगा दुनू गाेटे सिहेश्वरक
दरबज्जा दिस बढ़लाह। दरबज्जा कि मालक घर। अाधा घरमे माल बन्हैत आधामे दरबज्जा
बनौने। दरबज्जा कि एकटा चौकी मात्र। सिंहेश्वर अपने दरबज्जेपर। चारसँ चुबैत
बुन्नकेँ निहारि-निहारि देखैत जे रौदमे फाटि गेल अछि आ कि कौआ खोदने अछि।
मुदा लगले मन पड़ि गेलनि आद्रा आबि गेल, घर कहाँ छाड़लौं। तखने
दुनू गोटे पहुँचलाह। चौकीपर सँ उठि सिंहेश्वर दुनू गोटेकेँ बाँहि पकड़ि चौकीपर
बैसबैत अपनो बैसला। तड़तड़ौआ बरखा शुरू भेल। कलप कएल शर्टपर खढ़क चुबाटसँ दाग जकाँ
हुअए लगलनि। एक तँ बेचारेकेँ अपने मनमे दुख होइत हेतनि जे केना साल खेपब तइपरसँ
हमहूँ भारी बना दियनि ओ उचित नै। दागे लगत तँ कि हेतै, कोनो
कि केरा-दारीमक दाग छी जे नै छूटत। मुदा बड़ाबाबूकेँ मुँहसँ बजा गेलनि-
“अहाँक नाओं पँचकोसीमे अछि सिंहेश्वर
भाय, मुदा अपना घरक हालत एहेन बनौने छी?”
बड़ाबाबूक विचारसँ सहमत होइत सिंहेश्वर बाजल-
“बड़ाबाबू, गामसँ लोककेँ भगने गाममे काज
बढ़ि गेल अछि, मुदा काजक धुनि तेहेन पकड़ि लेलक जे
ठेकाने ने रहल जे बरखा मास आबि गेल। आब पानि छुटैए तँ नै छाड़ल हएत तँ पटोटनो तँ
दइये देबइ।”
~
मुसाइ पंडित
गाममे विख्यात मुसाइ पंडित छथि। ओहन पंडित जिनकर बात
मुसाइये पंडितक नाओंसँ विख्यात अछि।
मध्यम् जातिक मुसाइ पंडित, माएक कोरपच्छु बेटा भेने, दौजी फड़ जकाँ तीन सालमे
माए आ सात सालमे पिताक श्राद्ध केलनि। मुदा बाल-विवाहक शुभ फल भेटि गेल रहनि।
पिताक श्राद्धसँ तीन मास पहिने बिआह भऽ गेलनि। जँ कहीं तीन मास पछुऐतथि तँ सिमरिया
गाड़ी जकाँ मास नै कऽ पबितथि, मुदा भाग्य तँ भाग्य छी,
से मुसाइ पंडितकेँ सुतरलनि। जेकरा माए-बाप रहै छै तेकरा तँ
पोथी-पतरा काज दइते छैक जे बिनु-माइयो-बापबलाकेँ सुतरल। मुसाइ पंडित पिताक
श्राद्धक तीन दिन पछाति ससुरकेँ अरिआतए काल पुछलनि-
“बाबू, आब तँ यएह
सभ ने माता-पिता भेला, हमरा कि हएत?
भाय-भौजाइक हालत अपनो गाममे देखिते हेथिन।”
जमाइक प्रश्न सुनि कमलाकान्त गुम्म भऽ गेलाह। मने-मन विचारए
लगलाह जे बेटी-जमाइक भार उठाएब भारी होइ छै। फेर मन घुमलनि जे भगिनमान तँ
कुलश्रेष्ठ होइए। मुदा लगले मन बदलि गेेलनि घी-जमाए भगिना। जहिना घरमे सिदहा
नै रहने भूखक लहरि जोर मारैत छै तहिना आगूक जिनगी मुसाइकेँ जोर मारलक। दोहरबैत
बाजल-
“बाबू, किछु बजलखिन नै?”
कमलाकान्तक मन फेर बहटलनि। पत्नीसँ पूछि लेब जरूरी अछि,
मुदा से खोलि कऽ केना समधियौरमे जमाए लग बाजब। बेटोकेँ तँ पूछि लेब अछि। मुदा
पुतोहु बेरमे पुछबे ने केलौं आ बेटी-जमाए बेरमे किअए पुछबै। मन बनिते बजलाह-
“दुनू भाय-भौजाइकेँ बजबिऔ। आखिर माता-पिताक परोछ भेने तँ वएह
सब ने माता-पिता भेलाह।”
मुसाइ दुनू भाँइकेँ पुछलनि। एक तँ ओहुना लोकक घराड़ी घटल
जाइ छै तइपर जँ बढ़ि जाए, ई के नै चाहत। दुनू भाँइयो आ भौजाइओ
मुसाइकेँ सासुर जाइक आदेश दऽ देलक। गाए-नेरूक मिलान तँ ठेहुने-पानि दुहान।
कमलाकान्त संगे चलए कहि पुछलखिन-
“कपड़ो-लत्ता लेब।”
मुसाइ-
“हँ, हँ, जते सरधुआ
कपड़ा अछि ओ जँ नै लऽ लेब तँ ऐठाम मूसे-दिवार खा जाएत।”
एक तँ ओहिना मुसाइ सहलोल, तइपर सासुरक विद्यालय
पहुँचि गेल। सासुमे जँ सारि-सरहोजिसँ गलथोथरिमे हािर जाएब तँ कोन डोराडोरिबला
भेलौं। जहिना विषुवत रेखाक समान दूरीपर दुनूमे दिशा समान मौसम होइत तहिना अन्हार-इजोतक
बीच सेहो होइत अछि।
पच्चीस बर्खक अवस्थामे मुसाइ सासुरसँ
मुसाइ पंडित भऽ दूटा धिया-पुता नेने गाम आबि गेलाह। जहिना फुटलो खपटाक जरूरति
समए पाबि होइ छै तहिना मुसाइ पंडितक जरूरति गाममे आइ भेल।
मौसमी बेमारीक जानकारी दिअ गाममे
बहरबैया सभ औताह। जखने सँ मुसाइ पंडित सुनलनि तखनेसँ मटिया तेल देलहा कुत्ता
जकाँ मनमे उड़ी-बीड़ी लगि गेलनि।
जहिना समए िनर्धारित छल तहिना
कार्यक्रम शुरू भेल। अभ्यागती सुआगत सभकेँ भेलनि। बारहो मासक मौसमी बेमारी आ
ओइसँ पथ-परहेजक नीक जानकारी देलखिन। गाममे नव फल भेटल। बीचमे बैसल मुसाइ पंडित
सुनैपर कम धियान देने रहथि। संगसोरमे जहिना लोक हरेलहो जगहपर गपे-गपमे पहुँचि
जाइत अछि तहिना मुसाइ पंडित सेहो पहुँचि गेलाह। हड़लनि ने फुड़लनि उठि कऽ
बीचमे ठाढ़ भऽ गेला। ठाढ़ होइते बैसिनिहारक आँखि पड़ै लगलनि। दुनू हाथसँ शान्ति
बना रखैक इशारा दैत बजलाह-
“अभ्यागत लोकनिक विचार उत्तम अछि, सभकेँ अनुकरण करैक चाहियनि।”
अपन समर्थन पाबि बाहरी लोकनि आरो अगिला
बात सुनैले जिज्ञासा जगौलनि। मुदा जे पहिने बाजत ओ चोर गाम-घरक खेलक मंत्र छै।
तँए आँखि, कान तँ मुसाइ पंडित दिस सभ देलनि मुदा मुँह घुमौनहि रहला।
मुसाइ पंडित लेल धनि सन। कहिया लोक हमर बात सुनलक आ देखलक। सुनह नै सुनह,
मनक उदगार छी, बजबे करब। मुदा सइयो आँखि भीष्म–पितामह जकाँ गड़ल देखि सम्हरैत मुसाइ पंडित बजलाह-
“आम-जामुन इलाकाक हाड़-पाँजर टुटब,
किसानी काजमे साँप-कीड़ा काटब, हाड़मे पैसल
जाड़केँ सेहो तँ देखए पड़त, ईहो तँ मौसमिये बेमारी भेल किने?”
गौंआँ वक्ता बूझि जोरसँ सभ थोपड़ी बजौलक मुदा थोपड़ी सुनि
मुसाइ पंडित अकवकमे पड़ि गेलाह जे लोकक थोपड़ीक अवाज की छै। हास हँसी आकि हँसी
हास।
~
भरमे-सरम
बच्चामे बाबू कतबो पढ़बैक परयास केलनि
मुदा हम नहिये पढ़लयनि। अपनेसँ जे कनैठी दऽ नाम-गाम सिखा देलनि ओ अखनो कानेपर
रखने छी।
पचासम बर्ख चलि रहल अछि। परुसाल शिक्षामित्रक
उजैहिया उठलै। चौक-चौराहा, हाट-बजार, गल्ली-कुच्ची सगतरि एक्के हवा बहए लगलै। जहिना हवा पीब अधमरुओ साँप
फनफना उठैत तहिना मनमे उठल। उठिते गर अँटबए लगलौं। एहेन बहैत गंगामे स्नान नै कऽ
लेब तँ सभ दिन पापिये रहि जाएब। दरबज्जापर बैसल विचारिते रही आकि सुन्दर
भायकेँ धड़फड़ाएल अबैत देखलियनि। हुनका देखिते अपन चिंता पड़ा गेल। दया उमड़ि
गेल। बेचारे एक्को कौड़ीक आदमी नै रहलाह। आचार्यक उपाधि लैयो कऽ गोबर-माटि भेल
पड़ल छथि। नोकरी नै भेलनि। लग अबिते पुछलयनि-
“भाय, केम्हर-केम्हर?”
चौवनिया मुस्की दैत बजलाह-
“बेतरनी पार होइक लग्न आबि रहल अछि। डारि चुकल बानरक जे गति
होइ छै वएह गति अवसर चुकल मनुखोकेँ होइ छै। तँए गंगामे हाथ धोइ लिअ।”
धारक मोइन जकाँ विचार चकभौर लेलक। पुछलियनि-
“से की?”
कहलनि- “अगिला साल तत्ते शिक्षा मित्रक
बहाली हएत जे एक्कोटा पढ़ल-लिखल नै बॅचत।”
असमंजसमे कहलियनि-
“भाय, हमरा तँ नामे-गामटा लिखल होइए।”
ठाहाका मारि कहलनि-
“डेर-दू हजार खर्च करू तेहेन सर्टिफिकेट आनि कऽ देब जे पहिलुके
बहालीमे भऽ जाएत।”
रूपैआ दऽ देलियनि साटिफिकेट सेहो देलनि। भैकेन्सी भेल।
बेटो बी.ए.पास केने अछि। दुनू बापुत गामेक स्कूलमे दरखास
दइक विचार केलौं। कागजक जखन मिलानी केलौं तँ बेटाक उमेरसँ दू बरख कम अपन उमेर!
मुदा एहेन अजोध बात बजबो कतए करब। भरमे-सरम चुप्पे रहि गेलौं।
~
देखल दिन
मृत्युसँ छह मास पूर्व मुनेसर काकाकेँ बेटा लग मन उबिएलनि
तँ असगरे दिल्लीसँ गाम विदा भेलाह। परिवारसँ समाज धरि सभकेँ अचरज लगलनि जे
मनमे कि चढ़ि गेलनि जे असगरे एते साहस केलनि। असगरे विदा होइक कारण भेलनि जे
बेटाकेँ पाँच दिन समए नै, एक तँ ओहुना बैंकमे कम छुट्टी होइ छै तइपर
अपनो कारोवार ठाढ़ केने छथि। पुतोहु सहजे पुतोहुए छन्हि,
भरि दिन एयर-कंडीशनमे बैस देश-विदेशक खेल देखब आ साज-श्रृंगार छोड़ि दुनियाँमे
किछु देखबे ने करै छथि। मुदा मुनेसर काकाक सहासक कारण ईहो भेलनि जे एकेटा गाड़ी
िदल्लीसँ सकरी पहुँचा देतनि। सकरी तँ ओहुना घरे-अंगना भेलनि।
गाम अबिते मुनेसर काका देखलनि जे
घर-अंगना तँ खंडहर भऽ गेल, कतए रहब। अंडी-बगहंडी, भाँग-धथुरसँ भरल अछि। जखने बोनाह भेल तखने साँप-छुछुनरिक संग बिढ़नी-पचैहिया
हेबे करत। बाप-पुरुखाक डीहक दशा देखि दुख भेलनि जे जखन घरे नै तखन मनुख केना
रहत। जखन मनुक्खे नै रहत तँ बाप-पुरुखाकेँ के चिन्हत। मने-मन विचार ऊपर-निच्चा
होइते रहनि कि एक गोटेकेँ रस्ता धेने जाइत देखलनि। ओना दस साल पहिने देखनहि
रहथि मुदा मनुष्योक बुनाबटि तँ अजीव अछि। जहिना बीस बर्खक अवस्था धरि बाढ़िक
आगमन रहैत अछि तहिना साठि बर्खक पछाति रौदियाहक।
दुनू सएह तँए पुछैक जरूरत दुनूकेँ भेलनि।
कमलेशकेँ ऐ लेल पुछैक जरूरत भेलै जे आन-गामक जँ रहितथि तँ रस्ते-रस्ते एला, चलि जइतथि। ठाढ़ भऽ निहारि किअए रहला अछि। जखन कि मुनेसर काकाकेँ
जरूरी भेलनि जे जखन पुस्तैनी गाम एलौं, परिवार चलि गेल
तँ चलि गेल, समाजो अछि कि ओहो मेटा गेल। मोवाइल जकाँ नै
भेल जे अगुआ कऽ किअए फोन करब। पाइ खरचा होइ छै कि नै। ओइ सम्प्रदाय सदृश अछि
कि ने जे अगुआ कऽ जेकर नजरि पड़त ओ पहिने अभिवादन करत। मुदा भेल दोसरे,
जहिना पनचैतीमे एक संग अनेको बजनिहार बाजए लगैत वा मोवाइलेपर दुनू
दिससँ दुनू परानी बाजए लगैत, तहिना मुनेसरो काका आ कमलेशो
एके बेर दुनू दिससँ बाजल। आग्रह करैत कमलेश अपना ऐठाम तीन दिनक अभ्यागतीमे लऽ
गेलनि।
गाम-समाजक कुशल-समाचारक संग मुनेसर काकाक
मनक जड़िमे अपन परिवार नचए लगलनि। कोन धरानी बाबू, एकटा साधारण पोस्ट मास्टर रहि तीस बीघा खेत बनौलनि। दस गाम बीच एकटा
पोस्ट आफिस मनिआडरक रूपैआ अगुआ-पछुआ, संग-संग जिनकर
रूपैआ दिअ जाथि दू-चारि आना ओहो देबे करनि। आमदनी बढ़ने मुनेसरोकेँ पढ़ा-लिखा
हाकिम बनौलनि। तेसर पीढ़ी चलि रहल छन्हि। डंडी तराजू जकाँ परिवारकेँ तौल
रहला अछि जे एक पीढ़ी (पिता) समाजमे की सभ केलनि। बीचक की भेल आ आइ उजड़ि-उपटि
गेल। जहिना चढ़ैत जुआनी जिनगी बौरा जाइ छै तहिना ने
अबैत मृत्युकेँ रोग-सोग सेहो भेटए लगै छै।
कमलेशक घर देखि मुनेसर काका चीन्ह
गेलखिन जे ई तँ संगीऐक घर छी। पुछलखिन-
“बाउ, परिवारमे
के सभ छथि?”
