संयुक्त तत्त्वावधानमे मैथिली लोक संस्कृतिपर जनकपुरधाममे आयोजित
राष्ट्रीय संगोष्ठी - जेठ 9, 10 गते, तदनुसार 23-24 मई, 2010
मैथिली लोकगीतक अवस्था
डा.रमानन्द झा ‘रमण’
उपस्थित लोकज्ञ एवं शास्त्रज्ञ महोदय!
डा.महेन्द्रनारायण रामक उपर्युक्त विषयक कार्यपत्र परिश्रमपूर्वक तैआर
कएल गेल अछि। डा. राम मैथिली लोक साहित्यक क्षेत्रमे किछु मौलिक काज
कएलनि अछि। किन्तु एहि स्तरक संगोष्ठीमे कार्यपत्र प्रस्तुत करबाक समय किछु
बिन्दुके ँ ध्यानमे राखब आवश्यक होइत छैक। से एहि हेतु जे संगोष्ठीक श्रोता ओहन
नहि रहैत छथि जनिका ककहरा पढ़ाओल जाए। श्रोतावर्गमे सामान्यतः बहुपठित एवं
अपन-अपन क्षेत्रक विशेषज्ञ उपस्थित रहैत छथि। उपस्थित छथिओ। ते ँ ई मानि
कार्यपत्र प्रस्तुत कएल जएबाक चाहैत छलनि जे हमर कार्यपत्रक श्रोता असामान्य
ज्ञान आ’ प्रतिभाक लोक रहताह। प्रस्तुत कार्यपत्र विशिष्ट श्रोताके ँ समक्ष राखि नहि
लिखल गेल अछि। कार्यपत्र परिचयात्मक आ’ इतिवृत्तात्मक अछि। विश्लेषणात्मक
होएबाक चाहैत छलैक। एहन विश्लेषणात्मक जे श्रोता/पाठकके ँ वैचारिक स्तरपर
उद्वेलित करबाक क्षमता रखैत हो। उदाहरण लेल विशेष अवसर आ’ भासक गीत
लगनीक नाम लेब। लगनी कोन संस्कृतिक उपज थिक। जाँत चलओला पर जे
थकनी होइत छैक, तकरा गीत गाबि कोना बिसरल जाइत छल। ओहि माध्यमे
ननदि-भाउजक हास-परिहाससँ वातावरण कोना महमहा उठैत छलैक। सम्प्रति
जखन जाँतक स्थान मिक्सी लेने जाइत अछि आ’ ढ़ेकीक स्थान मील, तखन एहि
तरहक श्रम-गीतक विलुप्तिक सम्भावना कोना बढ़ि रहल अछि, आदि। कहबाक
तात्पर्य जे लोकगीत संस्कृतिक संवाहक थिक। लोकगीतमे सम्बन्धित क्षेत्रक संस्कृति
झलकैत रहैत छैक। एहन स्फीत विश्लेषणात्मक दृष्टिक अभाव डा.रामक कार्यपत्रमे
खटकैत अछि।
कार्यपत्रक विषय अछि, लोक गीतक अवस्था। एहिमे तीन टा पद अछि -
लोक, गीत आ’ अवस्था। गीतक महत्त्व सर्वकालिक छैक। जहिआसँ मानवक
अस्तित्व छैक, कोनो ने कोनो प्रकारक गीत ओकर कंठसँ स्वतः निःसृत होइत रहल
अछि। अपन परिवेश वा सजातीय किंवा मानव जातिक प्रति रागात्मक होएब लोकक
स्वभावगत विशेषता थिकैक। ते ँ सभ भौगोलिक वा सांस्कृतिक क्षेत्रक लोकक
जीवनमे गीतक महत्त्व छैक आ’ सदा रहतैक। एतेक धरि जे हमरालोकनिक देवी
देवता सेहो संगीत प्रेमी छथि। केओ डमरू बजा के ँ ताण्डब करैत छथि तँ केओ
वीणावादिनी कहबैत छथि।
दोसर पद अछि लोक। लोक तँ सभ दिनसँ अछि। लोक अछि, ते ँ राग
अछि, विराग अछि। ते ँ गीत अछि। मैथिल संस्कृतिमे जेना वेदक अर्थात् शास्त्रक
महत्त्व अछि ओहिना लोकक अर्थात् शास्त्रीयतासँ मुक्त आचार-व्यवहारक महत्त्व
अछि। लोक आ’ वेद समानान्तर मानल गेल अछि। ‘लोके च वेदे च’। व्यावहारिको
जीवनमे लोकवेदक पुछारी करब सामान्य शिष्टाचार भए गेल अछि। समाजमे दूनू
वर्गक लोक रहैत आएल अछि। जे शास्त्रीय शब्दावलीमे आभिजात्य वर्ग आ’ सामान्य
वर्ग थिक। एही आधार पर साहित्योक वर्गीकरण - शिष्ट साहित्य एवं लोक
