बालानां कृते
जगदीश
प्रसाद मण्डल
बाल उपन्यास
नै धाड़ैए
१
मैट्रीक परीक्षासँ तीन मास पूब कोठरीमे बैस राधामोहन अपन
दिन-दुनियाँक सम्बन्धमे सोचैत रहए। ओना परीक्षाक तैयारी लेल बैस पढ़ैत रहए मुदा
किछु समए पछाति जखन पढैसँ मन उचटि गेलै तखन जिनगीक बात उठलै। परीक्षाक फारम भरला
पछाति स्कूल आएब-जाएब बन्न भऽ गेल छलै। रंग-रंगक विचार मनमे उठए लगलै मुदा बरखा
पानिक बुलबुला जकाँ विचार उठै आ फूटि जाइ। कोनो असथिर विचार ने मनमे उठै आ ने
अॅटकैत रहै। कोनो विचारकेँ ने ठीकसँ पकड़ि पबैत आ ने सोचि पबैत। किछु समए पछाति
असथिर कऽ अपन भूत-भविष्यपर नजरि अॅटका गौर करए लगल तँ तीन तरहक विचार अभरलै। ओ ई
जे अखन धरि साले-साल स्कूल परीक्षा स्कूलेमे होइतो रहल आ आगूओ बढ़ैत गेलै। मुदा आब
तँ से नै हएत। सरकारी देखा-रेखमे परीक्षो हएत आ रिजल्टो निकलत। जँ फेल करब तँ
दोहरा कऽ फेर अगिला साल परीक्षा दिअ पड़त आ जँ पास करब तँ आगू...? आगू तँ पढ़ि नै पएब। जँ पढ़ि नै पएब तखान की करब?
साधारण चारि बीघा जमीनबला परिवारक
राधामोहन। चारि बीघा माने अस्सी कट्ठा। अस्सी कट्ठा माने सोलह सए धूर। दुनियाँ
मानचित्रमे भिन्न-भिन्न देश आ भिन्न-भिन्न जमीनक महत। जँ जापानक बेस किमती तँ
साइबेरियाक से नै। मुदा मनुष्य तँ दुनूठाम अछिये आ रहबे करत। खैर जे होउ, ने जापानक चर्च भऽ रहल अछि आ ने साइबेरियाक। चर्च तँ मिथिलांचलक भऽ रहल
अछि तँए मिथिलांचलक जमीन देखए पड़त। सबहक जिनगियो सभ रंगक।
पेइतालीस बर्ख अबिते-अबिते राधामोहनक
पिता नन्दलाल पूर्ण रोगी बनि चुकल छला। तीन बर्ख पूर्व धड़िक जिनगी जखन नन्दलालक
मनमे आबनि तँ अपनो नै बिसवास होन्हि जे हमहूँ जोड़ा बरदबला किसान छलौं, आ मस्तीक किसानी जिनगी बितबै छलौं जइ साल सुभ्यस्त समए होइ छलै तइ साल
जेहने घरक कोठी भरैत छल तेहने पोखरिक महारपर नारक टाल लगबै छलौं। मुदा आब ओहन
दिन-दुनियाँ थोड़े देखब। अछैते खेते थोड़े हएत। करबो के करत, जखन केनिहारे नै तखन हएत केना। दुनियाँक माटि-पानि तँ सभ दिनसँ रहलै आ सभ
दिन रहत। मुदा जइ समए जेहेन मनुष्य रहत तइ समए दुनियाँक रंगो-रूप तँ ओहने रहत
किने।
जाधरि नन्दलालक शरीरमे रोगक आगमन नै भेल
छलनि तइसँ पूर्व दुनू परानी अपन खेत-पथारमे, कहियो गरदामे तँ कहियो
थालमे लेटाइत रहैत छला। काजक एहेन सूत्र बनल छलनि जे आगू-पाछू सोचै-विचारैक बात
मनमे उठबे ने करनि। ओना साले-साल ब्रह्मस्थानक भागवतमे कातिक मास सुनैत छला जे
जिनगी क्षणभंगुर छी, तँए समैकेँ बिना गमौने समर्पित भऽ किछु
कऽ ली, मुदा से भागवते धरि मन रहैत छलनि। भरि पेट भोजन
भेटिये जाइत छलनि तँए ने घटवी बाट मनमे उठैत छलनि आ ने दुआर-दरबज्जा भरल देखैत
छलाह जइसँ बढ़ती बात उठैत छलनि। भागवतोकेँ धार्मस्थानक धर्मक बात बूझि घर्मस्थानमे
सुनि लइत छलाह। गामपर अबिते घरक चक्कीमे जुइट जाइत छला। अपन खेत, अपने केनिहार तँए अपना मनोनुकूल खेती-गिरहस्ती करैत छला। जइ वस्तुक जते
जरुरति अछि, पहिने ओते पुरा लेब तखने ने अनका दिस तकबै। जँ
से नै ताकब तँ आँखिक खच्चरपन्नीसँ अनके सभ किछु देखैत रहब आ अपन देखबे ने करब।
नन्दलालक विशाल रूप जहिना बुधनी देखैत
तहिना बुधनीक विशाल रूप नन्दलाल देखैत। कोठरीक राधा-रानीक जिनगी नै विशाल दुनियाँक
मंचपर नट-नटी बनि दुनू-परानी कखनो खेतक गोला कोदारिसँ फोड़ैत, तँ कखनो संग मिलि धान रोपैत। कखनो माल-जालक थइर-गोबर करैत, तँ कखनो इच्छानुसार खाइ-पीऐक ओरियान करैत। जिनगीक लीला तँए लजाइ-धकाइक
प्रश्ने नै।
तीन सालक बीच नन्दलाल तेना-रोगा गेला जे
मन मानि लेलकनि जे आब नै जीब। चल-चलौक बाटपर आबि गेलौं। मुदा एते दिन तँ अही
समाजमे समाज बनि जिनगी गुदस केलौं, नै किछु अनकर केलिऐ,
तँ केकरो भारो तँ नै बनलिऐ। मेहक बड़द
जकाँ किसानक संग खेत-पथारमे बहबे केलिऐ। तइ बीच ठेहुनक गीरह कचकि उठलनि। कचकि एतेक
जोरसँ गेलनि जे बूझि पड़लनि सौंसे देहक शाक्तिकेँ छिन्न-भिन्न कऽ देत। मुदा ई तँ
भेल देहक रोग, मनकेँ तइसँ कोन मतलब। ओकर तँ अपन सभ किछु छै।
मुदा शरीरक दर्दक पीड़ाक कष्ट तँ प्रभावित कइये देने रहै। पीड़ाएल मन, शरीरक बेथा देखि हाँइ-हाँइ अपन बोरिया-विस्तर समेटैत बुद-बुदाएल- “जखन दुनियाँ छोड़िये रहल छी तखन किअए ने अंतिम बात कहिये दिऐ जे, भाय जे केलियह से खेलियह, किछु जमा तँ रहल नै जे
देने जेबह। एकरा गल्ती बूझि छोड़ि दाए आकि जवाबदेही बूझि दोरिका छाप दऽ दाए।”
नन्दलाल ऐठाम पंडाक बगे बनौने एक गोटे
एला। बम्बैया सम्पन्न मंचक कलाकार जकाँ बनल-ठनल चेहरा रहनि। नन्दलालक दरबज्जापर
अबिते कामरूप कामाख्याक शंख फूकि घरवारीकेँ सूचना देलखिन।
दरबज्जापर आएल अभ्यागतक आगमन बूझि बाड़ीसँ नन्दलाल आ आंगनसँ
बुधनी पंडाजीक आगूमे उपस्थित भेला। देव रूप देखि नन्दलाल ओसारक चौकीकेँ देह परक
तौनीसँ झाड़ि-झूड़ि बैसैक आग्रह केलखिन। दरबज्जापर आएल अभ्यागतक सेवा करब किसानी
संस्कारक मुख्य अंग अदौसँ रहल अछि।
बैसिते पंडाजी जोगी-फकीर जकाँ अपने बड़बड़ाए लगलाह- “ऐ
जमीनक भाग कहै छै जे साक्षात लछमीक बास छी, जे दोबर-चारिबर
गतिये परिवार आगू मुहेँ बढ़त, मुदा?”
लछमीक बास सुनि दुनू परानी नन्दलालक मनमे खुशीक ज्वार
उठलनि। मुदा एकभग्गू बोल पंडाजीक रहनि। ओ ई जे जते प्रशंसा बुधनीक केने रहथिन तते
नन्दलालक नै। जइसँ नन्दलालक मनमे किछु अनोन-विसनोन जरूर भेलनि, मुदा पत्नियोँ तँ आन नहियेँ छथि, विचारकेँ दबलनि।
पंडाजी हाथक रेखा देखबाक विचार व्यक्त केलनि। हाथक रेखा सुनि दुनू परानी अपन-अपन
हाथ आगू बढ़ौलनि। चलाक खेलाड़ी जकाँ, जे पहिने दोसरकेँ
खेलबैत पछाति सवारी कसैत तहिना पंडाजी सेहो केलनि। हाथ देखबैसँ पहिने बुधनीक मनमे
उठलनि जे जौं पतिक अछैत मृत्यु भऽ जाइत तँ ओ पत्नी...? मुदा
परोछ भेने...? पत्नीक मन पतिपर एकाग्र भऽ गेलनि। शुभ समाचार
सुनै लेल बुधनी विहुँसैत पंडाजीक आगू हाथ पसारि कहलखिन-
“ई हमर पति छथि, जाबे जीबै छथि ताबे हमहूँ
जीबै छी, तँए जौं केतौ कोनो गड़बड़ होइ से कहि दिअ। समए अछैत
ओकर प्रतिकार करब।”
बुधनीक बात सुनि पंडाजीक मन चपचपा गेलनि। गोटी सुतरैत देखि, चौकीक निच्चा लटकल पएरकेँ समेटि पल्था मारि ऊपर बैसला। बुधनीक हाथ देखि
खुजल आँखि बन्न करैत ठोर पटपटबैत पंडाजी बुदबुदेला। फेर आँखि खोलि चारू दिशा दिस
देखि ऊपर तकलनि। जेना कियो किछु बजैक उत्साहित केलकनि। बजला-
“परिवारक पछुलका गति तँ नीक छल मुदा बीचमे ग्रहक आगमनसँ गड़बड़ा
गेल अछि। ओना अखन धरि तेहेन गड़बड़ नै भेल अछि, जे बूझि पड़त
मुदा आगू जखन जुआ जाएत तखन बुझबै कि देखबो करबै। ओना ऐ घरक साक्षात लछमी अहीं छिऐ,
जइपर अखनो घर ठाढ़ अछि, मुद...?”