कमलेश बाजल-
“तीन पीढ़ीक सभ छथि।”
मुनेसर काकाकेँ आगू बकार नै फुटलनि। जहिना तकितो आँखिमे
ज्योति नै रहै छै तहिना भेलनि।
~
फज्झति
सोनेलाल आ जीयालालक बीच करीब बीस बर्खसँ चिन्हा-परिचए
छन्हि। ओना दू गामक, मुदा सटल गाम रहने खेतो एकबधू आ
हाटो-बजारमे भेँट-घाँट होइते रहै छन्हि। कहैले दुनूक बीच अपेछो छन्हि, एकबधू खेत रहने अड़ियो छथि मुदा दुनू गामक विपरीत सामाजिक चालि-ढालि
रहने बात-विचारमे अन्तरो छन्हियेँ।
कामेकेँ धाम आ कर्मेकेँ धर्मक विचार
रहने जीयालाल कम आँट-पेटक सम्पति रहनौं ने कहियो बेकारी महसूस करै छथि आ ने
गुजर-बसर करैमे परेशानी होइ छन्हि। जहिना मौसमी फल बरहमसियो होइत अछि तहिना
मौसमी खेतीकेँ बरहमसिया दिस ससारैमे दिन-राित लगल रहै छथि। जखन कि सोनेलाल
सोलहन्नी मौसमी किसान छथि।
अन्नक खेती संग जीयालाल फलो-फलहरी आ
तरकारियो-फड़कारिक खेती करै छथि। खेतक हिसावसँ अपने भरि खेती करै छथि मुदा
मेहनति बेशिया दैत छन्हि जइसँ अधा-छिधा विकरीयो-बट्टा भइये जाइत छन्हि।
जइसँ आनो-आनो काज चलिते रहै छन्हि। फलक खेती केने लताम, नेबो, धात्री, अनारसक गाछ
नर्सरी जकाँ रहिते रहै छन्हि। मुदा जहिना धर्मक जड़ि दया छी तहिना खेतीक
जड़ि बीज (बीआ) सेहो छी, तँए फलक कोनो गाछ बेचै नै छथि।
ओहिना (मंगनिये) दोसरकेँ दैत छथि।
नेबोक एकटा गाछ साेनेलाल जीयालालसँ
मंगलनि। रस्ते-पेरेक गप छल। जीयालाल कहि कहलखिन-
“जखन आएब भऽ जाएत।”
साल बीत गेल। ओना दुनू गोटेक बीच भेँट-घाँट होइते छन्हि
मुदा गाछक कोनो चर्च नै।
दोसर साल दुनू गोटेकेँ नवानी दुर्गा-पूजा
मेलामे भेँट भेलनि। चाहे दोकानपर बैस दुनू गोटेक बीच दुनियाँ-दारीक संग अपनो
खेती-पथारीक गप चललनि। जेना हराएल वस्तु भेटने देहमे पानि जगै छै तहिना
सोनेलालकेँ जगलनि। दोकानपर चारि-पाँच गामक चारि-पाँच गोटे बैसल। सोनेलाल जीयालालकेँ
कहलखिन-
“हमर बाकिये अछि?”
बाकी सुनि जीयालालोकेँ धक् दऽ नेबो गाछ मन पड़लनि।
सुहकारैत कहलखिन-
“हँ, हँ, से तँ अछिये।
भऽ जाएत।”
तेसर साल विजलीपुरक समैध ऐठाम सोनेलाल दरबज्जापर बैसल
रहथि तखने मधेपुरसँ अबैत जीयालालपर नजरि पड़िते सोर पाड़लखिन। समाजो आ परिवारोक
पान-सात गोटे बैसल रहथि। सोनेलालक अवाज सुनि जीयालाल सड़कसँ पछिम मुँहेँ साइकिलो
घुमौलनि आ विचारियो लेलनि जे फज्झति करबनि। तइसँ पहिने मनमे उठि गेल रहनि
जे जखन दुइये गोटेक बीचक काज छी तखन दुनियाँकेँ जनबैक कोना जरूरत। जरूर किछु बात
छै, तँए फज्झतिसँ जड़ि पकड़त। दलानक दावामे जीयालाल साइकिल
लगबिते रहथि आकि सोनेलाल महाजनीक स्वरमे बजलाह-
“हमर बािकये अछि!”
सोनेलालक स्वरो आ जगहो देखि जीयालालक देह अगिया गेलनि।
एक तँ ओहुना पुरुखक आदति रहल अछि जे घरोवाली लग आ सासुरो-समधिऔरोमे अलंकारिक
भाषाक प्रयोग करैत अछि। नजरि तेज करैत जीयालाल, लूरिगर सिपाही जकाँ जे दुश्मनेक हाथक हथियार छीनि प्रहार करैए तहिना
समाजकेँु अगुअबैत बजलाह-
“अहूँ सभ अपन समधिक हाल सुनू। बेटा-पुतोहु, बेटी-जमाएबला भऽ गेलाह, मुदा अखन धरि एकटा नेबोओक
गाछ नै छन्हि।”
~
काँच सूत
साठि बर्खक संगी पैंसठिम बर्खमे रहने तँ मोहनकेँ किछु नै
बूझि पड़लनि मुदा सोहनकेँ मन कहलकनि जे भरिसक दुनू गोटेक बीचक सम्बन्ध काँच
सूतमे बन्हल छल।
दुनू गोटेक, मोहनो आ सोहनोक-घर बीघा दुइयेक हटल। ओना दुनू दू जातिक, मुदा दू जातिक बीच जते दूरी बनल अछि तते नै छन्हि। कारण जे एकठाम रहने
बहुत बेमारी लगियो जाइ छै आ छुटयो जाइ छै। तहिना दुनू गोटेक बीच रहने छन्हि।
दुनू लंगोटिया संगी। ओना किछुए मासक कमी-बेशी दुनूक बीच छन्हि, मुदा पाँच बर्ख धरि तँ बच्चाकेँ घरे-अंगना चिन्हेमे लगि जाइ छै।
गामक कतिका माने जाड़क मासक अखड़ाहासँ
लऽ कऽ कवड्डी, गुड़ी-गुड़ीक मैदान होइत विद्यालय धरिक संगी दुनू गोटे। ओना
गामक विद्यालयक पछाति दुनू गोटे दू विद्यालयमे पढ़लनि,
मुदा ग्रेजुएशन एके साल दुनू केलनि। साइंसक विद्यार्थी रहने मोहन काँलेजमे डिमाॅसटेटर
बनलाह। आ सोहन एम.ए.मे नाअों लिखौलनि। पछाति एम.ए.सी. केलोपरान्त मोहन लेक्चरर
बनि तीन साल पहिने सेवा-निवृति भेलाह।
एक तँ जिनगी भरिक संगी, दोसर समाजक पढ़ल-लिखल तँए बैसार-उसार एकठाम अधिक काल होइत। रौदियाह समए
भेने पहिल शिकार खेतसँ जुड़ल लोक हेताह, तँए अखन
चौक-चौराहाक मुख्य विषय रौदी बनल अछि।
छह बजे साँझ। टहलि-बुलि कऽ दुनू गोटे अाबि चौकपर बैसलाह।
लाटमे पान-सात गोटे सेहो बैसलाह। धानक जरैत खेती देखि सोहन दालिक खेतीक चर्च
उठबैत कहलखिन-
“अस्सीक दशकसँ पहिने दालि सस्त छल आ अखन वएह महग भऽ गेल अछि।
पानि नै भेने अखन उपायो तँ दोसर नहिये अछि। सरकारी जे अछि से कागजेमे अछि।”
जना सोहनक बात मोहनकेँ लागि गेलनि। प्रतिवाद करैत बजलाह-
“हमरा उमेरसँ बेसी तोरो उमेर नहिये हेतह, जहियासँ देखै छिऐ दालिये महग अछि।”
विचारमे लोच दैत सोहन बजलाह-
“अपना ऐठाम कहबी छै जे ‘नीच काज कऽ ली
मुदा राहरिक बोनि नै ली।’ कोनो कहबी ओहिना नै होइ छै।”
जना कते घैल घी मोहनक सोहन हरा देने होन्हि तहिना आगि-बबूला
भऽ उठि विदा होइत बजलाह-
“केकरो कहने किछु भऽ जाइ छै।”
सोहन गुमे रहलाह। किछु कालक पछाति सोहनक मनमे उठलनि कि
फूिस बाजल छलौं तखन लगलनि किअए। नजरि पाछू दिस बढ़लनि। जहिना पहिया कऽ
गाड़ीक पहिया चलैत अछि तहिना पहिया कऽ देखलापर देखलनि जे जे जिनगी छलाॅगसँ
उठै छै ओ ओहिना निच्चो होइ छै, मुदा धड़िआ कऽ जे जिनगी उठै छै ओ
धड़िआइते रहै छै, चाहे जेम्हर जाउ। आइ बुझै छी जे दूनू गोटे
काँच सूतमे बन्हल छलौं जे अबैत-अबैत आइ टूटि गेल। संगी रहने लोक हराइए, भसिआइए। मुदा असगर चलनिहार कतए हराएत। पत्ता पकड़ि विच्ची पकड़ैक
लूरि चाही।
~
बुधि-बधिया
रामकिसुन आ देवनारायण लंगौटिया संगी। एकठाम बैस
खेती-पथारीसँ लऽ कऽ कुटुम-परिवार सहितक गप-सप दुनू करैत। रामकिसुनक बेटा
दरभंगासँ धड़फड़ाएल आबि कहलकनि-
“बाबू, रूपैआक ओरियान कऽ दिअ। काल्हिये
भरि फार्म भरैक समए छै।”
अपना हाथमे रामकिसुनकेँ पनरहे सए रूपैआ, पाँच सए ओरियान करब छलनि। जइठाम लोक बेसी गप-सप करैए तइठाम घरक नोनो-तेल
आ खेतक खरीदो-विक्रीक गप सेहो करिते अछि। मनमे भेलनि जे पेंइचेक-गप अछि तँ
अनका किअए कहबनि। पहिने दोसेकेँ कहै छियनि जँ नइ हएत तखन बूझल जेतैक। कोनो कि
पेंच-उघारक अकाल पड़ि गेल अछि जे नै भेटत। यएह तँ गुण अछि जे जते खगल दुबराइए,
महाजन ओते मोटाइए।
देवनारायणकेँ रामकिसुन कहलखिन-
“दोस, पान सए रूपैआक बेगरता भऽ गेल अछि, सम्हारि दिअ।”
देवनारायणक हाथमे रूपैआ रहबे करनि,
मुदा दोससँ सूदि केना लितथि। महाजनी सूदिक गुण तँ बूझल छलनि। कनी-मनी
झूठ-फूसि धन-सम्पतिक लेन-देनमे चलिते अछि। सुहरदे मुँहेँ उत्तर देलखिन-
“दोस, जखन अपना बूझि एलौं तँ घुमाएब उचिन
नै हएत। मुदा इमानदारीसँ कहै छी अपना हाथमे एको पाइ नै अछि।”
रामकिसुन- “तब तँ काजमे बाधा हएत?”
देवनारायण- “से नै हुअए देब?”
रामकिसुन- “कहै छी हाथ खालिये अछि
तखन विथूत केना नै हएत?”
देवनारायण- “अपन ने खाली अछि, हुनकर (पत्नीक) हाथमे छन्हि। मुदा....?”
रामकिसुन- “मुदा की?”
देवनारायण- “आना दर सूदि तँ महाजनीमे
चलै छै मुदा स्त्रीगणकेँ तँ माइक देलहा कोसलिया रहै छै किने, तँए दू-आना दर सूदि लागत।”
सूदि सुनि रामकिसुन गुम भऽ गेलाह।
मनमे उठलनि जे सोझ हाथे नाक नै छुब, घुमा कऽ छुअब भेल। जते
घुमाओन बाट रहै छै तते ने लोको हराइए। मुदा काज खगौने तँ जिनगी खसै छै। यएह ने
परीक्षाक घड़ी छी।
~
पहाड़क बेथा
साओनक फुहार पड़िते जहिना नरम-गरम बीच गप-सप्प शुरू होइत
तहिना धारा संग निकलैत पहाड़ समुद्र दिस बढ़ल तँ कबई माछ जकाँ समुद्रो िसरा
ससरि पहाड़ दिस बढ़ल। अकासक बुन पबिते पानि रंग जकाँ छुहुटि धड़ैत तहिना
दुनूक बीच भेल। पनचैतीक ओइ पंच जकाँ जे अपन बेथा कहए जाइत आ अनके तते बेथा रहैत जे
अपन तर पड़ि जाइत तहिना समुद्रोकेँ भेल। ओना अपन-अपन बेथा दुनूकेँ रहए मुदा सिर
चढ़ल पहाड़ रहने समुद्र चुपे रहल। मनमे संतोष भेलै जे जिनगिये केहेन छन्हि तँए
बेथे कते हेतनि। कनी पछुए अपन बेथा राखब। खिलैत कोढ़ी जकाँ, जे फूल बनत कि फल, विहुँसैत समुद्र पुछलक-
“भाय, बड़ तबधल देखै छी, पियास लगल अछि की?”