साहित्य अछि। सिद्धाचार्य लोकनि तथाकथित शिष्टवर्गक लोक नहि छलाह। किन्तु
मैथिलीमे जे प्राचीनतम गीत साहित्य उपलब्ध अछि, से सिद्धाचार्य लोकनिक रचना
थिक। ओ जीवनक रागात्मक अनुभूतिक स्थानपर अपन अनुभव आ’ दर्शनक
अभिव्यक्तिक माध्यम लोकभाषाके ँ बनाए गीतक रचना कएल। कविकोकिल विद्यापति
लोकक महत्त्व आ’ लोकक भाषाक महत्त्व बूझलनि। ते ँ सर्वत्र पूज्य आ’ मान्य छथि।
लोक हुनक रचनामे अपन राग-विरागके ँ अभिव्यक्त भेल अनुभव करैत अछि।
लोकक महत्त्वके ँ देखैत महाकवि भवभूति रामके ँ आदर्श शासकक रूपमे चित्रित
करैत हुनकासँ कहबाओल अछि - राज्य, सुख आ’ देशके ँ - एतेक धरि जे सीता
के ँ लोकक आराधनाक हेतु छोड़बामे व्यथा नहि होएत -
राज्यं, दयां च सौख्यं च, यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुंचतो नास्तिमेकथा।।
लोक की कहत? से सोचि राजा राम सीताक निर्वासन कए देलनि। किन्तु
हुनकामे लोकतन्त्रीय जीवन-मूल्यक अभाव छल। एकर विपरीत सीता लोकतन्त्रीय
शासन-व्यवस्थामे जनमल छलीह। लोकतन्त्रमे अपन विचार व्यक्त करबाक स्वतन्त्रता
होइत छैक, से हृदयंगम छलनि। ओ जनैत छलीह जे मिथिलामे लोकशक्तिक महत्त्व
अछि आ’ राजा जनक लोकहिक प्रतिनिधि थिकाह। लोकतन्त्रक भूमिमे जनमलि
सीता अश्वमेध यज्ञक प्रसंगमे राजा रामक समक्ष मिथिलाक ‘मिथिलाक लोक नहि थिकनि राजाक दास
स्वाधीनमना लोकक प्रतिनिधि थिकाह मिथिलेश
अहाँ करबैक आक्रमण।
मिथिला भ’ जैत पुरुषहीन, तखने ने अहाँक जीत?
पति-पुत्र विहीना नारीक नोरसँ मिथिलाक भूमि हैत पाँक हेंक।
फोड़ल लहठीक लागत ढे़र-पहाड़,
माङक सिन्दूरसँ पोखरि झाँखडि हैत लाल,
कन्ना-रोहटसँ भरत मिथिलाक भू, नभ, दिगन्त,
सोहर, कोबर, बटगबनी, लगनी, मलार, रास,
संगीतक सब राग-भास
मरि लुप्त हैत।’1
राजतन्त्रमे वैचारिक मतभिन्नताक अवकाश नहि छैक। राजतन्त्रीय
शासन-व्यवस्थामे प्रशिक्षित राजा रामक लेल वैचारिक मतभिन्नताक महत्त्व नहि
छल। सीता द्वारा मिथिलाक प्रसंग स्थिति कथन राजद्रोह भए गेल। राजद्रोहक दण्ड
होइत अछि - मृत्यु दण्ड वा देश निष्कासन। देश निष्कासनक दण्ड सीताके ँ
भेटलनि।
मिथिलाक संस्कृतिमे लोकतन्त्रात्मक मूल्य कतेक प्रगाढ़ अछि तकर साक्ष्य
नेपाल तराइक घुमन्तू गायकक मुहे ँ सुनि लिपिबद्ध भेल जार्ज अब्राहम ग्रिअर्सन
संकलित गीत दीनाभद्रीसँ सेहो प्रमाणित होइत अछि। मुसाहु बनियँा जखन अकारण
दीनाभद्रीके ँ अपन दोकान परसँ ठोंठिआ दैत अछि तँ ओ तकर प्रतिकार अपन
शारीरिक बलसँ नहि कए, निसाफक हेतु पंचक ओतए जाए नालिस करैत अछि -
पंच मे ँ भद्री देलन्हि नालिस कराय।
छोट पंच बड़ पंच सिरक मटुक।
बिनु अपराधे ँ गरदनियाँ देलक मुसाहु, करू मोर निसाफ।
किअ कहौ, हे मुसाहु, बिनु अपराधे ँ गरदनियाँ देलह।।
तोहर दोकान मना परि जाएत।2
हमर देश अर्थात् भारत विदेशी आक्रमण, राजतन्त्र आ’ उपनिवेशवादक
पीड़ा कतेको शताब्दी धरि भोगि स्वतन्त्र भेल एवं लोकतन्त्रक स्थापना भेलैक अछि।