आगूमे बैसल नन्दलालक मनमे उठैत जे परिवारक गार्जन हम छी, जौं हमर हस्त-रेखा नीक रहत तँ अनकर अधलो भेने कि हेतै। फेर लगले विचार
बदलए लगलनि जे पत्नियोँ तँ अर्द्धांगिनियेँ होइत छथि तँए हुनको छोड़ब नीक नहियेँ
हएत। पत्नीकेँ कहलखिन-
“पहिने पंडाजी केँ चाह पिअबिअनु। पछाति सभ गप हेतै।”
पतिक बात सुनि बुधनी चाह बनबए गेली। तइ बीच पंडाजी
नन्दलालकेँ पुछलखिन-
“ऐ गाममे देवस्थान कते अछि?”
पंडाजीक प्रश्न नन्दलाल नीक जकाँ नै बूझि सकला। दोहरबैत
पुछलखिन-
“की देवस्थान?”
नन्दलालकेँ अनाड़ी बूझि पंडाजी बजला-
“ब्रह्मस्थान तँ हेबे करत। तेकर बादो महावीरजी, शिवजी, धर्मराज इत्यादि-इत्यादि आरो कते स्थान हएत
किने?”
नन्दलाल- “हँ, से तँ
अछिये। तीनटा महादेव मंदिर अछि, दूटा महावीरजी स्थान अछि,
एकटा धर्मराज, एकटा सलहेस, एकटा ठकुरवाड़ी सेहो अछि।”
तही बीच बुधनी चाह नेने आबि पंडाजीकेँ आ नन्दलालोकेँ देलखिन
एक घोंट चाह पीविते पंडाजी बजला-
“चाह तँ चाहे अछि। बड़ सुन्नर चाह पिएलौं।”
चाह पीब हाथ धोय पंडाजी नन्दलालक दहिना हाथ देखि बजलाह-
“अहाँकेँ तीनटा बिआह आ सातटा सन्तान लिखैए। काएम बिआह छी?”
तीनटा बिआह सुनि बुधनीक मनमे जलनि उठलनि। मुदा किछु बजली नै।
नन्दलाल कहलखिन-
पहिल जे बिआह भेल सएह छी। सन्तानो एकेटा बेटा अछि।”
पाशा पलटैत देखि पंडाजी पुनः हाथक रेखापर अपन आंगुर दैत
बजलाह-
“ई रेखा ऐठामसँ आबि, एकरा काटि देलक। जइसँ
दूटा पत्नियोँ कटि गेल आ छहटा सन्तानो।”
पुनः नन्दलालक हाथ छोड़ि बुधनीक हाथ देखए लगलाह। बुधनीक
हाथक रेखा देखैत बजला-
“पति सुख अहाँकेँ पूर भऽ रहल अछि। किछु दिन आरो अछि। मुदा....?”
पंडाजीक बात सुनि नन्दलालक मनमे उठलनि, भरिसक ई मौगियाहा पंडा छी। मुदा, खएर अखन तँ
दरबज्जापर छथि किछु बाजब उचित नै हएत।
पंडाजी आगू बजला-
“अहाँ पतिकेँ शनिक ग्रहक आगमन भऽ गेल छन्हि, जे अहूँक रेखा इशारा करैए।”
बुधनीक हाथ छोड़ि पुनः नन्दलालक हाथ देखैत बजला-
“अहाँकेँ शनिक ग्रहक आगमन भऽ गेल अछि। अखन तँ शुरूआतीक अवस्थामे
अछि तँए किछु नै बूझि पड़ैए मुदा तीन मास बीतैत-बीतैत उपद्रव शुरू हएत।”
पतिक ग्रह सुनि बुधनी ओहिना तड़पली जहिना कोनो औरत अपन
निर्दोष पतिकेँ सिपाही हाथे जहल जाइत देखैए। तरसैत-तलपैत बुधनी पंडाजीकेँ कहलखिन-
“अपने साक्षात देवता छिऐ। जे चाहबै से हेतै। कोनो धड़ानी हिनका
ग्रहसँ छुटकारा करा दिअनु।”
गोटी लाल होइत देखि पंडाजी बजला-
“केहेन-केहेन राहू-केतुकेँ तँ जिनगीमे भगा चुकल छी आ ई कोन
माल-मे-माल अछि। एकरा तँ छन-पलकमे कतए-सँ-कतए दऽ आएब तेकर ठीक नै।”
पंडाजीक बात सुनि दुनू परानी बुधनी-नन्दलालकेँ जान-मे-जान
आएल। बुधनी बाजलि-
“खर्च-बर्चक चिन्ता नै, मुदा काज पक्का
होय।”
घूसक मोट रकम देखि जहिना घूसखोरक मन चपचपा जाइत तहिना पंडा
जीक भेलनि। बजला-
“देखियौ, ऐ काजक लेल अनुष्ठान करए पड़ै
छैक तँए सभठाम करब आकि कराएब संभव नै अछि।”
बुधनी- “तखन?”
पंडाजी- “तइले चिन्ता किअए करै छी। हाकिमक दसखत
जेहने आँफिसमे तेहने डेरापर। तखन तँ आँफिसमे अनचोकमे आबि कियो देखि ने लिअए तेकर
कनी..., जे डेरामे नै होइत अछि।”
नन्दलाल- “नै बुझलौं अहाँक बात पंडाजी।”
कबुला छागर जकाँ नन्दलालक मन कॅपैत। तँए आँखिक सोझमे अपन
अनुष्ठान देखए चाहैत।
पंडाजी- “देखियौ, हिमालयसँ
लऽ कऽ समुद्र धरिक वस्तुक जरूरति अनुष्ठानमे पड़ै छै। ओते लऽ कऽ चलब संभव अछि?
ऐठाम सभ वस्तु उपलब्ध नै हएत। अहाँ सन-सन कते भक्त ने छथि। हमरा लिए
तँ सभ बराबरि।”
नन्दलाल- “तखन?”
पंडाजी- “विधिवत सभ खर्चक मूल्य दऽ दिऔ। जहिना
अनन्त पावनि माने अनन्तक पूजामे एक गोटे पूजा करै छथि आ टोल-पड़ोसक लोक अपन-अपन
अनन्द-फनन्दक पूजा करा लइ छथि, तँए कि ओ अशुद्ध भेल। अशुद्ध
तँ होइत अछि फनन्द जेकर गीरह-बनहनक गिनती कम होइ छै।”
हिमालयसँ लऽ कऽ समुद्र धरिक बात सुनि बुधनीक मन चकभौर काटए
लगलनि। बाप रे, कतए हिमालय अछि आ कतए समुद्र। तइसँ नीक जे जे कहता सएह करब
असान हएत। देववाणी कोनो कि नूनछड़ाह होइ छै, उनटा होउ कि
सुनटा, कहुना हेतै तैयो तँ मधुरे-मधुर हेतै किने। बाजलि-
“केना कि खर्च-बर्च पड़त?”
पंडाजी- “खर्च-बर्च कि हाथी-घोड़ाक पड़त,
तखन तँ अनुष्ठाने छी कनियोँ-कनियोँ कऽ करब तैयो तँ...।”
कनियोँ-कनियोँ सुनि बुधनी बाजलि-
“नै पान तँ पानक डंटियोसँ काज चला लिअ।”
पंडाजी आ बुधनी दुनू गोरेक बात सुनि नन्दलाल परीक्षा लेल
कबुलाक छागड़ जकाँ थर-थर कॅपैत। मुदा एक दिस जिनगी तँ दोसर दिस मृत्यु सेहो देखैत।
ग्रह-नक्षत्रक किरदानीकेँ कि मनुख रोकि सकैए, फेर मनमे उठैत जे,
जे मनुष्य माटियोकेँ देवता बना सकैए ओ तँ किछु कऽ सकैए। मुदा दुनू
गोटेक अनुकूल विचार सुनि चुपे रहला।
हुन्डे अनुष्ठानक खर्ख लऽ पंडाजी सगुनियाँ डेग दैत विदा
भेला। मनमे ईहो बात उठैत जे जौं चारियो-पाँच एहेन सुतरल तँ साल-माल लगिये जाएत।
मुदा जे होउ, यात्रा नीक रहल।
तीन मास बीत गेल। ने पंडाजी अपन परीक्षाक
रिजल्ट बुझए घुमि कऽ एला आ ने दुनू परानी नन्दलालकेँ मनमे कोनो तरहक आशंका भेलनि
जे पंडाजी कि केलनि कि नै। तीन मासक पछाति जइ दिन शनिक ग्रहक आगमनक नाओं कहने रहनि
ओ दिन नन्दलालकेँ मने रहनि। साओनक पूर्णिमाक दिन। पूर्णिमा
मन पड़िते महिनाक हिसाब जोड़लनि तँ जोड़ा गेलनि जे आइये पूर्णिमा छी। हौआइत हाथकेँ
कुड़ियबैत मनमे उठिते, पोखरिक माछ सदृश मनमे चाल देलकनि। ओह,
भरिसक हाथ हौआएब शुरू भऽ गेल। बामा हाथक हौआएब छोड़ि दहिना हाथसँ
तरबा कुरिऔलनि तँ सुआस पड़लनि। ओह, जाबे ग्रहक आगमन नै भेल,
ताबे पएर-हाथक कुड़िऔनी किअए मंगैए। पत्नीकेँ कहलखिन-
“राधामोहनक माए, भरिसक ग्रहक आगमन भऽ गेल।”
ग्रहक आगमन सुनि बुधनीक मनमे उठलनि जे बहुत रोगी ओहनो होइए
जे रोगकेँ देहमे रखनौं रहैए आ दवाइयो खाइत रहैए। काजो करिते रहैए। मुदा रोगीकेँ
ओछाइन धड़ा आराम देब सेहो तँ होइए। तहूमे सर्दी-बोखार नै छी जे नूनपनियाँ पीब लेब
आ भानसो-भात करब। देवलोकक ग्रहक आगमन छी, ऐ श्रेणीक रोग...,
कहुना भेल तँ राजे रोग भेल किने।
नन्दलाल बाजला-
“हाथो हौआइए आ पएरो, तखन चलब केना आ काज
केना करब। दुनू दिससँ तँ रोग आबिये गेल अछि।”
बजिते बुधनीक मनमे उठलनि, पथ-परहेज कि सभ
करए पड़त। सर्दी-बोखारक तँ बुझल अछि जे पोड़ो साग नै खाएत मुदा एहेन रोगसँ तँ
पहिले-पहिल भेँट भेल। खौंझाइत बड़बड़ेली-
“जे भगवान सभकेँ बुधि देलखिन ओ एक-रंग कऽ कऽ किअए ने देलखिन जे
रोगमे पड़ल छी आ पथ-परहेज बुझले ने अछि। एहेन रोगीसँ कि लोक हाथ धोइ लिअ।”
“हाथ धोइ लिअ।”
मुँहसँ निकलिते चमकैत शीशा जकाँ मन चनकि उठलनि। जौं रोगीसँ