जहिना पियासल बटोहीकेँ कोनो दरबज्जापर पानिक लोटा सोझ
अबिते आत्माक तरास लपकि कऽ पकड़ि लैत तहिना पहाड़ व्यथित भऽ बाजल-
“देखू जे सात बीतक केहेन अछि, जे एक तँ
अधासँ बेसी फटले छै तइपर केहेन ठट्ठा केलक हेन?”
बेथामे नहाएल पहाड़केँ देखि समुद्र पुचकारि कऽ पुछलक-
“भैया, अहूँ जँ बेथा जेबै तँ हमरा सबहक की
गति हेतै। अहींक आशामे ने हमहूँ जीबै छी।”
रसाएल समुद्र देखि छुब्द होइत पहाड़ बाजल-
“कहू जे एहनो ठट्ठा हेाइ छै जे टिकमे बान्हि देने अछि, खुनलौं पहाड़ निकलल चुहिया। यएह निसाफ होइ जे मेडिकलक किताब पढ़निहारकेँ
जँ कियो कहै जे अहाँकेँ सरदियो छोड़बैक लूरि नै अछि, ई
केहेन हएत।”
~
उमकी
भोलन बाबा गंगा नहाइले िनरधनमाक संग गेलाह। गंगामे दुनू
गोटे संगे पैसलाह। ऐ आशासँ जे जँ बूढ़ (भोलन बाबा) भँसियेता तँ पोता निरधनमा
पकड़तनि आ जँ बाल-बोध निरधनमा भँसिआएत तँ भोलन बाबा पकड़तनि। जाधरि दुनू गोटे
पकड़ा-पकड़ी नै करतथि ताधरि एक कालखंड भरि संगे केना रहि पबितथि।
गंगामे पैसि निरधनमा पुछलकनि-
“एँ हौ बाबा, सभ चीजक गाछमे देखै छिऐ
सभटा एक-रंग रहल आ गोटे-गोटे भुलकि जाइए?”
निरधनमाक प्रश्नसँ बाबाकेँ दुख नै भेलनि जे हमरे ठीकिया
कऽ ने तँ पुछलक। मुदा हमरा ठीकिया कऽ बाल-बोध किअए पूछत। जहिना जेठुआ पानि
पीविते धरती पुरना खढ़केँ गलेबो करैत अछि आ नवकाकेँ जनमेबो करैत अछि। तहिना तँ
अखन निरधनमो अछि। ताधरि दुनू गोटे छाती भरि पानिमे पहुँचि गेलाह। छाती भरि
पानिमे पहुँचिते जना सर्द माथ धरि पहुँचि गेलनि। सर्द पहुँचिते निरधनमा
दोहरा कऽ पुछलकनि-
“बाबा, जखन छाती भरि पानिमे आबिये
गेलौं तँ अहीले ने लोक एते हरान रहैए, आब घूमि कऽ कथीले
जाएब, से नइ तँ.....?”
िनरधनमाक प्रश्न सुनि भोलन बाबा हरा गेलाह। पानिमे जना
डूमि गेलाह। मनमे उठलनि जे अही उमेरमे ने बाल-बोध पानिमे नहाइले जाइत तँ उमकए
लगैत। कहीं अही उमकीमे ने िनरधनमा बेसी पानिमे पहुँच भसि जाए। जँ भसि गेल तँ
फेर एहेन लोक भेटत कि नै। मन रोकलकनि पहिने मुँहसँ मनाही कऽ दइ छिऐ। नइ मानत
तँ अपने ने गंगा लाभ हएत। मुदा बुढ़ाड़ीक बाट तँ अपनो टूटि जाएत। ओकरा छोड़ि एक
लोटा पानियो देनिहार भेटत! तेहेन जुग-जमाना भऽ गेल अछि जे...।
जइठाम ताड़ी-दारूक लाइसेंस दऽ दऽ बेरोजगारी हटौल जाइए। की ऐ रोजगारसँ मिथिलाक
माटि जे बालुसँ भरि बलुआ गेल अछि, ओ उपजाऊ भूमि बनत।
जाधरि नै बनत ताधरि हम सभ ओहिना बरहमासकेँ छहमासा बनाएब आ छहमासा चौमासा तीन
मासा करैत पराती-साँझ कानि-कानि गाएब, ‘माधव, हम परिणाम निराशा।’
डुमकी लइसँ पहिने बाबा निरधनमापर नजरि देलनि तँ देखलखिन
जे ओ हमरे बाट ताकि रहल अछि। कहलखिन-
“एक्के बेर डूम लिहेँ। सभ तीरथ बेर-बेर गंगासागर एक बेर।”
जहिना कियो दोस्ती करए बेर गंगाक शपथ लैत, तहिना संगे दुनू गोरे गंगामे डूम लैत स्नान कऽ घूमि गाम एलाह।
~
बजन्ता-बुझन्ता
पोखरिक धड़िक विशाल सिमरक गाछपर दूटा सुग्गा बैसि,
जतिआरए सम्बन्ध बनबैत रहए। मुदा नाम-गामक ठेकान बिनु बुझने उड़ैबलाक कोन
ठेकान। तँए दुनू सहमत भेल जे पहिने अपन ठौर-ठेकानक सम्बन्ध बना लिअ तखन
कथा-कुटुमैतीक सम्बन्धक चर्च करब। दोसर डारिक सुगा लग पहुँचि गेल। दुनू बुझैत
जे घर-परिवारक गप आन किअए सुनत। तँए कानमे कान सटा एक दोसरकेँ पुछलक-
“बेरादर, तोहर नाम की छिअह?”
कनी काल गुम रहि दोसर बाजल-
“उढ़ड़ाकेँ गामक ठेकान होइ छै। की नाम कहबह। तोहीं अपना विचारे
राखि दाए। हमहूँ आइसँ मानि लेब।”
पहिल सुग्गा- “बड़बढ़ियाँ।”
बड़बढ़िया सुनि दोसर धाँइ दऽ बाजल-
“भाय, तोहर नाओं की छिअह?”
पहिल- “पोसा।”
दोसर- “पोसा केकरा कहै छै?”
पोसा बाजल-
“जे मनुक्खक संग रहैए।”
दोसर- “तब तँ पिजरामे रखैत हेतह?”
पोसा- “हँ, पिजरोमे
रहै छै। मुदा हम ओहन पोसा छी जे बिनु पिजरेक मनुक्खक संग रहै छी।”
~
चर्मरोग
एक तँ कातिकक पूर्णिमा दोसर गहन सेहो लागत। तहूमे कते साल
पछाति पूर्ण-गहन लगि रहल अछि। गामक लोकक उजाहि देखि दुनू परानी दोस काका सेहो
कमला नहाइक विचार केलनि। तीनिये दिन जाइ-अबैमे लागत।
दोस काका काकीकेँ कहलखिन-
“जखन तीनिये दिनक बात अछि तखन किअए ने घरेसँ बटखरचा लऽ जाइ।
अनेरे केहेन कहाँ दोकानक खाएब। एक तँ बेचिनिहारक हाथ-पएर नीक नै रहै छै तहूमे
कोन-कहाँ माछी सेहो िभनकैत रहै छै।”
दोस काकाक विचारमे अपन विचार मिलबैत काकी उत्तर देलखिन-
“अपन घर फेर अपन घर छी। कौओ मेना अपन घरक सुख बुझैए। हम सभ तँ
सहजहि मनुख छी। एतबो-अचार विचार नै राखब से केहेन हएत। तहूमे तते ने चीज-बौस महग
भऽ गेल अछि जे लोक आब भरि पेट खाइए आकि मनकेँ बुझा पानिसँ पेट भरैए।”
दोस काका- “काल्हि चारि बजे भोरमे
गाड़ी अछि। घंटा भरि टीशन जाइमे लागत। एक-डेढ़ बजेमे सभ कियो उठि जाएब। जाबे
दुनू पुतोहु बटखरचा बनौतीह ताबे दुनू गोटे नहा-सोना लेब।”
काकी- “बड़बढ़ियाँ।”
कमला स्नान करबाक विचार, तँए दुनू परानी
अबेर तक गपे-सपमे जगि गेलथि। अबेर कऽ सुतने नीनो अबेर तक खेहारलकनि। एक-डेढ़
बजेक बदला अढ़ाइ बजेमे नीन टुटलनि। घड़ी देखिते दोस काका अपन दोख घुसकबैत
पत्नीपर गुम्हरलाह-
“अढ़ाइ बजैए, आब कखन चुल्हि पजारल जाएत।
तहूमे सभ सुतले अछि।”
दोस काका दिस अपन क्रोध नै घुसका काकी पुतोहुपर जोरसँ
गरजैत बजलीह-
“कोन कुम्हकरणक बेटी सभ घर चलि आएल अछि, से नै जानि। कहू जे एना कऽ सिखा कऽ दुनू दियादिनीकेँ कहने छेलिऐ जे
एक-डेढ़ बजेमे उठि चुल्हि पजारि बटखरचा बना देब, से चलचलउ
बेर तक सुतले अछि।”
मुदा पुतोहुक लेल धैन-सन। सूतलमे गारिये की, जे सुनबे ने करत। पुतोहुक चाल-चुल नै सुनि काकी अपने ठंढ़ा गेलीह आगू
बढ़ि जेठकी पुतोहुकेँ सोर पाड़ि बजलीह-
“एना के कहने छलाैं, से अखन तक सूतले छी।”
भलहिं कातिक मास रोगाह किअए ने हुअए मुदा जेठक राति ओहन
सोहनगर थोड़े होइए। जेहन सिनेह सुख कातिकक निनिया देवीक होइए ओ जेठ जनीकेँ
थोड़े होइ छन्हि। धानसँ भरल बसुधा जहिना कड़कड़ाइत रहैए तहिना ने देवियो
कड़कड़ाइत रहै छथि। ओछाइनेपर सँ जेठकी पुतोहु भकुआएले जबाब देलखिन-
“अखन बड़ राति छै, एते किअए धड़फड़ाइ
छथि।”
एक तँ ओहुना पैंतालीस-पचास बर्खक उमेर दुनू परानी दोस काकाक, तइपर सँ पुतोहुक बात आरो ढील कऽ देलकनि। मुदा तैयो गारजनी रूआव झाड़ैत
काकी छोटकी पुतोहुकेँ उठबैत बजलीह-
“कनियाँ, नै खाइक ओरियान केलौं तँ केलौं,
मुदा निकलबो बेर तँ अपन घर-दुआर सुमझा लेब कि सूतले रहब।”
पहिलुका बात छोटकी सूतलेमे गमौलनि। मुदा अंतिम ‘सूतले
रहब’ बेर नीन टूटि गेलनि। ओछाइनेपरसँ बजलीह-
“दीदी, सूतले छथिन।”
रातिक भुखल भोरमे जहिना छह-नंबरा कोदारि कान्हपर लऽ
खढ़होरि तामए विदा होइत तहिना खिसिआएल मने दोस काका तीन दिनक धर्मक घाट
पहुँचबाक विचार जगौलनि। काकीकेँ कहलखिन-
“पनरहे मिनट समए बचल अछि, झब दऽ तैयार
होउ, नै तँ जहिना बटखरचा छूटल तहिना संगियो आ कमलो स्नान
छूटत।”
एक तँ ओहिना जेठुआ रौदमे सुखाएल केराउ, तइपर खापरिमे पड़िते जहिना भरभरा कऽ उड़ए लगैत तहिना काकी भरभराइत दोस
काकाकेँ कहलखिन-
“आन पुरुखक जे बोल राखब से निमहत। कियो अपना घरमे पुतोहुओ
अनलक आ दान-दहेज लछमियो अनलक। कियो तेहेन लुरिगर पुतोहु अनलक जेकरा देहेमे सभ
किछु तेहेन छै जे परिवारकेँ शिखरपर पहुँचबैए। अहाँकेँ आँखिमे कोन चर्मरोग भऽ
गेल अछि जे चूनि-चूनि पुतोहु अनलौं।”
पत्नीक बात सुनि दोस काका सहमि गेलाह। मुदा सासुर, समधियौर आ पत्नी लग जँ मुँह बन्न भऽ गेल तँ पुरुखे कथीक। मुदा एको डारिक
पत्ता धरिक बोध तँ पत्नीकेँ हेबे करै छन्हि जे करनी-धरनीक सीखमे सीखिते छथि।
मुदा तैयो दोस काका अगुअबैत बजलाह-
“जाएब की नै?”
लपकि कऽ काकी बजलीह-
“ढौआ जेबीमे लऽ लिअ, आ झनझनबैत चलू!”