भारतक नागरिक अपन भाषा-साहित्य एवं संस्कृतिक प्रचार-प्रसार एवं संरक्षण लेल
स्वतन्त्र अछि। ओहि लेल पूर्ण अवसर छनि। अपने लोकनि (नेपालवासी) कतेको
शताब्दी धरि राजतन्त्रके ँ भोगैत ओहिसँ मुक्तिक लेल अनवरत संषर्घ करैत अएलहुँ
अछि। ओहि संघर्षसँ लोकतन्त्रक उदय भेल अछि। सुन्दर विहान समक्ष अछि। एहि
लोकतन्त्रक युगमे जाहि कोनो शक्तिक सबसँ बेसी महत्त्व छैक से थिक लोकसत्ता
आ’ लोकक राग-विराग एवं लोक जीवनके ँ प्रतिनिधित्व करएबाला लोक साहित्यक।
एहि सन्दर्भमे ‘मैथिली लोक संस्कृति’ पर संगोष्ठी आयोजित करब, लोकशक्तिक
प्रतिष्ठापनक दिशामे एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण डेग थिक। अपने लोकनि लोकतन्त्रक
स्थापना लेल कतेक लालायित छलहुँ आ’ कतेक आशान्वित छी,, तकरा ई संगोष्ठी
प्रतिध्वनित करैत अछि।
तेसर पद अछि अवस्था। अवस्था कालक द्योतक थिक - भूत, वर्तमान आ’
भविष्य। अर्थात् मैथिली लोकगीतक अवस्था की छलैक, वर्तमान कालमे कोन
अवस्थामे अछि तथा भविष्यमे मैथिली लोकगीत कोन अवस्थामे रहत। ई सभ केओ
एक स्वरे ँ एवं मुक्त कण्ठसँ स्वीकारैत छी जे मैथिलीक लोकगीत हमर महान
संस्कृतिक वाहिका थिक। एहि लोकगीतमे हमर राग-विराग, आशा-आकांक्षा,
सुख-दुख, ज्ञान-विज्ञान, हमर जातीय इतिहास, हमर भौगोलिक स्थिति एवं प्राकृतिक
सुषमा, जीवन-शैली तथा सांस्कृतिक वैविध्य अनादि कालसँ संवाहित होइत आबि
रहल अछि। ई सांस्कृतिक सम्पदा अनेक रूपमे अछि - दृश्य आ’ अदृश्य दूनू।
रागात्मकतासँ लबालब भरल अछि। जीवनक एहन कोनो पक्ष नहि छैक जकर
रागात्मक अभिव्यक्ति लोकगीतमे नहि हो। तुलसी, कुश, आम, महु, नीम, बाँस, काछु,
पुरैनिक पात, तिलकोरक पातसँ लए के ँ भोजन-विन्यास धरि लोकगीतमे भेटत। गर्भ
धारणसँ मृत्यु धरिक समस्त संस्कार लोकगीतमे अपन पृथक राग-भास एवं विषय-वस्तुक
संग अनुस्यूत अछि।
लोकगीतमे युग-युगक अनुभव सुरक्षित रहैत अछि। ई अनुभव सम्प्रति
पारम्परिक लोक ज्ञान ;ज्तंकपजपवदंस विसा ादवूसमकहमद्धक स्रोतक रूपमे मान्यता
पाबि गेल अछि। एहि प्रसंग एक दू टा उदाहरण प्रस्तुत अछि।
विवाह पूर्व वा अन्यो अवसर पर उवटन लगेबाक प्रथा अदौकालसँ प्रचलित
अछि। उबटनमे मेथीक प्रयोग होइत अछि। ओहिना हरदि लगेबाक प्रथा अछि। एहि
दूनूमे औषधीय गुण छैक जे विज्ञान द्वारा प्रमाणित अछि। घर-घरमे तुलसीक गाछ
अछि। धी-सुआसिन ओकर जड़िमे जल ढ़ारैत छथि। सांझमे दीप लेसैत छथि।
बेलक पात शिवजीके ँ चढ़बैत छथि। मैथिली लोकगीतमे एहि वनस्पतिक सभक
महत्त्व अकारण नहि अछि। समय-शीला पर परीक्षित एवं अनुभवसिद्ध अछि। ई
वनस्पति सभ औषधीय एवं पर्यावरणीय महत्त्वक बस्तुक थिक जकर उपयोग होइत
भए गेल अछि। एहि पारम्परिक लोकज्ञानक स्रोतसँ मानवजाति लाभान्वित भेल
अछि। लोकगीतमे वैज्ञानिक तत्त्वक रहबाक ई स्पष्ट उदाहरण थिक। उबटनक
गीतमे मेथी पीसबाक चर्च बेर-बेर अबैत अछि।
कओन नाना मेथिया बेसाहल? कओने नानी पीसल?