हाथ धोइ लेब तँ माथक सिनूरक की हएत। असोथकित जकाँ बुधनी थकमका गेली। जइ जिनगीकेँ
खेल बुझै छी ओ खेल नै छी जौं खेल रहैत तँ अमेरिकासँ कते ऊपर रहितौं।
ओछाइन पकड़िते नन्दलाल रोगाए लगलाह। श्रम
नै केने अरुचि, पड़ल रहने देहक अकड़नसँ जोड़-जोड़क दर्द बढ़ैत-बढ़ैत छह मास
पुरैत-पुरैत नन्दलाल भिनसुरका नटुआ जकाँ मोटरी माथपर नेने चल-चलाउ बनि गेला।
असगरे बुधनी काजमे तेना ओझरा गेली जे काजे मानव काजे दानव
बनि गेली। काज तते छिड़िया गेलनि जे जहिना उड़ैत फनिगाकेँ गिरगिट पकड़ै छै तहिना
भऽ गेलनि। काजे काजकेँ खेबो करैत आ गीरबो करैत। साँझू पहर जखन काजसँ निचेन भऽ पएर
मोड़थि आ भरि दिनक काजक हिसाब मनमे अबनि तँ मानि लथि जे सभटा कर्मक खेल छी। कियो
खेल खेलि खेलाड़ी बनि जाइत तँ कियो खेल बनि खेलाएल जाइत। डाॅक्टर ऐठाम जखन पतिकेँ
लऽ जाइ छियनि तँ सभ रोगक जड़ि भरि दिन पड़ल रहब छन्हि। जइसँ सौंसे देहक जोड़ पकड़ि
लेलकनि। फेर जिनगी ठाढ़ हेतनि एकर कोन भरोस। तखन तँ माइयो-बापक लिलसा पूरा कइये
देलियनि जे एकक नाति दोसराक पोता बना ठाढ़ कइये देलियनि, कि पतिधर्ममे कमी रहल? जौं नै तँ पति-विहिन नारीकेँ
समाज किअए कलंकित केने छथि।
पतिपर सँ बुधनीक नजरि उतरि बेटा-राधामोहनपर एलनि। लोकक
धिया-पुता शहर-बजारमे जा रहबो करैए, सिनेमो देखैए आ पढ़बो
करैए। से गरदनिकट्टी हमरा सेने सेहो भेलै। मुदा हमहीं कि करबै जइ घरमे एकटा
विद्यार्थी आ एकटा रोगी रहत ओइ परिवारक गाड़ी खिंचब महिला लेल सचमुच चुनौती अछि।
किस्सा-पिहानी ढेरो कहै छिऐ, मुदा पतिव्रता परिवारक लेल
केहेन समर्पित छलथि, ऐ दिस सेहो देखक चाही। ई नै जे टीक एक
बोझ रखनै छी आ पनरह-पनरह दिनक बिनु धुअल पेन्ट पहिर प्रवचन करै छी।
राधामोहनपर नजरि पड़िते वेचारी विस्मित
भऽ गेली। भगवान सभटा विपति ओही छौड़ाकेँ देलखिन। मुदा ओकरा तँ कहुना कऽ गोठ-गो धरि
बनेलौं अछि। आब कि ओ धीरग-पुतगर नै भेल। जँ धीगर-पुतगर भेल ओकरा बुते घर चलाओल नै
हेतै। बुधनीक मनमे सवुर भेलनि। भगवान पति हरने जा रहल छथि मुदा जुआन बेटा तँ सोझमे
अछिये। फेर मन उनटि राधामोहनपर एलनि, जेतबो सुख माए-बापक घर
केलिऐ तेतबो उमेर तक हम कहाँ दऽ सकलिऐ। ओही वेचाराकेँ धन्यवाद दी जे
खेने-बिनु-खेने पढ़बो करैए आ संग-साथ दऽ काजो करैए। संग साथ मनमे उठिते बुधनी
विह्वल भऽ गेली। संगे-साथ ने सभ किछु छी। मनुख तँ अबैत-जाइत रहत मुदा परिवार जे
संग-साथ अछि वएह ने जिनगी छी।
२
देखले दिनमे नन्दलालक परिवार कतए-सँ-कतए पाछू ससरि गेल, यएह छी जिनगी। समए आगू मुहेँ ससरैत आ जिनगी पाछू मुहेँ, तखन समए संग केना चलब। समाजक बीच नन्दलाल परिवारक चर्च अहू रूपमे होइत।
प्रश्न उठैत जे समाजक कते लोकक बीच एहेन विचार उठैए। परीक्षामे एक शब्दक भूलसँ
प्रश्नोत्तर गलत भऽ जाइत जेकर परिणाम होइत असफल। मुदा ओहए एक शब्द भेटने
परीक्षार्थी सफलो तँ होइते अछि। की तहिना जिनगियोक शूत्र शब्द अछि।
ओना समाज तँ समाज छी, अथाह समुद्र कहियौ आकि सघन बोन। कियो नून घोड़ि नून-पनियाँ बना रोग भगबैत
अछि तँ कियो नूनाएल पानिकेँ नूनगरी हटा स्वच्छ बना पीबा जोग बनबैए। कियो
दुर्गंधकेँ सुगंधक आड़ि दऽ लक्ष्मणा रेखा खींचि जीवन-यात्रा करैए। तँ कियो नरकोमे
ढाही मारि-मारि आरो गर्त दिस बढ़ैत अछि।
समाजमे एहनो कम लोक बजनिहार नै जे बुधनीक दशा-दशा देखि
चाबस्सीयो दैत आ हँसबो करैत। मुदा केहेन चाबस्सी आ केहेन हँसी। खुशीसँ जौं हँसी
अबैत तँ केकरो दीन-दशापर किअए अबैत। मुदा तइ संग समाजमे एहनो कहनिहार तँ अछिये जे
कहैत अछि जे धन्यवाद ओही वेचारीकेँ दियनि जे एक संग पतिसँ पुत्र धरिक सेवा अपना
बाँहु-बलसँ कऽ रहल छथि। एक परिवारक खेती-पथारीसँ लऽ कऽ पढ़ाइ-लिखाइ, बर-बेमारीक सामना असगरे करैत, कि हुनका जिनगीक चक्की
उनटौनिहार नै कहबनि। जे मिथिलांचलक गौरव-गाथाक इतिहास रहल अछि। मुदा तइ संग ईहो कम
दुर्भाग्यक बात नै जे जिनगीकेँ सामाजिक जालमे ओझरा अपन करम-भागकेँ दोषी बनबैत।
एहनो कहनिहारक कमी नै जे कहैत पीसलक मड़ुआ तँ उठओत गहुमक चिक्कस। प्रश्न उठैत जे
बुधनीक कि दोख जे एहेन शब्दसँ वेचारीकेँ दागल जाइत? मुदा
एहनो शब्द तँ ओही समाजमे फड़ैत-फुलाइत अछि जे कहैत वेचारी बुधनीक अखन उमेरे कते
भेल अछि। अधोसँ कम जिनगी टपल हएत, बेसी वाॅकिये हेतै। ई
केहेन निसाफ भगवानक भेलनि जे सौंसे जिनगी नै दऽ अधोसँ कमेपर अधसुखू बना देलखिन।
पति-पत्नीक बीच जे रहैए तेकर तँ ओ गति छैक जेकरा मनुखक श्रेणीसँ निच्चा बूझल जाइत
छै आ जेकरा नै छैक ओकर गति की हएत? कियो रााँड़ कहि राँड़िन
बनाओत तँ कियो यात्राक भदवा कहि दुतकारत। ओना एहेन गति अखन धरि बुधनीकेँ नै भेल
छलनि, कारण जे रोगाएलो छलनि तँ पति जीवैत छलनि। भलहिं
परिवारक गाड़ीक जुआ असगरे किअए ने खिंचैत होथि। मुदा जहिना समाजक बीच, मकानक इटा जकाँ एक-एक परिवारक ऊपर समाजक भारो रहैत आ जीवैक आजादियो रहैत
तहिना परिवारक बीच एक-एक व्यक्तिक सेहो होइत अछि। शरीर अलग-अलग रहनौं, पानिक बीच जेहेन सम्बन्ध रहैत, से तँ रहिते अछि।
मुदा बुधनी तँ जालमे ओझराएल छथि। दस बजे जे बेटा स्कूल जाइत छन्हि ओ चारि-पाँच बजे
अपराहनमे घूमि कऽ घरपर अबैत छन्हि, तइ बीच रोगाएल पतिकेँ
छोड़ि बुधनीकेँ कतौ बाहर जाएब उचित हएत? मुदा बाधो-बोन नै
जाएत से हेतै? तँए कि बुधनीक विचारक सागर सूखि गेलै जे
एक-बोल पतिसँ नै बाजि पाबए। जँ एक दिस गाछक डारि टूटि रहल अछि तँ दोसर दिस राधामोहन सन, अनपढ़ पतिक जगह पढ़ल-लिखल बेटा तँ भेटिये रहल छै। उत्साहमे मिसियो
भरि कमी बुधनीमे नै आएल छलनि, जहाँ धरि काजक सफलता (दिनक
काज) पछाति जे मन खुशिआइन तँ अनेरे बमकए लगनि। सौंसे गामक लोक बताह भऽ गेल,
बाप बेटाकेँ दोखी बना भरि दिन गरियबैत रहैए तँ बेटा बापकेँ गरियबैत
रहैए, साला बुढ़ाढ़ीमे घी ढारी करैए। सासु-पुतोहुकेँ दोख दैत
जे अवढंगहीं घर आएल, तँ पुतोहु बापकेँ गरियबैत जे कोन
नटिनियाँ घरमे बोड़ि देलक। मुदा अनेरे अनकर गाछी देखने कि फेदा कियो तेतरिक बोन
लगौने अछि तँ कियो बगुरक, केकरो गाछीमे तुइन फुलाइ छै तँ
केकरोमे आम। अनेरे भरि दुनियाँ बौआइक कोन काज अछि। अपन धंधाक दुखक भागी ने छी आकि
अनेरो हमर माए मरल तँ अहाँ बुझबो ने केलिऐ आ अहाँक माए मरत तेकर जिगेसा करब हमर
दायित्व बनल। मन ठमकि गेलनि।
जिनगीक दशा-दिशा देखि बुधनी ठकुआ गेली।
जहिना धारक वेगमे कियो भॅसि जान गमबैत, तँ कियो गाछपर सँ खसि
जान गमबैत, कियो घरमे लगल आगि मिझबैमे जान गमबैत तँ कियो
ओछाइनपर पड़ल इछानिक गंध बीच जान गमबैत, तँ कियो कन्हापर
घैलिक भार उठा फुलवारी पटबैत जान गमबैत तँ कि सभ एक्के भेल। एक नै भेनौं एक्के भेल?