~
शंका
चालीस बर्खसँ संग-संग रहनौं श्याम काकाकेँ काकीपर अखनो
शंका बनले रहै छन्हि। ओना सोलहन्नी शंका तँ नै मुदा तैयो शंका तँ शंके छी।
सोलहन्नी ऐ लेल नै जे परिवारक आन काजमे एको पाइ शंका नै रहै छन्हि,
मुदा पाइ-कौड़ी खर्चक भाँजमे तँ रहिते छन्हि। जइसँ आइ धरि कहियो मुट्ठी खोलि
नै धड़बै छन्हि।
जाधरि माए जीबैत छलनि ताधरि पुतोहुक हाथमे कहियो
जरूरीसँ बेसी कोनो वस्तु नै जाए देलकनि। कारण छलनि जे अपनो जकाँ कुशल गृहिणी
बनबए चहैत छलीह। कुशल ऐ लेल जे कमसँ कम वस्तुमे जीवन-यापन करैक लूरि भेलासँ जिनगीक
गाड़ी समुचित ढंगसँ चलैत अछि, से चलैत रहनि।
आब तँ सहजहि नाति-नाितन, पोता-पोतीसँ घर
भरि गेल छन्हि, मुदा तखन किअए शंका छन्हि? ओना ओ बुझै छथि जे घरसँ बाहर धरि जोड़ि चलैक लूरि जेकरा होइ ओ कुशल
गारजन भेल, मुदा से काकीकेँ रहितो किछु विशेष सिनेह नाति-नातिन, पोता-पोतीसँ रहने अवगुण तँ छन्हिये। ओना श्याम काकाकेँ अपन इच्छा कहियो
दोकान-दौड़ीसँ नोन-तेल करैक नै रहलनि, आब तँ सहजहि नहिये
छन्हि। तँए काकिये दोकान-दौड़ीक नोन-तेल करै छथिन। दोकान-दौड़ीक करैक पाछू
दोसरो कारण छन्हि। ओ ई छन्हि जे कनियाँ-पुतराक की मांग हेतनि से हुनका लग तँ
बाजि सकै छथि, मुदा हमरा लग थोड़े बजतीह।
काकियो कम नै ने छथिन, दोकानक (परिवारक खर्चक)
सभ समान कहि पाइ जोड़ि कऽ लऽ लैत छथिन आ तहूपर सँ किछु उधारी केने अबै छथिन।
उधारीक कारण होइ छन्हि जे काजक वस्तु कहि पुतोहु चलबाकाल कहि दैत छथिन जे
चौकलेट, नवका विस्कुट दोकानमे बड़ सुन्नर एलैए। पुतोहुक
आग्रह केना काकी नै मानथिन। जइसँ किछु ने किछु उधारी दोकानक भइये जाइत छन्हि।
तगेदा भेलापर श्याम काका बुझबे करै छथि आ देबे करै छथिन।
मुदा मनमे कुवाथ तँ भइये जाइ छन्हि जे एते धिया-पुताकेँ चसकाएब नीक नै।
भोरे की फुड़लनि की नै, उपराग दैत काकी श्याम
काकाकेँ कहलखिन-
“एते दिनसँ एकठाँ रहलौं, मुदा भरि मन विश्वास
कहियो ने भेल?”
काकीक बातकेँ गौर करैत श्याम काका कहलखिन-
“से केना बुझै छी?”
श्याम काकाकेँ आगू बजैले रहबे करनि आकि बीचेमे काकी टपकि
पड़लीह-
“मुट्ठी खोलि मुट्ठा कहियो मुट्ठीमे आबए देलौं।”
~
ओसार
बीस बर्ख नोकरीक पछाति वसन्त भाय दू मंजिला घर बनौलनि।
दू मंजिला बनबैक कारण छोट घराड़ी। कोठरी मात्र चारियेटा।
सभ प्राणी मिलि वसन्त भाय घरबासो लेताह आ परदेशो
छोड़ताह। रहैक घर आ जीबैक अपन अनुकूल कारोबारक कमाइ कमा अनने छथि। आठ बजे राति
घरवासक समए छै।
घरवासक सभ ओरियान जुटा एकठाम सभ जुटि गप-सप्प शुरू केलनि।
आइ दोसर गपे की हएत? वसन्त भाय माएकेँ कहलखिन-
“माए, परिवारमे आब पोता-पोती धरि भऽ गेलौ।
कौआ-मेना जकाँ कते दिन जीवितो। सभसँ सिरगर परिवारमे तोंही छेँ, बाज कोन कोठरी लेमे?”
एक तँ ओहिना माएक मन उधियाएल जे जते दिनका दुख लिखल छलए
से कटलौं। आब तँ लिखलहो कटल। धिया-पुताकेँ जे हेतै अपन कऽ लेत। हमरा जीबैत धरि
तँ घरक दुख मेटा गेलै। सौंसे परिवारपर आँखि खिड़बैत माए बजलीह-
“बौआ, कोठरी तोंही सभ लैह, ओसारक एके भाग बहुत हएत?”
अपन जीत देखैत पुतोहु झाड़-झाड़ैत बजलीह-
“माएकेँ कहियो घरसँ सिनेह भेलनि जे हेतनि?”
अपन जीत माए सोहो देखैत। सभ दिन सहीटमे रहलौं, चललौं-फिड़लौं, आब ऐ बुढ़ाड़ीमे जे सीढ़ीपर ऊपर-निच्चा
करैत टाँग-हाथ तोड़ि ली, एहेन वुधियार हमहीं छी। पुतोहु दिस
देखैत बजलीह-
“कनियाँ, कहुना भेलौं तँ बाले-बोध भेलौं।
एकटा उझटो बात बाजब तँ हम नै बरदास करब तँ आन करत। हमरा लिऐ सभसँ नीक ओसारे। सभ
दिन राति-विराति घरक चौबगली घुमै-फिड़ै छी, घर-अंगना
टहलै छी, अन्हार-धुनहारमे ऊपर-निच्चा करब नीक हएत।”
~
छोटका काका
दियादिक दसो भैयारीमे मुनेसर सभसँ छोट, तँए सभ छोटका काका कहै छन्हि। जाधरि भैयारीक सभ जीबैत छलनि ताधरि कहियो
छोट-पैघिक बात मनमे नै उठलनि। उठबो उचित नहिये। मुदा जखन उमेर बढ़लनि, भैयारीक नवो भाँइ दुनियाँ छोड़ि देलनि तखन तँ उठबो उचिते छलनि आ
उठबो केलनि। उठलनि ई जे जखन सभ भाँइ छलाह तखन जँ छोटका काका कहैत छल तँ कहैत छल
मुदा आब किअए कहैए। जँ से कहैत रहल तँ ऑफिसक चारिम श्रेणीक कर्मचारी जकाँ
बड़ाबाबू कहिया बनब? साठि बर्खक उमेर टपलौं, माथो कारीसँ उजरा गेल मुदा छोटका काकाक छोटके काका रहि गेलौं। एक तँ
ओहुना छोटकासँ सझिला, सझिलासँ मझिला, मझिलासँ बड़का बनैमे कते टपान अछि तइपर अखन धरि एको टपान नै टपलौं।
देहक रंग-रूपसँ बाबा बनैक खाढ़ीमे आएल जाइ छी मुदा पीराड़क गाछ जकाँ बाढ़ि कहाँ
अबैए।
असमंजसमे पड़ल मुनेसरक मनमे उठल। प्रचार प्रसारक जमाना आबि
गेल अछि नकलियो असली बनि बजारमे दौड़ रहल अछि तँए किछु ने करब तँ ओहिना रहि
जाएब। भीखमंगो तँ नहिये छी जे जन्मेसँ बाबा कहबए लगब। अपन पैरवियो अपने केना
करब। अनेरे लोक धड़खनाह कहए लगत। मुदा जे विचार अपने उठि रहल अछि ओ हुनका
-पत्नी- कहाँ उठि रहल छन्हि। ओ तँ छोटकी काकी सुनि आरेा मुस्की दैत रहै छथि।
पत्नीकेँ सोर पाड़ि मुनेसर कहलखिन-
“देखियो जे घर-परिवारसँ लऽ कऽ समाज धरि छोटके कक्का कहैए से
उचित भेल?”
छोटका काकाक मनमे रहनि जे स्त्रीगण जानि दस ठाम ओहुना
बजतीह। तइसँ अपन काज ससरत। मुदा छोटकी काकी गबदी मारि देलनि। कतौ किअए बजतीह।
अपन लाभ के छोड़ैए जे छोड़ितथि। काकीकेँ कहि छोटका काका कान पाथि देलनि,
जे किम्हरोसँ तँ हवा चलबे करत। मुदा कतौ चाल-चूल नै।
मास दिनक पछाति पुन: छोटाक काका काकीकेँ मन पाड़ैत
दोहरौलनि-
“कहने जे रही तेकर सुनि-गुनि कहाँ कतौ पबै छी?”
एक दिस छोटका काकाक उदास मन, दोसर दिस काकीक
ओलड़ैत-मलड़ैत। दोसरकेँ अनुकूल बना किछु कहबोमे आनन्द अबै छै। मुदा जहिना
पुरुखकेँ जेठ भेने आनन्द अबै छै तहिना तँ स्त्रीगणोकेँ छोट भेने अबै छै। जँ नै
अबितै तँ किअए भाैजाइकेँ सभ एक लाड़नि लाड़ि दइए। भलहिं एक लाड़निक बदला सात
लाड़नि किअए ने खाए मुदा होइ तँ सएह छै। छोट भेने एते लाभ तँ होइते अछि जे जेठ
जकाँ अशिष्ट बोलीसँ बँचैत अछि। मुनेसरक मनकेँ बुझबैत
काकी बजलीह-
“अच्छा देखियो ने, समए कतौ भागल जाइए।
भदबरिया मेघ कि कोनो साँझ-भोर तकैए।”
जहिना चाह पीब मन तँ मानि जाइए मुदा पेट थोड़े मानत।
टकटकी लगा मुनेसर छोटकी काकी (पत्नी) दिसि देखैत रहलाह।
~
सीमा-सड़हद
खेते-पथार जकाँ आनोक सीमा-सड़हद होइ छै। मुदा किछु मानबो
करैत अछि तँ किछु अतिक्रमणो करैत अछि। किछु बुझिनिहार बुझितो तोड़ैत अछि
तँ किछु बिनु बुझनौं तोड़ैत अछि।
इंजीनियरिंग कओलेजसँ रिटायर भेलाक पाँच सालक पछाति
सुधीर काका गामेमे रहबाक विचार केलनि। विचार अपने नै केलनि,
काकीक दबाबमे केलनि। कारण भेल जे राजधानीक शहरमे अपन मकान कीनै काल मनमे ऐबे ने
केलनि जे राजधानीक शहर राजधानीकरण भऽ जाइ छै। सभ तरहक राजधानी बनैक लक्षण आबि
जाइ छै।
अपराधीक भाँजमे पड़ि सुधीर काकाक जे धन लुटेलनि से तँ
सबूर केलनि जे बाढ़िक पानि जकाँ आएल-गेल मुदा दुनू परानी मारि तेहेन खेलनि जे
राजधानी छोड़ि गाम दिसक बाट धेलनि।
दुनू परानी गाम तँ आबि गेलाह मुदा इंजीनियर रहने मनमे
रहबे करनि जे गामो-समाज तँ सएह मुदा से नै भेलनि। बाहरे जकाँ गामोमे बूझि
पड़नि। भातीजकेँ सोर पाड़ि कहलखिन-
“मनोज, गाम अही दुआरे एलौं जे अपन दर-दियाद,
सर-समाजमे हब-गब करैत जिनगी ससारि लेब। मुदा.....।”
सुधीर काकाक विचार मनोज बूझि गेल। मुदा समुचित उत्तर नै
देब उचित बूझि, प्रश्नकेँ बहटािर बाजल-
“काका, गामक लोकमे ओते सूझ-बूझ छै
जे......?”
मनोजक उत्तरसँ सुधीर काकाकेँ संतोष नै भेलनि। दोहरौलनि-
“नै बौआ, किछु दोसर बात छै?”
मनोज कहलकनि-
“काका, जाधरि गाम-समाजक सीमा सड़हद बूझि
अपन सीमा-सड़हद नै बनाएब, ताधरि......।”
~
रमैत जोगी बहैत पानि
की मनमे एलनि की नै....। राधाकान्त बाबा घर-परिवारसँ
भगैक विचार कऽ लेलनि। ओना समाज तँ समाज छी जे खेबा काल बौसैत अछि,
पड़ाइत काल बौसैत अछि, रूसलमे बौसैत अछि नै जानि आरो
कोन-कोन काल बौसैत अछि। मुदा से राधाकान्त बाबाकेँ कियो नै बौसए एलनि। ओना
मनमे रहनि जे कियो औताह तँ अपन मनक बेथा कहबनि। केना नै कहियनि उपदेश झाड़लासँ
झड़ै छै आकि उपैत केलासँ। मुदा मनक बात मनेमे अंतरी जकाँ घुरिआइत बहत्तरि हाथक
भऽ गेलनि। केकरो नै देखि फेर मनमे उठलनि जे जखन समाजे नै तखन परिवारक कते आशा।
बड़ करत तँ मुँहमे आगि धराओत, कठिआरी के जाएत। तहूमे तेहेन
चालि-ढालि सभ धेने जाइए जे एको दिन रहब कि जहलसँ कम अछि। मुदा तैयो आशामे
रहथि जे परिवारोक कियो जँ बौसए चलि औत तँ बौसा जाएब। अनेरे ऐ बुढ़ाड़ीमे कतए
बौआएब। मुदा आशा अशे रहि गेलनि। ओना अंत-अंत धरि आशा रहनि जे आन-आबए वा नै, मुदा......?
दादी तँ दािदये भऽ गेलीह। सृजनकर्ता कुम्हार तँ बर्तन
गढ़ि ओकर मुँह-कान नै सोझ करए, तँ केहेन बर्तन बनत। तहिना दादी
अपना बोनमे हराएल। किअए बौसए औतनि। तहूमे कोनो कि हराएल बात अछि जे मरैबला
मरबे करैए। आ चूड़ी फोड़ि, सिनूर मेटा जीबे करैए। मुदा
जीवैक जगह तँ चाही।
दरबज्जासँ उठि राधाकान्त बाबा कमलक मोटरीमे लटकैत कमंडल
कान्हपर लैत ओसारसँ निच्चा उतरलाह कि पोता देखलकनि। दौड़ल आबि पाछूसँ मोटरी
पकड़ैत कहलकनि-
“कतए चललह?”
बहैत पवित्र धारक स्नान जकाँ राधाकान्त बाबा हरा गेलाह।
मनक बेथा मनेमे गुमसरि प्रेमक पेंपी बनि मुँहसँ निकलए लगलनि। मुदा किछु उत्तर
नै पाबि पोता कहलकनि-
“हमहूँ जेबह।”
संगी पाबि बाबा उत्तर देलखिन-
“रमैत जोगी बहैत पानि।”
~
गंजन
जखने सुनीता-दादी बेटीक हाल-समाचार सुनलनि जे तेहेन रौदीमे
पड़ि गेल जे एको कनमा धान नै हेतै, तखनेसँ बाबापर आँखि
गड़ौने रहथि जे जखने अवसर भेटत, नीक जकाँ गंजन करबनि। ओना
बाबाकेँ बेटी कि इलाकेक समाचार बूझल रहनि मुदा सुनीता-दादीक कानमे ऐ लेल नै
देलनि जे कएले कि हेतनि, तखन तँ मनरोग चढ़ा देबनि। तइसँ
नीक जे कहबे ने करबनि, अनका मुँहे जे सुनबे करतीह तँ ओहुना
घोंघाउज कऽ लेब।
गर चढ़िते सुनीता-दादी बाबाकेँ कहलखिन-
“कहाँ दन मृत्युन्जय-बेटीकेँ एको कनमा धान नै हेतइ, सात तुर दिन केना खेपतै? सभटा आगि लगौल अहाँक छी।
जेहेन गाम तीनू बेटीक केलौं तेहेन गाम अहाँकेँ मृत्युन्जयले नै भेटल।”
दादीक गंजन गजिते बाबाक मनमे उठलनि जे जिनगीमे जँ किछु अरधि-संकल्पित
बनि नै चललौं तँ खाली डिब्बामे झुटका दऽ झुनझुना बनौने की हएत। “दस
कोस सीमा जे बन्हलिऐ” लोरिक की फुसिये कहलनि अछि।
जइठाम राँइ-बाँइ भेल गामक खेत जकाँ अनेको छोटका-बड़का आड़िमे जिनगी बन्हि गेल
अछि, तइठाम कैये की सकै छी। अखनो ओ विचार मनमे मरल कहाँ
अछि जे एक बाप-माइक धिया-पुता एक रंग जिनगी नै जीबए!