अपन नाना मेथिया बेसाहल, सूहब नानी पीसल।
कनि बिलमि एहि गीत पर विचार कएल जाए। बेसाहब, अपन खेत-पथारसँं
आवश्यकताक पूर्ति नहि होएब थिक। बेसाह लगैत छनि, अर्थात् अन्न-पानिक अभाव
छनि। ई लोकगीत परिवारक आर्थिक स्थितिके ँ सेहो देखबैत अछि। तथापि मातामह
द्वारा दौहित्रीक उबटन हेतु मेथी बेसाहल जाइत अछि। बेसाहल मेथी मातामही
नातिन लेल पीसैत छथि। आनो केओ पीसि सकैत छलीह। मुदा रागात्मकताक महत्त्व
छैक। ते ँ नानीक पीसल मेथी लगाओल जएबाक चर्च अछि। रागात्मकताक रंगमे
व्यावहारिकता एवं लाभप्रदताके ँ बोरि जीवनमे अंगीकृत कए लेब मैथिल संस्कृतिक
अनुपम विशेषता थिकैक। ई विशेषता उबटनक एहि गीतमे वर्तमान अछि। एहिना
हरदिक प्रसंग लोकगीतमे पर्याप्त चर्च अछि: -
हरदीके बड़ा सजाबट जनक जी, हरदीमे बड़ा सजाबट।
पहिल हरदी दादा चढ़ावे पाछू सँ दादी सोहागिन, जनक जी।
हरदी बड़ा सजाबट।
लोक जीवनमे उपयोगिता, रागात्मकता, सौन्दर्यप्रियता एवं सामाजिकताक
अत्यन्त महत्त्व अछि। सामाजिकता रागात्मकतासँ कोना मंडित रहैत अछि तकर
उदाहरण निम्नलिखित गीतक पांतीमे द्रष्टव्य अछि। ‘सेन्टो गमकदार’ प्राचीन प्रयोग
नहि थिक। ई लोकगीतक लोचकताके ँ प्रदर्शित करैत अछि।
जनकपुरमे धूम मचल अछि, संगीता पसाहिन आइ अछि।....
चाचीक हाथमे तेल फुलेल, मामीक हाथ कसाइ अछि
मौसीक हाथमे अत्तर सुगन्धित, सेन्टो गमकदार अछि।
जनकपुरमे धूम मचल अछि, संगीता पसाहिन आइ अछि।
विवाहक अवसर पर सोहाग देबाक प्रथा अछि। सोहाग थिक
सौभाग्य-कामना, मंगलमय दाम्पत्य जीवनक हेतु आशीर्वचन। मैथिल संस्कृतिमे
सामाजिक समरसताक तत्त्व प्रगाढ़ अछि। एहि तत्त्वक गीतात्मक अभिव्यक्ति
हास्य-विनोदक सृष्टिक संग कोना कएल जाइत अछि से प्रस्तुत सोहाग गीतक ‘लट
छिलकी धोबिनयाँ’क प्रयोगमे वर्तमान अछि। धोबिनियाँ सामान्य नहि अछि, सौन्दर्य
चेतना छैक। कपोल पर लट लटकौने अछि। एहि लटक कतेको कवि ‘कारी सियाह
नाग’सँ तुलना कएने छथि। एहिठाम आनो केओ भए सकैत छलि, धोबिनियाँ किएक?