केना भेल? लत्ती जकाँ लतरल अछि सभ किछु समाजमे
मुदा जहिना लत्तीक गिरहपर फूलो फुलाइ छै आ फड़ो फड़ै छै, जे
ओइ लत्तीक फूल फल भेल। तहिना हर मनुष्यकेँ अपन-अपन जिनगीक समस्या ताधरि उठैत रहत
जाधरि जिनगी जीबै छी। एहेन स्थितिमे कि हएत, ओ हएत जिनगीक हर
समस्याकेँ अपन तालाक कुंजी बना खोली। रहल बात जे सभ जौं सएह करत तँ मनुखक समाज
केना बनत। समाज बनैक अपन सूत्र अछि जइसँ बनैत अछि। ऐठाम प्रश्न व्यक्तिगत अछि,
सभकेँ अपन-अपन बुधि-विवेक छन्हि, कि नीक कि
अधलाक विचार तँ अपने करए पड़तनि। वएह भेला पछाति स्वतंत्र जिनगीक रस भेटैत अछि।
बेटा राधामोहनपर नजरि गड़ा बुधनी देखए
लगली। वेचाराकेँ गरदनिकट्टी करै छिऐ। अनका-अनका देखै छिऐ बड़का-बड़का शहर-बजारक
स्कूलमे बेटाकेँ पढ़बैए आ...? मुदा हमरा सन लोककेँ संभव अछि।
जइठामक शिक्षा गलत दिशा पकड़ि झकझोड़ि रहल अछि तइठाम कि कएल जाए, ई तँ नान्हिटा प्रश्न नै अछि। मुदा ओही वेचाराकेँ धन्यवाद दिऐ जे
खेने-बिनु-खेने स्कूल नै छोड़ैए। बेटाक धर्म-कर्म देखि बुधनीक मन तड़पल। आब छौड़ा
गोठ-गो भऽ गेल। भगवान एत्ते रच्छ रखलनि जे आब जे अपनो (पति) मरबो करता तँ एकटा
खुट्टा देने जेता। मुदा जइ वेचाराकेँ बच्चेमे माए-बाप छोड़ि दैत, भगवान ओइ बच्चाकेँ केना ठाढ़ करै छथिन। सभ कि ठाढ़े भऽ जाइए। किछु ठाढ़ो
होइए आ किछु नहियोँ होइए। आगू आब राधामोहनकेँ नै पढ़ा पएब। तखन तँ जौं अपने अपन
पढ़ैक भार उठा लिअए तँ रोकबो नै करबै। यएह ने जे नै पढ़त तँ काजमे मददि करत,
पढ़त तँ से नै हएत। नै हएत तँ नै हएत, जँए एते
दुख कटै छी तँ किछु दिन आरो काटब।
मेघक तरेगन जहिना अपन-अपन जगहसँ टक लगौने
देखैत रहैए तहिना राधामोहन जिनगीक बाट दिस देखए चाहैत मुदा बेँतक बोन जकाँ
तते-ओझरी लगल देखैत जे अन्हार छोड़ि इजोत भेटबे ने करै। मुदा मूल प्रश्न तँ मनमे
उठिये जाय। तीन मास पछाति परीक्षा हएत, तेकर पछाति? कि आजुक जे शिक्षा-पद्धति बनि रहल अछि तइमे आगू बढ़ि पएब। स्कूल लगमे अछि,
गामेपर सँ जाइ-अबै छी। मुदा घरसँ बाहर भऽ शहर-बजारक खर्च जुटा पएब।
जौं से नै तँ मैट्रिक पासकेँ के पुछै छै, आँफिसो आ करखन्नोक
चौकीदारी बी.ए, एम.ए. करै छै। काँच मन राधामोहनक पिघलए लगलै।
बाप-माएक दशा देखि मन बेकाबू भऽ गेलै। तीन मास जइ आशा (परीक्षाक आशा) मे बैसल रहब
से अनेरे। जते पढ़ने छी ततबेकेँ ने घोकैत रहब। किछु करक चाही। मुदा कतए करक चाही?
शहर-बजार जा नोकरी करी आकि परिवारक संग गाममे किछु करी। जौं
शहर-बजार जाएब तँ माता-पिताकेँ के देखिनिहार हएत। सभकेँ अपने अछि। तखन? तखन तँ दुइयेटा उपाइ अछि जे या तँ परिवारकेँ सुधारि माने परिवारक काजकेँ
सुधारि कऽ चली आकि परिवारकेँ तोड़ि कऽ। विचारमे राधामोहनकेँ डुमल देखि बुधनी बजली-
“बौआ, अखैन खुट्टा बनि ठाढ़ छिअह, तूँ चिन्ता किअए करै छह?”
आशु-तोष दैत बुधनी राधामोहनकेँ कहलनि। मुदा मनमे अपन खुशी ई
रहनि जे जौं पति मरिये जेताह तैयो एकटा खुट्टा तँ गारनहि जेता। मुदा मनमे ईहो उठैत
जे किछु अछि तैयो पुरुख कहुना पुरुखे भेल, मौगी कहुना मौगिये भेल।
मुदा तेसरो तँ होइते अछि जे पुरुखो मैगियाह होइए आ मौगियो पुरुखाह। हँ से तँ होइते
अछि।
माइयक बोल-भरोससँ राधामोहनक मनमे किछु
आशा जरूर जगल मुदा जतेक जरूरति छल तते नै जगल। ठमकैत मनमे उठलै, गामेमे देखै छी जे पनरह-सोलह बर्खबला सभकेँ केरा-पौंच जकाँ पौंच निकलै
निकलए लगै छै। तखन हमहीं कि जुआन नै भेलौं। मनुख बाँस थोड़े छी जे समाइये पाबि
कोंपर देत। माए-बापक सेवा बेटा-बेटीक पुनीत कर्तव्य छी। पुनीते काज ने धर्म छी।
पानिक टघार जकाँ राधामोहनक मनक विचार आगू मुहेँ ससरल। कि हमरे भरोसे दुनू गोटे
बैसल रहता। तहूमे पिताक एहेन स्थिति छन्हि जे सालक कोन बात जे महीना-दिन गनि रहला
अछि। परीक्षा देने एतबे ने हएत जे मैट्रिक पासक सर्टिफिकेट भेट जाएत। सर्टिफिकेट
लऽ कऽ कि धोइ-धोइ चाटब। सर्टिफिकेटक जरूरति ओकरा होइ छै जे नोकरी करए चाहैत अछि।
जिनगीक लेल तँ ज्ञान चाही। माने काजक लूरि।
तत्-मत् करैत राधामोहनक मनमे उठल, परिवारमे जौं किछु करए चाहै छी तँ हुनको (माता-पिता) सबहक विचार सुनि लेब
नीक हएत। जौं एहेन काज होइ जेकर जड़ि हुनका सबहक जिनगीमे रोपा गेल होइ, मुदा कोनो कारणवश ओ सूखि गेल होय। ई तँ नै जे बाधक एक-गच्छा जकाँ कोनो
एहेन काज करए लगी जे जते हवा-विहारि, ठनका-पाथर आकि
झाँट-पानि हेतै, सभटा ऊपरे खसत। ठमकिते मनमे उठलै जखने
इच्छकेँ अनुभवसँ भेँट होइ छै तखन जे बाट भेटै छै ओ जिनगीमे बेसी नीक होइ छै। से नै
तँ दुनू गोटेक बीच अपन विचार राखब। हुनका सबहक कि विचार होइ छन्हि सेहो तँ सोँझा
आबिये जाएत। संगे माए-बाबूक मनमे सेहो हेतनि जे बेटा आज्ञाकारी अछि, एहनो दशामे बिना पुछने, आगू डेग नै बढ़बए चहैए। अपनाकेँ पुछै जोगर जिनगी बना लेब, सफलताक मुख्य सोपान छी। रावणक दरबारमे हनुमानक आसन नमहर (ऊँच)
हेबाक कारण भरिसक सएह रहै। माता-पितासँ पुछि लेब राधामोहन जरूरी नै अनिवार्य
बुझलक। अनिवार्यक कारणे छाप मनमे पड़ैत रहै। ओ ई जे किछु-ने-किछु जिनगीक सच्चाइ
जरूर भेटत। मालीक श्रम सिर्फ ओतबे नै होइत जते गाछ फूल दैत। बल्कि ओहो होइत जे गाछ
फुलाइसँ पहिने कोनो कारणे सूखि गेल होइ। प्रश्न उठैत जे कि ओइ गाछकेँ ठाढ़ करैमे
बिआसँ गाछ बनबैमे ओकर श्रम नै लगलैक। श्रमक उचित श्रमिक श्रम केनिहारकेँ जखन भेटै
छै तखन मनमे खुशीक अंकुर उठै छै अपन कर्मक फल भेटल। राधामोहनक मनमे एकटा नव प्रश्न
उठि गेल। ओ ई जे दुनू गोटे (माता-पिता) सँ फुट-फुट विचार करब नीक हएत कि एकठाम।
नीक-अधला जे हुअए मुदा एकटा तँ हेबे करत जे काजक गवाह एक गोटे हेबे करता। जाधरि
काजक जानकारी दोसरकेँ नै रहत ताधरि काजक महतमे कमी-बेसी रहबे करत।