~
सजाए
बजैत लाज होइए मुदा नहियो बाजब तँ पुरुख कथीक। जहिना
सभकेँ होइ छै तहिना जूति-भाँति लए पत्नीसँ मुँहाँठुट्ठी भऽ गेल। दुनू दू दिशाक
बुझनूक! खिसिया कऽ अपने काज करए खेत चलि गेलौं। जलखै नै पहुँचल। सबूर केलौं।
मुदा खीस आरो तबैध गेल। अबेर धरि खेतेमे खटैत रहलौं।
गामपर आबि नहा-सोना खाइले गेलौं। ओढ़ना
ओढ़ि पत्नी घरमे सूतल। तामसे नै टोकलियनि। मुदा तैयो अनठा कऽ बच्चाकेँ पुछलिऐ-
“बुच्ची, माए कतए छथुन?”
कहलक- “मन खराप छै सूतल अछि।”
“तोरा बुत्ते खाएक परसल हेतह?”
कहलक- “भानसो कहाँ भेलहेँ।”
~
घटक बाबा
एहेन अगिआएल क्रोध घटक बाबाकेँ जिनगीमे पहिल दिन छलनि,
जेहेन आइ भोरे उठलनि। एक तँ ओहुना देह घटने थोड़-थाड़ क्रोध सदिखन रहबे करै छन्हि
मुदा घटबी जिनगीमे घटती काज भेने जहिना होइ छै तहिना भेलनि। ओना देहक घटबी
अनका जकाँ नै छलनि, किएक तँ सभ दिन रहने केकरो फेहम बनल
रहै छै, सभ किछु दुरुस्त रहै छै, मुदा
तइसँ भिन्न घटक बाबाकेँ भेलनि। जेना केरा गाछक वा अनरनेबा गाछक पानि सुखने
खलपैट जाइए तहिना भेने घरक पहिलुका सभ कपड़ो-लत्ता आ जुतो-चप्पल भऽ गेलनि।
दहेजुआ देल कुरतो-गंजी आ जुत्तो-पप्पल ढील-ढीलाह बनि गेलनि। एकर माने ई नै जे
कुरतो-गंजी आ जुतो-चप्पल बढ़ि कऽ ताड़ भऽ गेलनि तँए ढील-ढीलाह भऽ गेलनि। अपने
सुखि कऽ पलास भऽ गेल छथि। ओना घरमे तते-रास कपड़ो-जुत्तो-चप्पल छन्हि जे अपन
जीता-जिनगीकेँ के कहए जे मुइलोपर दान-पुन करैत उगड़िये जेतनि। मुदा कुछप भेने
ओहो सभ कुछपिये जेतनि जइसँ कोनो सोगात नै लगतनि। जँ अपनो पहीरता तँ लेबरे जकाँ
लगता आ दानो-पुन करता तैयो सएह हेतनि। खैर जे होउ, मुदा
औझुका अगिआएल क्रोध बिनु हवोक ने पजरि जाए तेहने लहलही छन्हि।
कनभेंटक सातम श्रेणीक पोती सरस्वती जिज्ञासु बनि पुछलकनि-
“बाबा, पढ़ल-लिखल लड़काक संग बिनु
पढ़ल-लिखल लड़कीक बिआह कते करौलिऐ आ बिनु पढ़ल-लिखल लड़काकेँ पढ़ल-लिखल
लड़कीक संग कते करौने हेबइ?”
पोतीक पुछल प्रश्नक उत्तर बाबा नकारि केना सकै छथि। कविताक
तुकवन्दी जकाँ कुछप किअए ने होउ, मुदा लय तँ भरबे करताह।
छ-अनियाँ मुस्की दैत घटक बाबा कहलखिन-
“कोनो की डायरी लिखि कऽ रखने छी, अनगिनती
बूझह।”
बाल मन सरस्वतीक अनगिनतीमे ओझरा गेल। मुदा जहिना भूखक
तृष्णाकेँ पानियोसँ किछु समए विलमाओल जा सकैए, मुदा तृष्णो तँ
तृष्णा छिऐ। ठोस जहिना पानिमे नै भसिआइत, पानि हवामे
नै उड़ैत तहिना सरस्वतीक तृष्णा नै उड़ल। पुन: दोहरा कऽ बाजल-
“बाबा, बिआह किअए होइ छै?”
पाँच किलो मोटरीकेँ तँ टारि देलिऐ, मनहीकेँ केना टारबै। जहिना पएर पड़िते साँप फन-फना उठैए तहिना घटक
बाबाकेँ फनफनी उठलनि। एक तँ ओहुना घटबी देह थरथराइते रहै छन्हि तइपर आरो धऽ
लेलकनि। मुदा जहिना गनगुआरि देखि नागक फनकी टूटि जाइत तहिना दस बर्खक
पोतीकेँ सोझमे ठाढ़ भेने घटक बाबाकेँ भेलनि।
~
आने जकाँ
हलसल-फूलसल पत्नी बजलीह-
“आइ धरि अहाँ कहियो मोनसँ नै चाहलौं। सभ दिन बिगड़ले रहै छी?”
पत्नीक बात सुनि छूब्ध भऽ गेलौं जे एहेन बात किअए कहलनि!
िनच्चाँ-ऊपर देखि कहलियनि-
“अहाँ कत्ते चाहै छी?”
कहलनि- “जहिना सभकेँ देखै छिऐ।”
कहलियनि- “आने जकाँ हमहूँ भऽ जाइ
तखन ने?”
~
दान-दछिना
तरगरे उठि पंडित काका िनत्य–कर्मसँ
िनवृत्ति भऽ झुनझुनाबला बत्तीक ठेंगा नेने सड़कपर आबि चिकड़ि-चिकड़ि बजए
लगलाह-
“ई समाज रहैबला नै अछि। आन बिसरि जाए तँ बिसरि जाए मुदा
मरै बेरमे केना मुँह बन्न करब जे पुराण-पोथीक दान सभसँ नीक नै होइ छैक।”
आंगनसँ पत्नी सुनिते धड़फड़ाएल दौगल आबि कहलकनि-
“भोरे-भोर की भऽ गेल जे एना अड़ड़ाइ छी?”
पत्नीक पश्नसँ पंडित काकाकेँ दुख नै भेलनि। खुशिये भेलनि।
कमसँ कम पत्नियो तँ लगमे आबि पुछलनि। खखास करैत बजलाह-
“कहू जे भोज-काजमे लोक लाखक-लाख रूपैआ फूकि दइए। धोती-लोटा
बाँटि दइए। अहीं कहू जे लोक आब जग-गिलास भऽ गेल, फुलपेंटे-कोट
भऽ गेल। की नै? तइठाम धोती-लोटाकेँ के छूअत। जे छुऐबला अछि
ओइले एकोटा पाइ नै लुटबए चहैए, तखन अनेरे रहि कऽ की करब। मन
हुअए तँ अखने विदा भऽ जाउ।”
पंडित काकाकेँ संगीक जरूरत देखि पंडिताइन काकी बौसैत कहलखिन-
“अखन धरि अहूँ ने ते कहियो बाजल छलौं। समाज दोखी बनाओत। तामस
घोंटि लिअ।”
~
उड़हड़ि
एक तँ ओहिना जूरशीतलक भोर, चारिये बजेसँ
चन्द्रकूप बनि इनार अकास-पताल एक केने, सिरसिराइत वसन्त
सिर सजबै पाछू बेहाल, जे जतए से ततैसँ पीह-पाह करैत। तइपर
तीन दिनसँ एकटा नवका गप गाममे सेहो उपकि गेल छै। ओ ई जे कपरचनमा उड़हड़ि गेल।
रंग-बिरंगक खेरहा-खेरही गाममे छिटाइत।
ओना उपरका जहाज
जकाँ स्त्रीगणक बीच गप हवाइ भेल मुदा पुरुखक बीच कोनो सुनि-गुनि नै। तँए
कपरचनमाक पिता-रघुनाथक लेल धैन-सन। माए कुड़बुड़ाइत मुदा सासुक डरे मुँह नै
खोलैत। ओना परगामी भेने माइयो आ पत्नियोक मन ओते घबाह नै होइत। होइत तँ ओतए जतए
सीमानक आड़ि धारक बाढ़िमे भसिया जाइ छै। कुसमा दादीक माने कपरचनमाक दादीक मनमे
मिसियो भरि हलचल नै। कोनो कि बेटी जाति छी जे अबलट लागत। बेटा धन छी जतए रहत
ओतए खुट्टा गाड़ि कऽ रहत। कियो बजैए तँ अपन मँुह दुइर करैए।
जूरशीतल पावनि, अपने हाथे कुसमा दादी इनारसँ पानि भरि असीरवाद बॅटबे करतीह। तहूमे तेहेन
गप परिवारक उड़ल छन्हि जे बाँटबो जरूरिये छन्हि। ओना अन्हरगरे मनमे उठल
रहनि मुदा पहरक ठेकान नै रहलनि। जखन गाममे पीह-पाह शुरू भेल तखन फुड़फुड़ा कऽ
उठि लाेटा-डोल नेने इनार दिस बढ़ली। मनमे ईहो रहनि जे इनार परक असीरवाद बेसी
नीक अंगनाक अपेक्षा होइ छै। तँए सभसँ पहिने इनारपर पहुँचब जरूरी बुझलनि। आब कि
कुशक जौर आ घट थोड़े रहल मुदा तैयो।
इनारसँ डोल ऊपरो
ने भेल छलनि आकि नवनगरवाली समजिया-पुतोहु अबिते देखलनि जे दादी असगरे छथि
तँए अवसरक लाभ उठा ली नै तँ पचताइये कऽ की हएत। उपरागी जकाँ बजली-
“उढ़ड़ा एलनि की नै?”
नवनगरवालीक बोल कुसमा दादीकेँ मिसियो भरि नै कबकबौलकनि।
मनमे नचैत रहनि जे एके पीढ़ी ऊपरक लोकक ने संकोच करैए, हम तँ दू पीढ़ी छिऐ। बाल-बोधक उकठपनो गपक जबाब उकठपने जकाँ िदऐ से केहेन
हएत। नवनगरवालीक आँखिमे आँखि चढ़बैत बजलीह-
“कनियाँ, अहाँ कहुना भेलौं तँ पोते-पोती
भेलौं। किछु छी कपरचना तँ बेटा धन छी। जँ ककरो लैयो कऽ चलि गेल हेतै तँ सोचि
नेने हेतै जे ठाठसँ जिनगी केना बिताएब। जतए रहत जगरनथिया खन्ती गाड़ि देतै।”
भादवक बर्खा जकाँ
कुसुमा दादीक मुँह बरैसते रहनि कि इनारक किनछड़िमे कनबाहि भेल दुलारपुरवाली
ठाढ़ छथि। मुदा ओ दादीक सभ बात सुनि नेने रहथि। मन भिन-भिना गेल रहनि। तइपर
जूरशीतलक उखमजक जे टटका-बसियाक भिरंत छिहे। टटका नीक आकि बसिया। बसिया नीक
आकि तेबसिया। तेबसिया नीक आकि अमवसिया। मुदा टटका?
नवनगरवालीक पक्ष लैत बजली-
“सभटा कएल हिनके छियनि। दुनियाँमे नाओंक अकाल पड़ि गेल
छेलै जे कपरचनमा नाओं रखलखिन।”
सतैहिया बर्खाकेँ
की छुटैक आशामे थोड़े छोड़ल जा सकैए। बीचोमे जोगारक जरूरत अछिये। जँ से नै तँ बिल-बाल होइत किमहर-किमहर बहि जाएत से थोड़े
बूझि पेबै। कुसमा दादी दुलारपुरवालीकेँ कहए लगलखिन-
“तों सभ फुलक नाओं के बेसी पसिन करै छहक, मुदा तोंही कहअ जे जते अपना गाममे फूल अछि ओकर मूल्य कि हेबाक चाही।
मुदा देखै कि छहक। पोताक नाओं कोनो अधला रखने छी जेहेन चालि-ढालि देखलिऐ तेहेन
नाउओं रखि देलिऐ।”
दादीक उतारा सुनि नवनगरवाली मुँह
चमकबैत बाजलि-
“दादी, अबेर भेल जाइ छै। एक चुरूक असीरवाद
देती तँ दोथु नै तँ अपन राखथु।”
अगुआएल काजकेँ
पछुआइत देखि दादी डोल नेनहि नवनगरवालीकेँ कहलखिन-
“मन तँ होइए जे सौंसे डोल उझलि दिअ मुदा अखैन काजक बेर अछि।
जा तोहूँ घर-अंगना देखहक।”
~
मत्हानि
भोटक तीन मास पछाति श्याम आ कमलनाथकेँ भेँट भेल। ओना एक
गामक रहितो ऐनाहे-ओनाहे सम्बन्ध दुनूक बीच भोटसँ पहिने छल, मुदा महिना दिनक दौड़ एते लग आनि देलक जे एक्के गाछक फल जकाँ बूझि
पड़ए लगलै।
एक तँ तीन मासक
बकिऔता गपो-सप आ अपन पार्टीक हारि आ दोसराक सरकारोक हालि-चािल पार्टी लोकक
मुँहे सुनब तँ जरूरिये अछि। माटिक बान्हपर चैत-बैशाखमे धूरा-गर्दा उड़िते अछि, तहूमे तेहेन घोड़दौड़क समए अछि जे आरो उड़ि अकासकेँ अन्हरौने अछि।
भोटक हािरसँ कमलनाथक मन झुकल तइ संग
परिवारक तीन पुस्तक सेवा सेहो हराइत-बिड़हाति देखि आरो झूकि गेल। खसल मन
कमलनाथ बाजल-
“भाय, की हाल-चाल अछि?”
कमलनाथकेँ श्याम आंकि लेलक। हारल लोकक बीच चढ़ा-उतड़ी
होइते छै। खसैत कमलनाथकेँ देखि चढ़ैत श्याम बाजल-
“पूरबते।”
श्यामक उत्तर
पाबि कमलनाथ भक-चकमे पड़ि गेल। पैछला बात बुझने बिना आगू केना बढ़ल जाएत।
मने-मन सोचए लगल जे पूर्वतक की अर्थ भेल। मुदा श्यामक पूर्वतक अर्थ रहए अपन
राजनीति। देशक जे हेतइ से देशक लोक जनतै; तइसँ हमरा की। अपन
ठीकेदारी, ऑफिसमे हेरा-फेरीक संग समाजमे सराध-बिआह चलैत
रहतै, सभ अबाद रहत। ई की सेवा नै भेल?
श्यामक उत्तर नै बूझि कमलनाथ पुन: दोहरबैत बाजल-
“भाय, नै बूझि पेलौं?”
अपन गोटी लाल होइत देखि श्याम अगुआएल नेता जकाँ विचारए
लगल जे अगुआएब तँ ओहए ने भेल जे अपन विचारकेँ रूचिगर बना दोसरकेँ बुझाएब। मुदा
लगले मन चकभौर लेलकै। मुँहा-मुँही बाजब आ मुँह घुमा कऽ बाजब एके भेल। ओहए ने कला
छी। अनुकूल होइत श्याम बाजल-
“भाय, भोटक पछाति जना हमरो मन उड़िया-बीड़िया
गेल। पहिने जना करै छलों से आब कहाँ कएल होइए। तखन तँ ढीलो-उड़ीसक दवाइ खा-लेब,
से केहेन हएत?”
~
मेकचो
पछुआ पकड़ैत िमथिलांचलक किसानकेँ अपनो दोख ओतबे छन्हि
जते सरकारक। किएक तँ ओहो अपनाकेँ जनतंत्रक किसान नहि बूझि पेलनि।
पाँच बीघा जोतक किसान चुल्हाइ। अस्सीक दसकमे गहुमक खेतीक
संग सरकारी खादक अनुदान आएल। बीघा भरि गहुमक खेती चुल्हाइ करत। एक बोरा यूरिया आ
एक बोरा ग्रोमर खादक पूँजी लगबैक विचार केलक। ओना समुचित खादो आ पौष्टिक तत्वो
खेतमे देब जुड़ब परक फुड़ब भेल।
ब्लौकक माध्यमसँ खाद भेटै छै। पाँच दिन बरदा चुल्हाइ
भी.एल.डब्ल्यूसँ फर्म भरौलक। तीन दिन पछाति कर्मचारियो लिखि देलखिन। दू दिन
पछाति बी.ओ. सहाएब लिखला पछाति फर्म ब्लौक ऑफिस पहुँचत जे आठम दिन भेटतै।
फार्म जमा केला
पछाति घरपर आबि चुल्हाइ चपचपाइत पत्नी रूसनी लग बाजल-
“ऐ बेर अपन गहुमक खेती नीक हएत!”
पतिक चपचपीमे चपचपा रूसनी चपि-चपि,
गौंचियाइत नजरि दैत बाजलि-
“फगुआमे नवके पुड़ी खाएत।”
तीस दिसम्बरकेँ
चुल्हाइ गहुम बाउग केलक। पच्चीस किलो कट्ठा उपज भेल।
टुटैत उपजाक टुटैत
चुल्हाइक मन पत्नीकेँ कहलक-
“ऐ बेरसँ नीक पौरुके भेल। चालीस किलो कट्ठा भेल रहए।”
रूसनी- “एना किअए भेल?”
चुल्हाइ- “तेहेन चमरछोंछमे पड़ि गेलौं जे
मेकचो-पर-मेकचो लगैत गेल। जइसँ बाउग करैमे डेढ़ मास पछुआ गेलौं। तँए उपजा टूटि
गेल।”
पतिक घाउपर मलहम लगबैत रूसनी बाजलि-
“खेती जुआ छिऐ। हारि-जीत चलिते रहै छै। तइ ले कि हाथ-पएर
मारि बैस जाएब।”
बिसवास भरल पत्नीक बात सुनि संकल्पित होइत चुल्हाइ
बाजल-
“फेर एहेन फेरिमे नै पड़ब।”
~
झुटका विदाइ
जहिना हारल नटुआकेँ झुटका विदाइ होइ छै तहिना ने हमरो
सहए भेल; मनमे अबिते प्रोफेसर रतनक चिन्तन धार ठमकि गेलनि।
पिताक
श्राद्ध-कर्म समपन भेलाक तेसरा दिन प्रो. रतन दरबज्जाक कुर्सीपर ओंगठि कऽ बैस;
बीतल काजक समीक्षा करैत छलाह। जहिना नख-सिख वर्णन होइत तहिना ने
सिख-नखक सेहो होइए। मुदा काजक समीक्षा तँ मशीन सदृश होइत। जे पार्ट पाछू कऽ लगौल
जाइत खोलबा काल पहिने खुजैत अछि।
प्रो. रतन छगुन्तामे
पड़ल छथि जे समए कतएसँ कतए ससरि गेल आ....। आब कि थारी-लोटा आ कपड़ा-लत्ताक
घटबी ओइ तरहेँ अछि जना पहिने छल। कहू जे ई केहेन भेल जे एते रूपैआ लोटा पाछू गमा
देलौं। जँ समाजक बात नै मानितौं दोखी होइतो, मानलौं तँ कि
मानलौं। लोटाक चर्च हुनका सभकेँ नै करक चाहियनि? तहूमे
तेना लाबा-फरही करए लगलाह जे इस्टिलिया केना देबइ, लोहा छी
अशुद्ध होइए। निअमत: फूल, पितरि वा ताम हेबाक चाही!! चानी-सोना तँ राजा-रजबारक भेल। विचार अनिवार्य भऽ गेल। फेर एहेन प्रश्न
किअए उठल जे घरही नै दऽ बच्चासँ बूढ़ धरि जे पंच औताह सभकेँ होन्हि। सियानोक
पनिपीबा ओहए हएत जे धिया-पुताक? तखन तँ लोटासँ लोटकी धड़िक
ओरियान करू। तहूमे तेहेन अनरनेवा गाछ जकाँ भरिगर गाछ ठाढ़ कऽ देलनि जे हाइ स्कूलक
शिक्षक गंगाधर लोटाक संग धोतियो बँटलनि। तइठाम एको अलंग नै करितै; से केहेन होइत।
बजारसँ घुमला
पछाति जहिना नीक वस्तु देखलापर मनमे उमकी उठैत तँ अधला देखलापर डुबकी लिअए
पड़ैत, सएह ने भेल। प्रो. रतनक मन कोसी-कमलाक एकबट्ट भेल
पानि जकाँ घोर-मट्ठा भऽ गेलनि। चिलहोरि जकाँ झपटैत पत्नीकेँ कहलखिन-
“मन बिसाइन-बिसाइन भेल जाइए आ अहाँकेँ एक कप चाहो ने जुरैए?”
पतिक आदेश सुनि सुजीता चाहक ओरियान केलनि।
चाह दैत सुजीता,
पजरामे बैस जट-जटीन जकाँ पुछलखिन-
“की भेल जे एना मन विधुआएल अछि?”
ओना चाहक चुस्कीसँ रतनक बिसबिसी कनी कमलनि मुदा निड़कटोबलि
भऽ कऽ छूटल नै छलनि। ओही झोंकमे झोंकि देलखिन-
“हएत कि झुटका विदाइ भेल।”
पतिक बात सुजीता
नै बूझि सकलीह। बुझियो केना सकितथि? मुदा रोड़ाएल दालिक
सुगंध जकाँ अनुमानए लगली। मनमे जे कुवाथ भेल छन्हि से जाबे खोलता नै ताबे केना
बूझब। जँ कोनो तेहेन बात रहितनि तँ एना साँप जकाँ गैंचिया-गैंचिया किअए चलितथि।
बजलीह-
“कनी काल अराम करू, हमरो हाथ काजेमे बाझल
छलए, ओकरा सम्हारि लइ छी।”
~
मुँहक खतियान
ऐ बेर दुर्गापूजाक नव उत्साह अछि। उत्साहो उचिते, हाले-सालमे मलेमासक विदाइ भेल अछि। एक दिन माघ बीतने तँ आशा
फुड़फुड़ाइत पाँखि झाड़ए लगैत अछि, भलहिं पच्चीस दिनक
टप-टप पाला खसैत शीत-लहरी आगू किअए ने हुअए। मुदा से नै, कहियो
नावपर गाड़ी चढ़ैए तँ कहियो गाड़ीपर नाव। तहूमे दुनूक बीच,
गाड़ी-नावक बीच एहेन रंग-रूपक मिलानी रहै छै जे दुनू-दुनूकेँ पीठेपर उठबैए आ
पेटेमे रखैए। से ऐ बेर थोड़े हएत, तते ने लोक रौदिआएल अछि
जे महारेपरसँ कूदि-कूदि उमकत।
औझुका दिन भगवतीक
माटि लेल जाएत। भोजक पाते देखि धिया-पुता चपचपाए लगैत जे खूब खेबनि। आखिर भोज
होइते किअए छै। चारि बजे भोरेसँ पीह-पाह शुरू भऽ गेल। ओना रघुनी भायकेँ बूझल
रहनि मुदा तैयो पीह-पाह नीक नै लगैत रहनि। कारण रहए जे दिनक फल भोजन बूझि
क्रमिक-काजक क्रिया बुझैत। जाबे चौकक हवा पानि पीबए पहुँचैत कि तइसँ पहिने
चाहक चुल्हि पजरल देखलनि।
अपन मनकामना
पुरबैत तेतरा दस कप चाहक भोज केलक। भोजन सत्तरिमे भोजैत अपन बात बजिते अछि तहिना
तेतरा बाजल-
“भाय, ट्रेण्ड डरेबर भऽ गेलियौ, भगवती दयासँ आब कोनो दुख-तकलीफ परिवारकेँ नै हेतै।”
दोकानक दोसर
बेंचपर बैसल पोखरिया असामी रामेसर सेहो बैसल। तेतराक बात जना रामेसरक छातीमे छेदि
केलक तहिना रामेसरकेँ भेल। झोंक चढ़िते बाजल-
“बाप जे मड़ूआ लेलकै, से तँ अखैन तक
सठाएले ने भेलै हेन...?”
रामेसरक बात सुनिते
तेतरा लोढ़िऔलक। मुदा कएल कि जाए? दुनूकेँ थोम-थाम लगबैत
रघुनी भाय कहलखिन-
“दू घंटा लोककेँ बातो बुझैमे लगतनि तँए दू घंटा दुनू गोरे घरपर
जाउ।”
घर िदस रामेसर बढ़ैत बाजल-
“बाढ़िमे घर खसि पड़ल, नै तँ अखने बही
आनि कऽ पंचक बीचमे फेक दैतिऐ।”
घरमुँहा होइत
तेतरा बाजल-
“कि बूझि पड़ै छै जे बबेबला सनकी अछि,
झाड़ि देबइ। जँ ओकर बाकिये छै तँ मनुख जकाँ फुटमे कहैत।”
~
कोसलिया
सीकसँ खसल मटकूड़ जकाँ सोमन काकाक मन छहोंछित भऽ फुटए
लगलनि। बिनु भाँग पीनौं अफीमक नशा चढ़ि गेलनि। निताकैत भेल देहकेँ खरौआ
जौड़ीसँ घोरल खाटपर चितंग पटकलनि। दंगल जकाँ नै जे किछु हारबो करैए, किछु जीतबो करैए आ किछु खिचड़ियो बनैए। दोसर कारण छलनि। ओनाइत मन उधिया-उधिया
बजैत जे चारू बेटाक पिता छी, पालन-पोशन करै छी तखन किअए ने
बूझि पेलौं जे घरमे कोसलिया सेहो बसि रहल अछि। मनक सीमा टपि बोल निकललनि-
“अनेरे परिवार-परिवार करै छी, सत्तरि
बर्खक पसीनाक की मोल रहल। यएह ने जे घरे-परिवारेमे एहेन मोइन फोड़ि दुदिशिया
धार बहए लगल। कुट्टी-कट्टा जकाँ जँ दुनू दिस धार बनाएब तँ नारक मुट्ठी घुसकबै काल
हाथ खड़रेबाक डर रहबे करत।”
सोमन काकाकेँ देखि
घुरनी काकीक मन मिसियो भरि नै हलचलेलनि। जिनगीक अनेको क्रोध देखने छथि।
अनुभवी छथि। कनी फड़िक्केसँ थर्मामीटर लगा काकी काकाक रोग नपए लगलीह। मुदा पुरना
थर्मामीटरसँ तँ पुरना रोग परेखमे अबैत नवका केना आऔत। सहए भेलनि। ओना सोमन काका
अपने ठकमुड़ाए गेल रहथि जे एना किअए भेल? मुदा तैयो घुरनी
काकी बीख उतारैतक मंत्र चलौलनि-
“बेसी भीड़ भऽ गेल। मन थीर कऽ कऽ नहा-खा लिअ। खा कऽ जखन अराम
करब तखन अपने मन चेन भऽ जाएत।”
काकीक खट-मधुर गप सोमन काकाकेँ आरो अमता देलकनि। झटकीक
झटका जकाँ झटहा झटकि देलखिन-
“जअ-तिल आनि उसरैग दिअ। हमहूँ अहाँकेँ उसरैग दइ छी। कोन
भाँजमे अनेरे पड़ल छी। जइठाम द्रौपदीसँ लऽ कऽ रघू बाबू धरि कुरसी जमौने छथि।
तइठाम पार पाएब असान छै।”
~
हूसि गेल
भोज खा बाबा अबिते रहथि कि पोता-रमचेलबा मन पड़लनि।
तखने देखलनि जे तीमन-तरकारीक मोटरी माथपर नेने दछिनसँ अबैत अछि। मन सहमि गेलनि
जे सभ दिन पोताकेँ संग नेने जाइ छलौं, आ.....। लगले मनमे एलनि
जे जे पूत हरि बाहि करए गेल, देव-पितर सभसँ गेल। तइ बीच
हाथमे लोटा देखि रमचेलबा पूछि देलकनि-
“कतए गेल छेलह बाबा हौ?”