गोसाँइ डूमि गेल, मुदा अन्हार नै भेल छल। बाहरक सभ काज सम्हारि बुधनी गठुलासँ जारन आनि
चुल्हि लग रखली। रतुका भानस करैक ओरियानमे जुटैक सुर-सार करए लगली। तइ बीच दिनक
काजक हिसाबपर मन गेलनि। कोन काज सभ छलै आ कोन-कोन भेल। ओसारेपर बैस हिसाब जोड़ैक
विचार केलनि। नन्दलाल ओछाइनेपर सँ देखैत जे जखन भानसक ओरियान भैये रहल अछि तखन
रातियो ठीके-ठाक रहत। भगवानकेँ मने-मन गोर लागि कहलखिन-
“भगवान, जहिना राति अराम करैले बनेलौं
मुदा जौं खाइक ओरियान भेल रहए, तखन ठीके बनेलौं। मुदा अहींसँ
पुछै छी जे बिनु पाइक सरलाहियो वेश्या केकरो पुछे छै।”
नीन तँ नीने छी, खाउ-पीबू निनियाँ देवीक
पूजा करू। मुदा कि ओहो भुखाएल पेटकेँ पुछै आकि छोड़ि कऽ पड़ा जाइ छै। खएर जेतए जे
होउ, मरितो-मरितो तँ सुख भोगाइये जाएत। अनुकूल समए देखि
राधामोहन माए लग आबि पुछलक-
“माए, किछु करैक मन होइए। घरक जे दशा देखि
रहल छी, ओ निच्चाँ दिस ढड़कि रहल अछि। आइ करी-कि-काल्हि करी
करए तँ हमरे पड़त। तइसँ नीक जे बँचल समैकेँ हथासँ नै जाए दी।”
बेटाक बात सुनि जहिना बुधनीक मनमे आशाक
बीआ खसल तहिना नन्दलालक मनमे। मुदा लगले नन्दलालक मन विसाइन हुअए लगलनि। ओह, वेचाराकेँ जखन पढ़ैक बेर एलै, भगवान हाथ-पएर तोड़ि
घरमे बैसा देलनि। जौं अनके जकाँ हमहू पढ़ा सकितिऐ तँ कि राधामोहन बड़का लोक
(डाॅक्टर-इंजीनियर) नै बनैत, कि ओ इटाक बड़का घर बना रहैक
ओरियान नै करैत। एते तँ दोखी बेटा लग छीहे। मुदा से केना? जौं
निरोग रहितौं तखन जे काजसँ देह चोरबितौं तखन ने, से तँ अपना
नै मन अछि जे जानि कऽ कहियो काजसँ देह चोरौने हेबै। मुदा तैयो ओकरे दुनू
माए-बेटाकेँ धन्यावाद दिऐ जे तीन सालसँ ओछाइन धेने छी आ सभ नेकरम करैए। भगवान
अहीले ने परिवार दइ छथिन जे असगरे लोक अपन जिनगी जानवर जकाँ नै जीब सकैए। जौं से
होइ आ असगरे कियो हुअए आ ओकर माए मरि जाइ तँ असगरे बेचारा कि करत। काज तँ तीन
गोटेक छै। एक गोटे बजारसँ कफनक कपड़ा आनत, दोसर गोरे जरबैक
ओरियान करत तँ तेसर गोटे कनबो करत किने।
राधामोहनक प्रश्न सुनि नन्दलालो ओछाइनेपर उठि कऽ बैसैत
बजला-
“बौआ, आब कि तोहू कोनो नान्हिटा बच्चा
थोड़े छह जे नै किछु कएल हेतह। तूँ तँ कहुना चफलगरो भऽ गेलह, जे चरि-चरि पँच-पँच बर्खक बेदरा सभ गाए-महिसक चरवाहि करैए। ओते पैघ जानवरक
चरवाहि करैबला रहै छै। मैट्रिक पास करैमे तोरा कोनो भांगठ छह, मरियो जाएब तँ तोरा माइयेकेँ चावस्सी दी जे कहुना-कहुना परिवारकेँ ठाढ़
केने रहलह। आब तहूँ जुआन भेलह। नहियोँ कहुना तँ कतेको विषयक बात पढ़नहि हेबह। आइ
एते संतोष अवस्से मनमे भेल अछि जे मरितो काल पुछै जोगर रहलौं आ बेटाकेँ अगिला जिनगीक
बाट हम नै घेड़बै। बेटा धन छी, एतेटा दुनियाँमे जिनगी नै
बिताओल हेतै।”
नन्दलालक विचारसँ राधामोहनक मन फरीच नै
भेल जे बाबू कि कहलनि। मुदा दोहरा कऽ पूछब, घेथारब हएत। एक तँ ओहन
रोगसँ (दर्द) पीड़ित छथि तइपर बेसी बजविअनि से नीक नै। मुदा अपना जनैत प्रश्नक उत्तर
तँ दैये देलनि। भलहिं बुझैमे नै आएल। बुझैमे नै आएल, ई
कमजोरी केकर भेल? बजनिहारक आकि सुनिनिहारक। एते बात
राधामोहनक मनमे अबिते नव-पुरानक बीचक दूरीपर नजरि गेल। नव केकरा कहबै आ पुरान
केकरा कहबै वा पुरान कि भेल? देखै छी जे किशोरी बाबाक गाछी
तीन-चारि पुस्त पहिलुका लगाओल छियनि। गाछीक आड़ापर जे शीशोक गाछ लगौलनि, माटि भलहिं ढहि कऽ सहीट किअए ने बनि गेल, मुदा
एक-दोसराक गाछक दाम तीस-हजार, चालिस हजार होइ छै। से कि कोनो
शीशोए टाक अछि आकि आमो गाछ सभ एहेन-एहेन अजोधो भऽ गेल अछि आ फड़बो एते करैए जे
परिवारमे अपूछ बनौने रहैए। मुदा तैयो तँ एकटा प्रश्न उठबे करत जे तइ बीच (गाछीक
जिनगी) कि गाछक डारि नै सुखलै आकि शीशोक पङिया नै भेलै। जरूर भेलै। अकासक चिड़ै सभ
सेहो बाँझीक लस्सा लोलमे लगौने आबि-आबि डारिपर बैसी लोल रगड़ि लस्सा लगा बाँझियोक
गाछ रोपिते रहल। आइयो ओ गाछी ओहिना लहलहाइत अछि, जहिना शुरुक
जुआनीमे लहलहाइत छल। भलहिं गहुमन साँपक लहलही नै होइ पनिया दरादक तँ अछिये। मुदा
ओकर भय कहाँ केकरो होइ छै, होइ छै गाम-घरक गहुमक। जे जमीन आम
शीशोक कोन बात जे चन्दन सन वस्तु दैत रहल अछि, तेकरा छोड़ि
जौं कियो मरूभूमिमे बसि खुशी मनबै छथि ओ भलहिं देहक मना लथि मनसँ नै मना सकै छथि।
किशोरी बाबापर सँ राधामोहनक नजरि अपना
परिवारपर उतरल। खेत सभ समुचित करै दुआरे परती भेल जाइए। परतियो कि कोनो एके रंगक
अछि। कतौ उपजबैक शक्ति क्षीण अछि तँ कतौ शक्तिक अभाव बनाओल जाइए। बिनु पानियेक खेत
केते दिन अपन सेवा दऽ सकत। रौद-जाड़सँ तपैत कहुना अपन अस्तित्व बना रखने अछि। मुदा
मूल प्रश्न ऐठाम अछि जे जइ समैमे हम सभ जीब रहल छी, समयानुसार कृषि
केना औद्योगिक कृषि बनत, मूल प्रश्न ई अछि।
अंकुरक रूपमे राधामोहनक विचार जे जे पूजी
अछि ओइमे पशुपालन करी। मुदा पशुओ तँ कते रंगक अछि। हाथियो अछि बकरियो अछि। हाथी तँ
उत्पादित (दूध) छी वा नै, तहिना घोड़ो अछि। तँए दुनू सवारी बनि गेल।
जइठाम पेटक समस्या अछि ओ थोड़े ऐसँ चलत? महिस भेल तँ ओ
मरदा-मरदी भेल। अखनो गाम-घरमे तीन-तीन दिन लोक वौआ-वौआ बाह (पाल) कराबैए। तइसँ नीक गाए। जे किछु थोड़-थाड़ विकास भेल
ओइमे गाएक पाल सेहो समायानुकूल भेल अछि। ततबे नै जौं गाए-महिस पोसब तँ ओकर चाराक
(भोजन) ओरियान सेहो करए पड़त। जे सबहक साधक बात नै अछि। जइ जोगर जिनका छन्हि ओ ओइ
जोगर काज सम्हारि सकै छथि। तँए भीतरे-भीतर राधामोहन ऐ भाँजमे जे जौं घासक लूरि
माएकेँ हएत तँ एते तँ उपकारे भेल।
तइ बीच बुधनी आ नन्दलालक बीच कहा-कही हुअए लगल। खिसिया कऽ
बुधनी पति नन्दलालकेँ कहि देलखिन-
“बड़ बुधियार छलौं तँ ओ पंडावा केना रुपैइयो ठकि लेलक आ देहमे
रोगो पैसा देकल?”
बुधनीक बात नन्लालकेँ लगलनि नै। पत्निक गुरु स्वरूपा रुप
सोँझा पड़लनि। तीन सालक कष्ट नन्दलालकेँ जिनगीक बहुत अनुभव करा देने छलनि। अनुभव
ईहो करा देने छलनि जे अखन उमेरे कि भेल। लोक सए-सए बर्ख जीबैए हम अधोसँ कमेमे जा
रहल छी। जइ स्त्री आ बेटाक सेवा हम करितिऐ से दिन-राति हमरे पाछू हरान रहैए। जे
हमरा पाछू हरान रहत ओ अपना ले कि करत आकि सोचत। सबहक जिनगी हम तोड़ि देने छिऐ। जइ
चलैत परिवारक गाड़ी पाछू मुहेँ ढरकि रहल अछि। अपन हारि कबूल करैत नन्दलाल पत्नीकेँ
कहलखिन-
“राधामोहनक माए, अहाँ ठीके कहलौं जे
पंडावा ठकि लेलक। दोख तँ हमरे भेल। पुरुख भऽ कऽ घरक खुट्टा तँ हमहीं भेलिऐ। मुदा
एहेन ठकेनिहार हमहीं टा छी आकि आरो लोक छै। परिवारमे एते गल्ती जरूर भेल अछि
मुदा...।”
पिता मुँहक इमानदारीक बोल राधामोहनक हृदैकेँ हिलोरि देलक।
बच्चा मन सूप जकाँ फटकि तँ नै पेलक मुदा हिलोरमे सबहक (नीक-अधलाक) सीमा जरूर बना
देलक। बाजल-
“माए, हम तँ स्कूले धेने छी, बाबू बेमारे छथि, तइ बीच तूँ कते दिन बगियाक बग्गी
बना दौगा पेमे।”
बेटाक बात सुनि बुधनी लजवीजी जकाँ आँखि मूनि वह्वल होइत
बजली-
“बौआ, कोनो कि लिखए-पढ़ए अबैए जे
लिखि-लिखि रखितौं। मुदा एते मन जरूर गवाही दइए जे जे बनि पौलक से करैत रहलौ।
नीक-अधला तँ उपरबलाक छी।”
माइक विचारकेँ पकड़ि राधामोहन लत्ती जकाँ ऊपर मुहेँ उठए
चहैत मुदा एहेन कोनो-गीट्ठह कि अखुँए ने पकड़ि पबैत जइठाम सँ सोंगर पकड़ैत। नजरि
उठा देखैत तँ समुद्र जकाँ झलकैत सभ किछु देखैत मुदा नहेबाक गर कतौ भेटबे ने करैत।
गुरुक आगू जहिना शिष्य सिर-सिरा जानैक प्रश्न पुछैत तहिना राधामोहन पुछलखिन-
“माए, किछुओ तँ फरिछा कऽ कह?”
राधामोहनक प्रश्नक कारक अपन रहै मुदा बुधनी अपना कारके बूझि
बाजलि-
“बौआ अनकर घर-दुआर छी जे बाजब, अपन छी,
अपन केलौं, तइले तोरा सभकेँ उपराग देब नीक हएत?
अपन पति, बेटा, समाज,
देश-दुनियाँ सभ किछु तँ अपने छी तखन कि कियो ऐसँ अलग भऽ करैए जे
दोसराकेँ कहत। जइ करैले धरतीपर एलौं, जहाँ धरि सक लागल तहाँ
धरि करै छी। नीक-अधला देखिनिहार कियो आरो छथि, तखन कि करबह।”
माइक बात सुनि राधामोहनक मनमे उठल, ओह गड़बड़ भऽ गेल। तेहेन लार-झाड़मे पड़ि गेलौं जे अपन बाटे बटिया गेल।
भरियो दिन जौं बाट तकैत रहब तैयो ऐ डगरमे थोड़े डगहरि सकब। से नै तँ ठिकिया कऽ वएह
प्रश्न राखी जइठाम बौआइतो बटोही किछु-ने-किछु कालक लेल अँटकैत अछि। बाजल-
“माए, अखन दुनू गोटे -बाबूओ आ अहूँ-
विर्तमान छी, तँए एहेन रास्ता देखा दिअ जइ पकड़ि हमहूँ ताधरि
चलैत रहब जाधरि ओइसँ नीक आ सक्कत रस्ता नै भेट जाएत। आँखिक सोझमे यज्ञक संकल्प
सबहक माए-बापक इच्छा रहैत तँए...?”
राधामोहनक प्रश्न जहिना पिता-नन्दलाल-केँ तहिना
माए-बुधनी-केँ आरो भँसिया देलकनि। नन्दलालक मनमे उठैत जे जौं बेटा उठि जिनगी उठबए
चहैए, तइमे हम कहाँ छुटि जाइ छी, जे बापक सेवा
नै करत, किछु करैक मन होइ छै, किछु
माने की? सभ किछु आकि किछु नै। मुदा किछु विचार जौं बेटाकेँ
नै देव, सेहो हीक लगले मरब। मनक बात कहि दइ छिऐ। बाजल- “बौआ, दुनियाँमे कियो ने अपना ले करैए आ ने अनका ले,
हथियार बनि धरतीपर आएल अछि, ओकर उपयोग कते के
केलक ओकरे लेखा-जोखा धर्मराजक घर होइ छै। कियो धर्मराजक घर बास करैए कियो यमराजक।
बेटा बनि धरतीपर जनम लेलह तँए केना कहबह मरदक बेटा मुदा एते तँ कहबे करबह जे मरद
बनि मरदक बेटा कहबैत रही।”
पिताक बात राधामोहनक मनकेँ ओहेन बना देलक जेहेन बकरीक काँच
दूधमे साहोरक दूध देला पछाति लगले दही बनि जाइत। मने-मन राधामोहन चौकन्ना होइत
चारू दिस तकए लगल। गुमा-गुमी देखि बुधनी अगुताइत बाजलि-
“बौआ, भानसक अबेर भऽ जाएत। तहूमे पथ-पानिक
ओरियान तँ अपना सभसँ फुट करए पड़ैए। केना बापकेँ पटुआ-झोर पथमे दिअनि। तखन तोड़े
बड़ जिद लगल छह तँ माए भऽ कऽ कि कहबह। यएह ने हाथ-पएर भगवान दुरुस देने रहथुन जे
दनदनाइत आगू मुहेँ दौगैत जेबह।”
कहि झपटल उठि भानस करए चुल्हि दिस बढ़ली।
३
रातिक पौने नअ बजैत। गामक शिवालयोक आ ठकुरवाड़ियोक साँझुक
शंख आ डमड़ूओ बाजि गेल। जारन नीक रहने बुधनीक भानसो आन दिनसँ किछु पहिने भऽ गेलनि।
मुदा तँए कि गामक देवालयक धूप-आरतीसँ पहिने लोक खाए केना लैत? आ जौं खाइये लेत तँ कि भऽ जाएत। ऐ विचारमे चुल्हिये लग बैस खोरनाक जराएल
मुँह दिससँ चुल्हिये आगू लिखए लगली। लिखल-पढ़ल तँ बुधनीकेँ नै होइत मुदा सभ दिनक
आरतीक स्तुति सुनि पढ़ै-गुणैक लूरि तँ भइये गेल छलनि। कियो अपन अक्षर चित्रे खिंच
बनाओत तइसँ अनका की। तइ बीच ठकुरवाड़ीक स्तुति शुरु भेल- “भये
प्रगट किरपाला दीन दयाला...।”
ओना बुधनी सभ दिन स्तुति सुनैत, मुदा खोरना हाथमे रहने चुल्हिये आगू लिखौ लगली। स्तुति कतौ बतिआइत,
बुधनीक कान कतौ सुनैत आ हाथक खोरनी कतौ चलैत। एक बाट नै रहितो धारक
धारा जकाँ अपना-अपनीकेँ सभ दौगैत। स्तुति समाप्त होइते जना बिजलीबला इंजन बिजली
लाइन कटने जे जतए गेल रहल ओ ओतै रुकि जाइत तहिना बुधनीक भेल। दुनू हाथो-कानो अपने
रुकि गेल। रुकिते मन औनाए लगलनि। मुदा आगूमे भानसक बर्तनआ खाइक समए तँए मन परिवारे
दिस समटा कऽ घेरा गेलनि। मन पउ़लनि राधामोहनक प्रश्न। ओह, बेचाराकेँ
कहाँ किछु उत्तर देलिऐ। कहुना तँ माए-बाप अखन हमहीं ने छिऐ, सोझे
असिरवाद देने थोड़े होइ छै आ असीरवादी सेहो दिअए पड़ै छै। अपसोच करैत मन ठमकलनि।
ठमकिते उठलनि जे नै किछु विलगा कऽ कहलिऐ तँ मनाहियोँ तँ नहियेँ किछु केलिऐ। एतबे
कालमे भूमकमो तँ नहियेँ भऽ गेल जे उनटन भऽ गेल। कि भेलै, खाइये
काल बौआकेँ बुझ-बुझ कहबै।
नअ बजिते बुधनी पतिकेँ भोजन करौलनि।
पछाति बुधनी अपनो आ राधामोहनो खाइले बैसल। मुँहक अन्न मुहेँमे बुधनीकेँ घुरिआइते
रहनि कि मनमे अपन जिनगी मन पड़लनि। कतए जनम भेल, माए-बाप ऐठाम कते
दिन रहलौं, पछाति दुनू गोरे नव लोककेँ पति बना हाथ पकड़ा
देलनि। पतिक संग जिनगी भरिक शर्त्त छल, से भगवान कलछप्पन
केलनि। जे अखन देखैबला छलाह तिनके तेना कऽ मचोड़ि देलकनि जे देखनिहारकेँ स्वयं
देखिनिहारक आशा भऽ गेलनि। मुदा तँए कि दाम्पत्य जीवन नै रहल। माइयो-बाप आ
साउसो-ससुरक इच्छा तँ पुराइये देलियनि। आब कि राधामोहन बच्चा अछि। ओ कि घरक मोटरी
उठा नै चलि सकैए। जहिना पतिक आशा तहिना ने बेटोक। बाजलि-
“बौआ, तखन केना पुरुखक सोझ अपन विचार
कहितिअ। कहुना भेला तँ स्वामिये भेला किने। जाबे आँखि तकै छथि ताबे आँखि उठाएब नीक
हएत। तँए तखन किछु ने कहलिअह।”
जिज्ञासा भरल माइक बात सुनि राधामोहन चित्त असथिर करैत
बाजल-
“कोन बात माए, बिसरि गेलौं।”
मुँह-कान चमका जहिना माए बच्चाकेँ चमकब सिखबैत अछि तहिना
बुधनी मुँह चमकबैत बाजलि-
“तोहूँ बाले-बोध जकाँ बुधिबिसरू छह। आब धीगर-पुतगर होइमे बाँकी
छह।”
बिनु नाविकक नाव जहिना झीलमे हवा संग अपने झिलहोरि खेलाइत
तहिना बुधनीक मन सेहो खेलए लगलनि। विस्मित होइत माएकेँ देखि राधामोहन बाजल-
“माए, तते ने कहै छेँ जे एकोटा मन रहत।
सभटा बिसरैयेबला कहै छेँ। कोन बात तखुनका कहए लगलेँ से ने कह?”
राधामोहनक प्रश्न सुनि बुधनी बाजलि-
“बौआ, तखन जे कहने छेलह जे किछु करैक मन
होइए। से करैसँ मनाही करबह। बड़ करबह तँ अपन कएल सुना देबह।”
माइक बातमे राधामोहनकेँ आशाक अंकुरक संभावना बूझि पड़ल।
पियासल बटोही जकाँ माइक अागू राधामोहन चुपचाप भऽ गेल।
बुधनी बाजलि-
“बौआ, जुग-जमाना तेहेन आबि गेल जे...?”