बाबा अवाक भऽ गेला। मुदा, आब तँ ओहए सभ ने
करत तँए अनुकूल बना राखब जरूरी अछि। निधोख कहलखिन-
“बौआ, तूँ हाटपर गेलह, इमहर विजो भऽ गेलै, तँए कि करितौं?”
जहिना निधोख
बाबा बजलाह तहिना रमचेलबा बाजल-
“बनलह किने?”
बाबाकेँ मन पड़ि गेलनि। पूर्वांचलक मणीपुरी भोज; जइमे जे वस्तु जते नीक रहै छै ओ ओते पहिने परोसि खुआ दइ छथि। मुदा
अपना ऐठाम तँ अन्नकेँ अन्न बुझनिहार आगूमे आएल पहिल अन्नक पूजा करत। बाबा बजलाह-
“बौआ, नीक भेलौ जे तों नै गेलेँ।”
अपन बात सुनि रमचेलबा बाजल-
“से कि हौ?”
अनुकूल होइत रमचेलबाकेँ देखि बाबा कहलखिन-
“धुर हूसा गेल।”
अकचकाइत रमचेलबा बाजल-
“से कि हौ?”
“कि कहबौ, भात-दालि बड़ पवित्र बनल छलै,
तइपर अल्लू-परोरक तरकारी तेहेन बनल छलै जे देखिये कऽ मन हिलसि गेल।
खूब खेलौं। तेकर बाद जे नीक-नीक विन्यास सभ अबै लगल, ओकरा
दिस के ताकैत।”
“तब तँ खूब बनलह?”
“अपूछ भऽ गेल।”
~
पोखला कटहर
पान सए रूपैआ खर्च भेला पछाति झबरी काकीकेँ आधा छूटपर एक
हजार रूपैआ बैंकसँ लोन भेटलनि। अखन धरिक जिनगी बोनि-बुत्ताक रहलनि तँए ओहन
रोजगार चाहैत रहथि जे कए सकथि। ओना घरे लग रोजगरिनी सभ छन्हि मुदा जातिक विभाजन
काजेाकेँ कम सक्कत विभाजिन नै केने अछि। तँए लगमे रहितो अनाड़ीक-अनाड़िये
झबड़ी काकी। मुदा पुछबो केकरा करथिन। एक हजार रूपैआक बात अछि। के केना झपटि
लेतनि तेकर ठीक नै।
काकीक घरक आगू रस्तापर
देने श्याम जाइत रहथि हुनका देखिते काकी टोकि देलखिन-
“बौआ सियाम, तोहीं सभ ने बेटा-भातीज
भेलह। रोजगार करैले एक हजार रूपैआ लोन देलक हेन।”
झबड़ी काकीक बात
सुनि श्याम नजरि खिरौलनि। बगलेमे देखि कहलखिन-
“पचहीवालीकेँ सोर पाड़ियौ।”
पचहीवालीकेँ अबिते श्याम कहलखिन-
“भौजी, अहाँ अपना संगे तरकारी बेचैक लूरि
सिखा दिऔ। अपनो किछु पूँजी भइये गेलनि। एेबेर तत्ते आम फड़ल अछि जे कटहरकेँ
के पूछत। ओना बेसी फड़ने पौखुलाहे कटहर बेसी अछि मुदा चौथाइ कमाइ लऽ कऽ बेचि लिअ।”
~
सरही सौबजा
दिन भरि सात गोटेक संग झंझरपुरिया-बेपारी आम तोड़ि,
काँच-पाकल, फुटल बेरा टोकड़ी बना,
ट्रकक प्रतिक्षामे टहलैत गामक चाहक दोकानपर आबि अनेरे बजैत-
“एहेन ठकान जिनगीमे नै ठकाएल
छलौं, जेहेन आइ ठकेलौं?”
चाहे दोकानक छर्ड़ा बूझि आनो-आन छर्ड़ा छोड़ैत-
“झंझरपुरिया तँ इलाकाकेँ ठकैए, ओकरा ठकि
लेत हमर गौआँ?”
बेपारियोकेँ मनमे किछु रहै तँए पाछू हटैले तैयार नै।
बत-कटौवलि एहेन चलि गेल जे ने एकोटा ऐ गामक नीक अछि आ ने झंझरपुरिया। बोलीक
मारि तँ धुड़-झाड़ होइत, मुदा आगू बढ़ैक साहस कियो ने करए। एकटा
गामक प्रतिष्ठा बूझि दोसर घोड़न-कटान बूिझ।
ओना चौकक रोहानी
ठीक रहै किएक तँ सूर्यास्तक समए रहए। जटा भाय चौकक रोहानी देखिते चाहे दोकानपर
बैसलाह। सामाजिक प्रश्न तँए हस्तक्षेप कएल जा सकै छै। बजलाह-
“कथीक घोंघाउज छी?”
झंझारपुरबला-बेपारी- “अहीं गाममे लखनजी सँ पाँच
हजारमे सौबजा आमक एकटा गाछ नेने छलौं तइमे ठकि लेलनि।”
अपन चर्च सुनि
लखनजी सेहो मोबाइलिक दोकानपर सँ चाहक दोकानक आगूमे आबि ठाढ़ भेला। बेपारीक
प्रश्न उठिते लखनजी पुछलखिन-
“कि ठकि लेलौं, बाजू।”
बेपारी- “कलमी बूझि नेने छलौं, सरही दऽ ठकि लेलौं?
लखनजी- “कत्तेमे नेने छलौं कत्ते के आम भेल?”
“से तँ नफगर अछि, पाँच हजारमे नेने छलौं।
खर्च-बर्च काटि कहुना पाँच हजार बचबे करत?”
जटा भाय- “तखन जे एना बजै छी से उचित भेल?”
बेपारी- “हमर बात दोसर अछि। सौबजा कलमी होइ
छै। हिनकर अॅठिआहा छियनि, माने सरही छियनि। ओना
साइजोमे ठीक छन्हि।”
जटा भाय- “अहाँ केना बुझै छी जे मुँह-नाक एक रहितो
सरही छी?”
बेपारी- “जटा काका, अहूँ
भासि जाइ छी। कहुना भेलौं तँ बेपारी भेलौं कि ने। कुमारि-बिऔहितीक भाँज जँ नै
बुझबै तँ घटकैती कएल हएत।”
~
तेरहो करम
अबेर कऽ भाँज लगने कनटीर काका खेत देखए नै गेला। ओना मनमे
उठलनि मुदा भदवारि जानि नै गेला। विचारि लेलनि जे इजोरिया छीहे भोरगरे देखि
लेब।
छगाएल मन साढ़े
तीनिये बजे नीन टूटि गेलनि। नीन टुटिते नजरि दौड़ कऽ काज पकड़ि लेलकनि।
तीन-हत्थी ठेंगा लऽ बाध दिस विदा भेलाह।
श्रीविधि
खेती लेल जे धानक बीआ भेटल छलनि वएह धान। रौदीक किरतबे विधि तँ भंग भऽ गेलनि
मुदा सए रूपैये घंटा पटा बीघा भरि खेती केलनि। संयोगो नीक बैसलनि। कोसी नहरिक
पहिल पानि हाथ लगने सुतरलनि।
नबे दिनक पाकल
धानमे भरि जाँघ पानि, चुट्टी-पीपड़ीसँ लदल सीस देखि कनटीर
काकाक मन चोटसँ चोटाए लगलनि। असहाज होइते बमछैत घर दिस घूमि गेलाह। मोहनलालक घर
लग अबिते आरो बमकि-बमकि बमछी छोड़ए लगलाह। आँखि मीड़िते मोहनलाल अंागनसँ निकलि
लगमे आबि पुछलकनि-
“काका, एना किअए भोरे-भोर बमकै छिऐ?”
ओना कनटीर काका आ मोहनलालक उमेरक दूरी
बीस बर्खसँ बेसी हटल मुदा विचारक दूरी लगीच बनौने तँए दुनूक बात दुनू सुनबो करै
छथि, कहबो करै छथिन आ मानवो तँ करिते छथि।
बमकी सुनि कनटीर काका ठमकि गेला। ठमकैत
बजला-
“की कहियऽ बौआ, परसू
धान काटि तोड़ बागु करैक विचार केने छलौं। तोहूँ तँ खेती करिते छह, तोहीं कहह जे धानक-नारक कि गति हएत, छनुआमे कते
भीड़ होइ छै से कि कोनो नै बुझै छहक। तइपर कहिया खेतक पानि सूखत आ कि फेर
दोहरा कऽ पानि औत तेकर कोन ठेकान छै?”
कनटीर काकाक दहलाइत छातीकेँ खढ़ फेक
असथिर करैक विचार मनमे उठिते मोहनलाल बाजल-
“डुमैक कोन अाशा करै छी उगैक आस करू।”
मोहनलालक तोष जते संतोष देलकनि तइसँ
बेसी असंतोष बनौलकनि। मनमे एलनि जे एक तँ ठेकानि कऽ नहरक पानि नै अबैए तइपर जे
छहरक बान्ह-छेक नियमित नै अछि। सरकार कहत जे कानून अपना हाथमे नै लिअ। बजलाह-
“एको कर्म बाकी नै रहत। तेरहो कर्म
भइये जाएत। सबहक नजरि दैछने खाइपर लटकल छै से केना उतरतै?”
मोहनलाल- “काका, कूदै-फानै तोड़ै तान, से राखए दुनियाँक मान’
बिसरि गेलऐ?”
किछु मन पाड़ैत कनटीर काका बजलाह-
“हौ छोड़ियो केना देब, अकाल मृत्यु केना
हुअए देब।”
~
डुमैत िजनगी
डुमैत कारोबार देखि झड़ीलाल डुमैत जिनगी, जहिना ओछाइनपर पड़ल चारक कोरो-बत्ती लोक देखैत तहिना देखि रहल छथि।
तड़पैत मन बेथित भऽ दुनियाँ निहारिते बुदबुदेलनि-
“एतेटा दुनियाँमे अपन किछु ने रहल।”
मुदा लगले मन ठमकि गेलनि। जिनगी तँ परती खेत जकाँ नै अछि
जे जेमहरसँ तेमहर जेबाक हुअए तिम्हरे-सँ-तिम्हर कोना-कोनाी रस्ता बना लिअ।
जिनगीक तँ नाप अछि।
ओना पचास बर्खक
झड़ीलाल अखन धरि हारि मानैले तैयार नै छलाह मुदा एकाएक मृत्युक समीप देखि
थर-थरा गेलाह। हारि नै मानैक कारण छलनि जे जे गौरव गाममे केकरो नै देखैत छलाह ओ
अपनामे देखैत छलाह। ओ छियनि समैया फसिल जकाँ भिन्न-भिन्न नाओं। अनेको नाओंसँ
अपन प्रतिष्ठा बनौने छथि। कियो बेपारी भाय, तँ कियो
डाक्टर भाय, कियो दिलीप भाय कहैत छन्हि। मुदा स्त्रीगणक
बीच झड़-झड़हा नाओं चलैत। यएह छलनि झड़ीलालक जिनगीक मान-प्रतिष्ठा। मुदा जे
होउ झड़ीलाल अपनाकेँ मेहनती बेपारी जरूर बुझै छथि।
सालमे तीन-चारि
जोड़ मुइल-टुटल बड़द (गाड़ीक टुटल, घास-पानिक टुटल, रोगाएल इत्यादि) सस्तामे आनि, दुनू परानी जमि
कऽ सेवा करै छथि आ डेढ़िया-दोबरमे बेचि अपना जीविकाक आधार बनौने छथि। घूमै-फिड़ैबला
छथिये तँए तीनू बेटीक बिआह एहेन नजरिये कऽ नेने रहथि, जे
कहियो भार नै बुझलनि।
अंतिम खेप माने ऐ
खेपमे ठका गेलाह। आठे दिन खूँटापर बड़द अनला भेलनि कि पाँचे दिनक बीच जोड़ो
भरि बड़द मरि गेलनि।
खूँटापर पड़ल मरल
बड़द लग बैसल दुनू परानी झड़ीलाल। अक-वक बन्न। तरसैत मन कलपैत देवसुनरिक, जहिना रौद, पानि वा शीतमे सिताएल चिड़ै पाँखि
फड़फड़बैत; तहिना मन फुड़फुड़ेलनि-
“भगवान हाथक काज छीन लेलनि?”
पत्नीक बातक उत्तर झड़ीलालकेँ नै फुड़लनि। फुड़बो केना करितनि,
जिनगीमे कहियो पहरनियाँ देवीक पूजा पहाड़पर चढ़ि नै केने छलाह। मुदा तैयो
घिंघियाइत स्पष्ट उत्तर देलखिन-
“दुनियाँ बड़ीटा छै, एकटा काज छिनाएल
दोसर-तेसर-चारिम ताकि लेब।”
पतिक उत्तरसँ देवसुनरिकेँ झॅपन-तोपन बरसाती सूर्य जकाँ
अाशाक किरण फुटलनि, मुदा लगले फेर तोपा गेलनि। बजली-
“काज ले तँ लूरि चाही, से....?”