कहि बुधनी चुप भऽ गेली। माइक बात सुनिते राधामोहनक मनमे उठल जे फेर
दोसर बात भरिसक मन पड़ि गेलनि। ओना नै हएत, अपन कएल काजक
बड़ाइ सभकेँ नीक लगै छै, तँए प्रश्नकेँ सोझरा कऽ राखब नीक
हएत। बाजल-
“माए, एहेन कोनो काज कह जे खुशी मनसँ कएल
हौ?”
राधामोहनक प्रश्न सुनि बुधनी ठकुएली। ठोर पटपटेली-
“केकरा खुशीक कहब आ केकरा नै कहब। एके काज केकरो लिए खुशीक होइत
केकरो लिए नाखुशीक होइत। भानस करेक लूरि माए सिखौलक केना अधला भेल। मुदा ओकर
जरुरति तँ बेटीकेँ होइ छै, राधामोहन तँ बेटा छी। भाए-बाबू
गाए पोसै छलाह। गिरहत तँ नमहर नहियेँ छला मुदा सूर्यवंशी दिलीपक बाट जरूर पकड़ने
छला। गाए तँ देशिये पोसै छलाह मुदा जेहने गाएक रंग-रूप तेहने दूधो छलैक। बजैत-बजैत
जेना भक खुजलनि। मुँह खोलि बजली॒
“बौआ, तहू जमानामे बाबूक खुट्टापर
तेहन-तेहने गाए रहै छलनि, जेहने-जेहने अखनो छन्हि।”
कहि बुधनी चुप भऽ गेली। जेना किछु मन पड़लनि। मुदा तुक नै
बैसिने ठमकि गेली। बुधनीकेँ चुप देखि राधामोहन बाजल-
“माए, गाएकेँ की सभ करै छेलही?”
अपन काजक चर्च सुनि बुधनीक वृत्ति चित्त जगलनि। जहिना कोठीक
निच्चाँ मुहे खुजिते अन भुभुआए लगै छै तहिना बुधनीक जिनगीक मुँह खुजिते भुभुएली-
“बौआ, माए-बापक घर बड़ सुख केलिऐ, जेतबो उमेर धरि सुख केलिऐ तेतबो तोरा कहाँ देल भेल। तखन तँ अनेर गाइक धरम
रखबार। माइये-बापक धर्मे अखनो ठाढ़ छी।”
बुधनीकेँ फेर धारमे भँसिआइत देखि राधामोहन जालक जौड़ फेक
बाजल-
“माए, सएह ने पुछै छिऔ जे माए-बाप कोन धरम
देलखुन जे अखनो ठाढ़ छेँ?”
अपनाकेँ हिलोरैत बुधनी बजली-
“बौआ, बिआह होइसँ पहिने माइयक संग
भानसो-भात सिखलौं, खेतियो-पथारीक काज सिखबो केलौं आ करबो करै
छलौं। माल-जालक घास-भूसा सेहो करै छलौं। ऐठाम तँ ओ काजे बिसरि गेलौं।”
राधामोहन- “ऐठाम (नैहर-सँ-सासुर) कि
सभ सीखलीही?”
राधामोहनक प्रश्न सुनि बुधनी लजाए लगली। मनमे उठए लगलनि जे
केना बेटकेँ कहब जे बौआ स्त्रीगणो भऽ कऽ कोदारि पाड़ब, धान रोपब एतइ सीखलौं। कि कहत? ओना, करैत तँ देखबे करैए मुदा नैहरसँ सासुरकेँ केना दुसि देब। कहुना भेल तँ (नैहर)
पराये घर भेल किने।
माएकेँ तत्-मत् करैत देखि राधामोहन पुछलक-
“माए, गाइयक की सभ करै छेलँह?”
बुधनी- “माइयक संगे घासो अनै छेलिऐ, कुट्टियो कटै छेलिऐ। गोबर-हटौनाइ, थइर खड़रनाइ,
खेनाइ-पीनाइ देनाइ सभ करै छेलिऐ।”
राधामोहन- “गाएकेँ दुहबो करै छेलही।”
दुहब सुनि बुधनी चमकि बाजलि-
“से कि भाए-बाप नै छलए जे दुहितौ। कतए-कहाँ सुनै छी जे पंजाबमे
मौगियो गाए दुहैए।”
राधामोहन- “जखन गाए पोसैक लूरि तोरा
छौ, तखन खुट्टापर गाए कहियो कहाँ देखलिऔ। नाना-नानी नइ देने
छेलखुन?”
राधामोहनक प्रश्न सुनि बुधनीक मन नाचि उठल। आइ जौं खुट्टापर
गाए रहैत तँ यएह दिन-दुनियाँ रहैत। भगवानकेँ मन्जूर नै भेलनि। जेहो छल सेहो हेरि
लेलनि। बाजलि-
“बौआ, बिआहमे तेहेन गाए बाप-माए देलक जे
ओकरा जरहकेँ सम्हारि नै पबितौं, मुदा दैवक डाँग लागि गेल।”
राधामोहन- “कि दैवक डाँग लगलौ?”
बुधनी- “पहिलोठ गाए, बच्छा
तरे बाबू देने रहथि। जाबे लगैत रहल दूध-दही परिवारमे चलैत रहल, मुदा दोसर बेर जखन गाए उठल तखन तेहेन खुनियाँ साँढ़क भाँजमे पड़ि गेल जे
गाइयक टाँगे टुटि गेल।”
राधामोहन- “जखन टाँग टुटि गेलौ तँ
ओकरा डाॅक्टरसँ नै देखौलही?”
बुधनी- बौआ, लोक सभ कहलक जे
बलियारिमे एकटा लत्ती होइ छै, उ आनि कऽ बान्हि दिऔ। छुटि
जेतइ। सएह केलौं मुदा नै सम्हरल गाए। खुटे उसरि गेल।”
राधामोहन- “माए, मन होइए जे गाइये पोसितौं?”
विस्मित होइत बुधनी-
“बौआ, अपना परिवारमे गाए कहाँ धाड़ैए।”
राधामोहन- “माए, फेर दोहरा कऽ गाए नै भेलौ?”
धड़फड़ा कऽ बुधनी बाजलि-
“बौआ, जइ काजमे खौटक लगि गेल से केना
करितौं?”
धड़फड़ा कऽ बाजि तँ गेली, मुदा मनमे उठलनि
जे दोहरा कऽ करबो तँ नै केलौं। करबो केना करितौं? सोझा-सोझी
दुनू तरहक विचार मनमे दुनू दिससँ ठाढ़ भऽ गेलनि। बीचमे ठाढ़ बुधनी छटपटाए लगली।
बुधनीक छटपटाइत नजरि देखि राधामोहन प्रश्नकेँ मोड़ैत बाजल-
“एके बेर एहेन विचार किअए भेलौ जे खटुका लगि गेल तँ दोहरा कऽ नै
पोसब। बेटा प्रश्नक निरुत्तर होइत बुधनी बाजलि-
“से कि अपने दुनू परानीक विचार भेल आ कि...?”
राधामोहन- “की, आ कि?”
बुधनी- “बौआ, अपना तँ
देखल रहए जे नैहर अही परसादे गाममे ओहन परिवारक रूपमे अछि जे अपन परिवारक गाड़ी
(भोजन, वस्त्र, आवासक संग दवाइयो-दारू
आ पढ़ाइयो-लिखाइ) दनदनाइत चलैए। मौका-कुमौका दोसरोकेँ उपकार होइ छै। मुदा...।
मुइलाक पछातियो नै उतरल अपना चित्तसँ। मुदा अपने (पति) मुँहमारि लेलनि। एक्केठाम
मनमे रोपि लेलथि जे आब नहियेँ पोसब।”
राधामोहन- “बाबू मुँह मोड़ि लेलखुन
तँ दोसर-तेसर लगबा कऽ किअए ने कहबौलहुन?”
जहिना पँकाएल धारमे टपैकाल कतौ-कतौ हराएल चिक्कनि माटि भेट
जाइत जइसँ किछु बिलमैक आश जगैत तहिना जोरसँ ठेलैत बुधनी बजली-
“बौआ, एक मुँहकेँ के कहए जे साइयो मुँह
रोकि देलक।”
माइयक स्पष्ट विचार राधामोहन नै बूझि सकल। मनमे हौंरए लगलै
जे ओ सए मुँह कतएसँ आबि गेल। बाजल-
“ई नै बुझलिऐ जे सए मुँह...।”
जहिना थकान भेला पछाति नाकक संग मुहोँसँ साँस लेला उत्तर
लगले थकान हटि जाइत तहिना बुधनियोँकेँ भेलनि। राधामोहनक प्रश्न समाप्तो ने भेल
छलनि तइ बिच्चेमे टप-टप बुधनीक मन चुबए लगलनि-
“बौआ, एक तँ अप्पन (पतिक) विचार रहबे करनि
तइपर एकोरत्ती सह पाबि जाथि तँ आरो मन सकता जाइन। जखने मन सकताइन आकि झिझकि कऽ
कहैत छलाह जे आब गाए नै पोसब।”
राधामोहन- “केकर सह पबैत छलाह?”
बुधनी- “अड़ोसिया-पड़ोसियाकेँ के कहए जे
समाजोक लोक कहनि जे तोरा खुट्टापर गाए नै धाड़ै छह, अनेरे
कोन फेड़मे पड़ए चाहै छह।।”
राधामोहन- “जेकरा खुट्टापर गाए छलै
तेकरासँ नै पुछैत छेलखिन। किएक तँ हुनका एहेन तीत-मीठ घटनासँ भेँटो तँ भेले हेतनि।”
बुधनी- “से कि संगे जाइ छलौं जे देखितिऐ। हँ
एक दिनक सोझहाक बात कहै छिअ। एकटा पंडा आएल। ओकरा जेना कियो कहि देने होइ तहिना
दरबज्जापर अबिते अपने फुड़ने बजए लगल जे ऐ डीहपर ग्रहक चढ़ाइ भऽ गेल अछि। सम्पतिक
क्षय हएत। सम्पत्तिक क्षय सुनि आँखि ढबढ़बा गेल। केना जीब। जखन पेटे ने भरत तँ
भुखले केत्ते दिन जीब। केना बाल-बच्चा हएत आ केना पतिपाल हएत? अपने तँ ढबकल आँखिक नोरकेँ, ब्लौटिन पेपरसँ सोखबो
करैत रही मुदा हुनका (पति) नै सम्हार रहलनि। दहो-बहो नोर गालपर देने टघरि-टघरि
निच्चाँ खसए लगलनि...।”
बजैत-बजैत बुधनीक आँखि सेहो नोरा गेलनि। बोली भरभराइत देखि
खखासए लगली। राधामोहनक आँखिमे सेहो नोर आबि गेल। मुदा आँखिक अश्रुकण रहितो
सुषुमाएल छल। जहिना दर्दक निवारण सुषुम पानि करैए तहिना परिवारक दर्दक निवारण
राधामोहनक मनमे जगलनि। मने-मन राधामोहनकेँ संकल्प उठलै जे जीवनोपयोगी कोनो काजक
जौं सर्वांगीन लूरि भऽ जाए तँ ओही काजक सम्पादन परिवारक अंग बनैत छै तँए...?
राधामोहनकेँ चुप देखि बुधनी आँचरसँ आँखि पोछि बाजलि-
“बौआ, गाइयक संग पगहो गेल। पंडावा ठकिये
कऽ लऽ गेल।”
बुधनीक टुटैत मन देखि राधामोहन बाजल-
“गामक लोक सभकेँ किअए ने खुट्टापर गाए छन्हि?”
अपनाकेँ पुछै जोकर पाबि बुधनीक मनमे खुशी आएल। जहिना
हरिमुनियाँक पुरने पटरी चैताबरक टाँहि दैत तहिना बुधनी टाँहि देलनि-
“बौआ, बड़-बड़ लीला छै। कते कहबह। एक-बेर
की नै कि सरकारकेँ फुड़लै, गामे-गाम बड़का जरसी साँढ़ देलकै।
सेहेन्ते लोक पाल खुआबए लगल, किछु तँ जरूर सुतरलै मुदा बेसी
गाइयक डाँड़े-टाँग टुटलै। जइसँ उपटनियाँ लागि गेल।”
बातक रस पबैत राधामोहन बाजल-
“की कहलिही बड़-बड़ लीला...?”
बुधनी- “सरधुआ साँढ़ तेहेन भऽ गेल जे गाए सभ
बकड़ी भऽ गेल। गरीब पोसिनदारकेँ तेहेन गरदनिकट्टी भेल जे पोसनाइये छोड़ि देलक।”
बच्चा
लोकनि द्वारा स्मरणीय श्लोक
१.प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त्त (सूर्योदयक एक घंटा पहिने)
सर्वप्रथम अपन दुनू हाथ देखबाक चाही,
आ’ ई श्लोक बजबाक चाही।
कराग्रे वसते
लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती।
करमूले स्थितो
ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम्॥
करक आगाँ
लक्ष्मी बसैत छथि, करक मध्यमे सरस्वती, करक मूलमे ब्रह्मा स्थित छथि। भोरमे ताहि द्वारे करक दर्शन
करबाक थीक।
२.संध्या काल दीप लेसबाक काल-
दीपमूले स्थितो
ब्रह्मा दीपमध्ये जनार्दनः।
दीपाग्रे
शङ्करः प्रोक्त्तः सन्ध्याज्योतिर्नमोऽस्तुते॥
दीपक मूल भागमे
ब्रह्मा, दीपक
मध्यभागमे जनार्दन (विष्णु) आऽ दीपक अग्र भागमे शङ्कर स्थित छथि। हे संध्याज्योति!
अहाँकेँ नमस्कार।
३.सुतबाक काल-
रामं स्कन्दं
हनूमन्तं वैनतेयं वृकोदरम्।
शयने यः
स्मरेन्नित्यं दुःस्वप्नस्तस्य नश्यति॥
जे सभ दिन
सुतबासँ पहिने राम, कुमारस्वामी, हनूमान्, गरुड़ आऽ भीमक स्मरण करैत छथि, हुनकर दुःस्वप्न नष्ट भऽ जाइत छन्हि।
४.
नहेबाक समय-
गङ्गे च यमुने
चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु
कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरू॥
हे गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिन्धु आऽ कावेरी
धार। एहि जलमे अपन सान्निध्य दिअ।
५.उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्।
वर्षं तत्
भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥
समुद्रक
उत्तरमे आऽ हिमालयक दक्षिणमे भारत अछि आऽ ओतुका सन्तति भारती कहबैत छथि।
६.अहल्या द्रौपदी सीता तारा मण्डोदरी तथा।
पञ्चकं ना
स्मरेन्नित्यं महापातकनाशकम्॥
जे सभ दिन अहल्या,
द्रौपदी, सीता, तारा आऽ मण्दोदरी, एहि पाँच साध्वी-स्त्रीक स्मरण करैत छथि, हुनकर सभ पाप नष्ट भऽ जाइत छन्हि।
७.अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः।
कृपः
परशुरामश्च सप्तैते चिरञ्जीविनः॥
अश्वत्थामा,
बलि, व्यास, हनूमान्, विभीषण, कृपाचार्य आऽ परशुराम-
ई सात टा चिरञ्जीवी कहबैत छथि।
८.साते भवतु सुप्रीता देवी शिखर वासिनी
उग्रेन तपसा
लब्धो यया पशुपतिः पतिः।
सिद्धिः साध्ये
सतामस्तु प्रसादान्तस्य धूर्जटेः
जाह्नवीफेनलेखेव
यन्यूधि शशिनः कला॥
९.
बालोऽहं जगदानन्द न मे बाला सरस्वती।
अपूर्णे पंचमे
वर्षे वर्णयामि जगत्त्रयम् ॥
१०. दूर्वाक्षत मंत्र(शुक्ल यजुर्वेद
अध्याय २२, मंत्र
२२)
आ ब्रह्मन्नित्यस्य प्रजापतिर्ॠषिः। लिंभोक्त्ता देवताः।
स्वराडुत्कृतिश्छन्दः। षड्जः स्वरः॥
आ ब्रह्म॑न् ब्राह्म॒णो ब्र॑ह्मवर्च॒सी जा॑यता॒मा रा॒ष्ट्रे
रा॑ज॒न्यः शुरे॑ऽइषव्यो॒ऽतिव्या॒धी म॑हार॒थो जा॑यतां॒ दोग्ध्रीं
धे॒नुर्वोढा॑न॒ड्वाना॒शुः सप्तिः॒ पुर॑न्धि॒र्योवा॑ जि॒ष्णू र॑थे॒ष्ठाः स॒भेयो॒
युवास्य यज॑मानस्य वी॒रो जा॒यतां निका॒मे-नि॑कामे नः प॒र्जन्यों वर्षतु॒ फल॑वत्यो
न॒ऽओष॑धयः पच्यन्तां योगेक्ष॒मो नः॑ कल्पताम्॥२२॥
मन्त्रार्थाः सिद्धयः सन्तु पूर्णाः सन्तु मनोरथाः।
शत्रूणां बुद्धिनाशोऽस्तु मित्राणामुदयस्तव।
ॐ दीर्घायुर्भव। ॐ सौभाग्यवती भव।
हे भगवान्। अपन देशमे सुयोग्य आ’ सर्वज्ञ
विद्यार्थी उत्पन्न होथि,
आ’
शुत्रुकेँ नाश कएनिहार सैनिक उत्पन्न होथि। अपन देशक गाय खूब दूध दय बाली, बरद भार वहन
करएमे सक्षम होथि आ’ घोड़ा
त्वरित रूपेँ दौगय बला होए। स्त्रीगण नगरक नेतृत्व करबामे सक्षम होथि आ’ युवक सभामे
ओजपूर्ण भाषण देबयबला आ’
नेतृत्व देबामे सक्षम होथि। अपन देशमे जखन आवश्यक होय वर्षा होए आ’ औषधिक-बूटी सर्वदा
परिपक्व होइत रहए। एवं क्रमे सभ तरहेँ हमरा सभक कल्याण होए। शत्रुक बुद्धिक नाश
होए आ’ मित्रक
उदय होए॥
मनुष्यकें कोन वस्तुक इच्छा करबाक चाही तकर वर्णन एहि
मंत्रमे कएल गेल अछि।
एहिमे वाचकलुप्तोपमालड़्कार अछि।
अन्वय-
ब्रह्म॑न् - विद्या आदि गुणसँ परिपूर्ण ब्रह्म
रा॒ष्ट्रे - देशमे
ब्र॑ह्मवर्च॒सी-ब्रह्म विद्याक तेजसँ युक्त्त
आ जा॑यतां॒- उत्पन्न होए
रा॑ज॒न्यः-राजा
शुरे॑ऽ–बिना डर बला
इषव्यो॒- बाण चलेबामे निपुण
ऽतिव्या॒धी-शत्रुकेँ तारण दय बला
म॑हार॒थो-पैघ रथ बला वीर
दोग्ध्रीं-कामना(दूध पूर्ण करए बाली)
धे॒नुर्वोढा॑न॒ड्वाना॒शुः धे॒नु-गौ वा वाणी
र्वोढा॑न॒ड्वा- पैघ बरद
ना॒शुः-आशुः-त्वरित
सप्तिः॒-घोड़ा
पुर॑न्धि॒र्योवा॑- पुर॑न्धि॒- व्यवहारकेँ धारण
करए बाली र्योवा॑-स्त्री
जि॒ष्णू-शत्रुकेँ जीतए बला
र॑थे॒ष्ठाः-रथ पर स्थिर
स॒भेयो॒-उत्तम सभामे
युवास्य-युवा जेहन
यज॑मानस्य-राजाक राज्यमे
वी॒रो-शत्रुकेँ पराजित करएबला
निका॒मे-नि॑कामे-निश्चययुक्त्त कार्यमे
नः-हमर सभक
प॒र्जन्यों-मेघ
वर्षतु॒-वर्षा होए
फल॑वत्यो-उत्तम फल बला
ओष॑धयः-औषधिः
पच्यन्तां- पाकए
योगेक्ष॒मो-अलभ्य लभ्य करेबाक हेतु कएल गेल योगक रक्षा
नः॑-हमरा सभक हेतु
कल्पताम्-समर्थ होए
ग्रिफिथक अनुवाद- हे ब्रह्मण, हमर राज्यमे ब्राह्मण
नीक धार्मिक विद्या बला, राजन्य-वीर,तीरंदाज, दूध दए बाली गाय, दौगय बला जन्तु, उद्यमी नारी
होथि। पार्जन्य आवश्यकता पड़ला पर वर्षा देथि, फल देय बला गाछ पाकए, हम सभ संपत्ति अर्जित/संरक्षित करी।
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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