~
चोर-सिपाही
चोरिक बाढ़ि एने गामे-गाम चोरक सोहरी लगि गेल। जहिना
घोरन लुधैक जाइत तहिना चोरो लुधकए लगल। सेहो एकरंगा नै,
सतरंगा! पाँखिसँ बिनु पॉखिबला घोरने जकाँ घुड़छा-घुड़छे! जेकर बहुमत तेकर राज-पाट! शासक-सँ-सिपाही धरि।
अगहन मास। गामक अधासँ ऊपर उपजल धानक
खेतमे १४४ लगि गेल। कोनो बटेदारीक चलैत तँ कोनो फटेदारीक। सरकारियो काज तँ
सरकारिये छी। एक घंटाक काज मासो दिनमे हएत तेकर कोनो गारंटी नै। तखैन १४४ मे जप्त
भेल खेत ४४ दिनक बदला ४४ मासो रहि सकैए।
ओस पला गेल। दिन खिआ कऽ पानि भऽ गेल।
दिन-राति शीतलहरिमे डूमि गेल। दर्जनो भरि सिपाही धानक ओगरबाहि करैत। अपना
जिनगी दिस तकलक तँ बूझि पड़लै जे जान बँचब कठिन अछि।
एक बाजल- “खस्सी मासु खेबा जोगर समए अछि।”
दोसर बाजल- “जँ बनबैले तैयार होय तँ
खस्सी आनि देब।”
सएह भेल। दूटा सिपाही विदा भेल। हाथमे हथियारो आ देहमे
बर्दियो रहबे करै। दिनके देखल खस्सियो आ घरो छेलैहे। अपने जकाँ एक गोटे मुँह
दबलक दोसर उठा कऽ लऽ अनलक।
बना-शोना सभ भरि मन खेलक। मुदा दोसरे दिनसँ दुनू गोटेकेँ
आन-आन सिपाही चोरबा कहए लगल।
सालो नै लगल ग्लानिसँ गड़ि दुनू नोकरी
छोड़ि अपन पुरना वृतिमे लगि गेल। एक समाज चोर-सिपाही तँ दोसर समाज सिपाही-चोर
कहए लगलै।
~
दूधबला
फगुआक समए। पीह-पाहसँ मौसमक रंग चढ़ि रहल छै। दिनुका काज
उसारि नित्यानन्द काका दरबज्जापर बैस सालक फगुआक ऊपर-निच्चा विचारि रहला अछि। जाड़सँ गरमीक प्रवेश
भऽ रहल अछि। ठाढ़ पानिकेँ इनहोराइले ठंढ मारि तँ सिरसिसाइये पड़तै। जँ से नै
तँ इनहोराएत केना। मुदा तेहेन दोखाह दोरस हवा बहि गेल जे सोझ बाट (नीक रस्ता)
बालु-गरदासँ अन्हरा कऽ तेहेन बहबाड़ि बनि रहल अछि जे भरि मुँह बाजब कठिन बनल
जा रहल अछि।
सूर्यास्त तँ
भऽ गेल मुदा अन्हराएल नै छलैक। मोटर साइकिलसँ उतरि मनोहर नित्यानन्द काकाकेँ
प्रणाम करैत आगूक चौकीपर बैसल।
किछु दिन पूर्व
धरि नित्यानन्द काका मनोहरकेँ दूधबेचा बुझैत छलाह। मुदा पनरह-बीस दिन पहिने
शंका जगलनि से जगले रहि गेलनि। जइसँ विचार बदलए लगल छलनि। मुदा कोनो विचारकेँ
बदलैसँ पहिने ऊपर-निच्चा देख लेब जरूरी बूझि पुछलखिन-
“कारोबारक की हाल छह?”
नित्यानन्द काकाक उत्तर दइसँ पहिने मनोहरक मनमे आएल जे
जखन फगुआक सनेस अनने छियनि तखन आगूमे रखैमे काेन लाज। अनेरे साँइक नाओं सभ जानए
आ हए-हए करए। जुगोक तँ धर्म होइ छै। के भंगखौका शराब नै पीबैत अछि। ओ सभ तँ
नशोकेँ पानि उतारि देने अछि। भाय जखन एकटा प्रेमी अछि तखन तँ जिनगी भरि
प्रेम करू नै तँ पुरुखक आँखिसँ गीरब ओते महत नै रखै छै जते मौगीक आँखिसँ। मुदा
अपनाकेँ सम्हारि विचार लेब जरूरी बूझि बाजल-
“काका, आइक जुगमे दूध बेचने गुजर चलत,
तखन तँ...?”
नित्यानन्द काकाकेँ ठहकि गेलनि। मुदा तेयौ मन नै
मानलकनि बजलाह-
“कते गोटे गाममे दूधबेचा छह?”
गर पाबि मनोहर बाजल-
“काका, आब कि काेनो गाइये-महिसिक दूध
बिकाइए। गाछसँ लऽ कऽ लोहा धरिक दूध बिकाइए। कतेक नाओं कहब। जेम्हरे देखै छी
तेम्हरे सएह।”
सएह केर सह पाबि नित्यानन्द काका हूँहकारी दैत बजलाह-
“से सएह।”
~
टाइपिस्ट
पच्चीस बर्ख पूर्व मैट्रिक सेकेण्ड डिवीजनसँ पास केलौं।
ने नोकरी भेल आ ने लोकक पीहकारी दुआरे खेती केलौं। शत-प्रतिशत अपनाकेँ भारत
सरकारक बेरोजगारक बहीमे नाअाें लिखा लेलौं।
भरि दिन
गप-लड़ौनाइसँ लऽ कऽ ताश जोतै धरिक रूटिंग बना लेलौं। किछु दिन पछाति बूझि
पड़ल जे भरिसक हमरा सबहक फाइल लाल-फीताक तरमे पड़ि गेल। अोना पाँच बर्ख रेगुलर
बेरोजगार रहलौं, मुदा एक दिन तामस उठल नवीकरण करौनाइ छोड़ि
देलौं। तेकर बाद कोन बेरोजगार भेलौं तेकर अर्थ नहिये तहिया लागल आ ने अखनो बुझै
छी। जेकर खर्च लाख रूपैआ, उपजे सबा सेर!
देबएबला भगवान छथि, लगौता कोनो फेर। सबूर तँ भेल मुदा मन नै मानलक। तखन भेल जे किछु करक
चाही। ओना मन तँ छह-पाँच केलक मुदा टाइप-राइटिंग मशीन कीनैक विचार भेल। कीनलौं।
टाइपिस्ट बनि अपनाकेँ ठाढ़ देखलौं। ओना बजारक भावे ठीके छी।
आब कहू जे एहनो
होइ जे जते कागज-पत्तर टाइप करब से गणेशजी जकाँ बूझबो अनिवार्य अछि। आकि टाइप
करैक पाइ लइ छिऐ, टाइप कऽ देबइ। जँ केतौ छुटो-छाट हेतै आकि
शब्दो गलती हेतै, से दोख मशीनक हेतै आकि हमर हएत? कहू जे केहेन बूड़िपना सोहनक भेल जे पुछलनि-
“कागजमे कि सभ छलै?”
सोहन इंजीनियरिंग
पढ़ि बंगलोरमे काजरत छथि। बिआही पत्नी शिक्षिका छथिन। कनिये तरपट ई छन्हि
जे एक गोटे बंगलोरमे छथि दोसर गाममे। ओना सोहनोक सोचब गलती नै भेलनि। कमेता
बंगलोरमे रहता बंगलोरमे आ घरवाली रहथिन गामक घरमे से केहेन हएत। जिनगीक तँ स्तर
होइ छै।
शिक्षिका
पत्नी थूक फेक अनठबैत एली जे अपने कि कोनो नै कमाइ छी जे एहेन छुतहरक कमाएल खाएब।
मुदा संगी-तुरिया पीठपोहू भेलनि। दुनू बेकतीक भेद न्यायालय पहुँचि गेल। ओही
कागजक कच्चा नकलक बात सोहन पुछने छलाह।
~
समदाही
अनुप काकाकेँ दूटा पत्नी छन्हि। गृहस्ती जीविका रहने
तीनू परानी अपन-काजमे दिन-राति मगन रहै छथि। दुपहरिये रातिसँ मालक तकतियान
अनुप काका करए लगै छथि। सभ दिन संग रहितो जहिना दिन-राति बारहो मास घुसुकि-घुसुकि
अपन काज करैत रहैए तहिना तीनू परानीक बीच सेहो होइते छन्हि। मुदा जहिना लोकक
धियान दिन-रातिपर नै पड़ैत छैक तहिना अनुपो काकाक धियान नै पड़ैत छन्हि।
हमरा खेलासँ काज तँ हमरा पीलासँ काज, बस एतबे।
समए केकरा संग
छोड़ै छै जे अनुप काकाकेँ छोड़तनि। जखने अधरतियामे उठताह आकि मुँह-हाथ धोइते
पहिने चाह पीता। जहिना कतौ चलैसँ पहिने माए अपन बच्चाकेँ खुअबैत अछि तहिना
अनुपो काकाकेँ दुनू सौतिन करिते छन्हि। ओना नियमित काज बाँटल दुनू सौतिनमे
नहिये छन्हि, नजरियेसँ बाँटि-बाँटि काज करै छथि तँए
ने कहियो उपराँउज होइ छन्हि आ ने बैसारी बूझि पड़ै छन्हि।
दू बजे रातिमे
चाह पियाएब, तोहूमे जाड़क मासमे से अबूह तँ दुनू सौतिनकेँ
लगबे करनि। केतबो पति सुख लोककेँ भेटौ मुदा जाड़ोक तँ अपन सुख छै। मुदा थर्मसमे
चाह बना पति सेवा दुनू कऽ लैत छथि। काजो असान भऽ जाइ छन्हि। एतबे ने जे
थर्मससँ गिलासमे ढारि दिअ पड़ै छन्हि। काजक बँटबारा नै रहने कहियो बिआही तँ
कहियो समदाही पिअबैत रहै छन्हि। काज करैक ढंग दुनूकेँ अपन-अपन छन्हि। बिआही
गिलास धो उनटा कऽ रखै छथि, जखन कि धोइ दुआरे समदाही गिलासेमे
पानि रखि दइ छथिन।
चाहक सुआद पबिते
अनुप काका बूझि जाइ छथि जे केकर िकरदानी छी मुदा कहबो केकरा करथिन। कोनो आंगुर
कटने अपने घाव। तहूमे सौतिनियाँ डाह, घरेसँ सड़ेरा उठत।
तहूमे खेती-पथारीले नै, खाइ-पीबैले!
भरि दिन अनेरे मगजमारीमे ओझरा जाएब। तइसँ नीक चुपे रहब।
करसीक लहलहाइत घूर
लग बैसिते बिआही चाह नेने एलखिन। चुस्की लइते अनुप काकाकेँ बजा गेलनि-
“हँ, औझका चाह चाह जकाँ लगैए किने!”
बजलाह तँ अनुप काका फुसफुसाइये कऽ मुदा समदाही सुनि गेलखिन।
फरिक्कैसँ जुमा कऽ फेकलनि-
“बड़ काग भाषा सुनिनिहारि भेल छथि।”
~
बुढ़िया दादी
नै जानि दादीकेँ एहेन क्रोध किअए भऽ गेलनि। एक तँ ओहुना
बैशाख-जेठक सुखाएल जारनि चरचराइत रहैए, खढ़क छाड़ल-छार पटपटाइत
रहैए, तइ हिसाबे दादीयोक खटखटाएब अनुकूले भेल। दादी माने
तीन पीढ़ी ऊपर नै कि गामक बनौआ दादी। नवो-नौताड़ि बनौआ दादी होइते छथि, उचितो छैक।
आठ-दस बर्खक पोता अपन कुत्ताकेँ अनठियासँ
लड़ा देलक जइसँ कोनचरक सजमनिक गाछ टूटि गेलनि, तेकरे तामस
दादीकेँ पोतापर रहनि। जखन टुटलनि तखन बाधमे रहथि तँए नै देखलखिन। तखन ततबे,
कुत्तेक झगड़ा भरि।
बारह बजे बाधसँ अबिते, जहिना हजारो चेहराक बीच प्रेमीक नजरि प्रेमिकापर जा अँटकैत, तहिना दादीक नजरि सजमनिक गाछपर पहुँचि गेलनि। लटुआएल-पटुआएल पड़ल
देखलखिन। नरसिंह तेज भेलनि, मुदा परिवारक सभ गबदी मारि
देलक। तँए अधडरेड़ेपर तामस अँटकि गेलनि। जँ अकासक पानिकेँ धरती नै रोकए तँ पताल
जाइमे देरी लगतै?
दोसरि साँझ जखन बाधसँ घूमि कऽ दादी
एलीह तँ नीक जकाँ भाँज लगि गेलनि जे पोताक किरदानीसँ गाछ नोकसान भेल। तामस
लहड़ए लगलनि। छौड़ाकेँ सोर पाड़लखिन-
“अगतिया छेँ रौ, रौ अगतिया?”
नाओं बदलल बूझि गोविन्दोकेँ अवसर
भेटलै। अन्हारे गरे चौकी-दोगमे नुका रहल। अपने फुड़ने दादी भट-भटाए लगली-
“भरि दिन छौड़ा एम्हर-सँ-ओम्हर
ढहनाइत रहैए आ कुत्ता-विलाइ तकने घुड़ैए।” मुदा लगले मन
ठमकि गेलनि। भरिसक अंगनामे नै अछि, खाइ-बेर भेल जाइ छै, कतए छिछिआइ ले गेल अखन धरि अंगनामे नै अछि। पुतोहुकेँ पुछलखनि-
“कनियाँ, बौआ कहाँ अछि।”
बेटाकेँ अपन जान सुरक्षित बूझि पुतोहु बजली-
“बड़ी कालसँ नै देखलिऐ।”
पोताकेँ तकैले बुढ़िया दादी विदा भेली।
सुतै बेर गोविन्दा अलिसाएल आबि
दादीकेँ कहलक-
“दादी बिछान बीछा दे।”
गोविन्दक बात सुनि दादी पिघलि गेली। ओछाइन ओछा कऽ सुता
देलखिन। सेन्धपर पकड़ल चोर जकाँ, तामस फेर कड़ुआ गेलनि।
मुदा निनियाँ देवीक कोरामे देखि क्रोध घोंटए लगली। अखन छोड़ि दइ छिऐ, भोरहरबामे पेशाब करैले उठेबे ने करत। बुझतै केहेन होइ छै सजमनिक गाछ
तोड़नाइ। जाबे सभ करम नै कराएब ताबे चालि नै छुटतै।
भाेरहरबामे गोविन्द दादीकेँ उठबैत बाजल-
“दादी-दादी।”
दादी गबदी मारैक विचार केलनि। मुदा तीन
बेरक बाद तँ गरियेबे करत, तइसँ नीक जे तेसर हाकमे अपने बाजि देबइ।
की हेतै, एकटा सजमनियेँक गाछ ने टुटल। फेर रोपि लेब।
~
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