एकरहु एक पौराणिक कारण छैक। शिवजीक मानस पुत्रीक विवाहक अवसर पर
समाजक अनेकहु महिला लोकनि सोहाग लेल उपस्थित भेल छलीह। किन्तु ओहिमे
सभसँ आगू छलि एक धोबिन। गणेशजीसँ ओकरा अखण्ड सौभाग्यक वरदान
भेटलैक। एहि हेतु सभसँ पहिने अखण्ड सौभाग्यक वरदान प्राप्त धोबिनसँ सोहागक
परिपाटी अछि। एहि एक शब्दमे एक संस्कृति अछि। एक कथा गुम्फित अछि।
सियाजी के दही ने सोहाग गे, लट छिलकी धोबिनियाँ
हमरो सियाजी कें पिअरे पिताम्बर
सेहो तों लिहे फेराए गे, लट छिलकी धोबिनियाँ।
हमरो सियाजीकें सोना अशर्फी।
सेहो तों लए गे, लट छिलकी धोबिनियाँ।
समाजमे कन्याके ँ पुत्रवत् सुविधा, विकासक अवसर आ’ अधिकार प्राप्त
नहि छैक। ई विभेद जन्मकालहिसँ आरम्भ भए जाइत अछि। एकोटा एहन सोहर
नहि भेटत जाहिमे सीता, पार्वती, राधा, लक्ष्मी वा सरस्वतीक जन्मक उल्लास हो।
सभटा राम वा कृष्णक जन्मसँ सम्बन्धित अछि। पुत्रक जन्मक अवसर पर बहिंगा
फेंकबाक कतेको ठाम प्रथा अछि। ई प्रसन्नताक संग शौर्यक अभिव्यक्ति थिक।
बेटीक जन्मसँ उल्लासक स्थान पर परिवारमे अवसाद पसरि जाइत छैक। धरतीक
झझकब, नार-पुरैनि काटबा लेल हाँसू तकबाक क्रममे चक्कूओ नहि भेटब आ’ अन्ततः
खुरचनसँ नार काटब, सासु एवं ननदिक व्यवहारमे रुच्छता तथा पतिक मुखाकृतिमे
अप्रसन्नताक चेन्ह आदिक अभिव्यक्ति लोकगीतमे पर्याप्त भेल अछि। ‘जाहि दिन
आगे बेटी तोहरो विवाह भेल, तारा गिरल आधी रात’ बेटीक विवाहक लेल माइक
चिन्ताके ँ स्वर दैत अछि।
जाहि दिन आगे बेटी तोहरो जनम भेल, धरती उठल झझकाइ हे।
हंसुआ खोजइते गे बेटी छुरियो न भेटल, सितुआसँ नार कटाओल हे।
सासु ननदी गे बेटी मुखहुँ न बोलए, स्वामी जीके ँ जियरा उदास हे।
जाहि दिन आगे बेटी तोहरो विवाह भेल तारा गिरल आधी रात हे।
भ्रूण-परीक्षण आधुनिक विज्ञानक देन थिक। एहि परीक्षणसँ अनिच्छित
संतानके ँ सूर्यक प्रथम रश्मि देखबाक अवसर नहि भेटैत छैक। पहिने ई सुविधा नहि
उपेक्षा होइत छलैक, लोकगीतमे तकर चित्रण अत्यन्त कारुणिक अछि। नारीक प्रति
ई उपेक्षा भाव वर्तमान समय धरि व्याप्त अछि। एहि मानसिकतासँ स्त्री-पुरुषक
जनसंख्यामे भेल असंतुलनके ँ समाज वैज्ञानिक सामाजिक संकटक रूपमे देखय
लगलाह अछि। परिवारमे पुत्रीक जन्मसँ होइत अवसादक लोकगीतमे भेल अभिव्यक्ति
मानवीय संवेदनाक तारके ँ झनझना दैत अछि।
पहिले जे जनितउँ धिया रे जनम लेत, खएतउँ मरिच पचास हे।
मरिचक झाँस धिया दुरि जाइत, छुटितइ धियाक संताप हे।
पितृसत्तात्मक समाजमे पुरुष मानसिकताक दोसर उदाहरण थिक पत्नी
के ँ सेविका मानबाक मानसिकता। एहि मानसिकतामे विवेकक अभाव तँ अछिए
अर्थलोलुपता सेहो अछि। निम्नलिखित लोकगीतमे ‘रुनझुन-रुनझुन’ शब्द नव
विवाहिताक पति-मिलनक उत्कंठा, पूर्ण रागात्मक संवेदनाक संग अभिव्यक्ति भेल
अछि। प्रतीत होइछ नव कनियाँक पएरक नुपूर नहि बजैत हो, ओकर हृदय एवं
शरीरक अंग-अंग पुलकित एवं झंकृत भए निनाद कए रहल हो। किन्तु स्वामीक
आदेशपर ओ भरि राति बिअनि हौंकैत रहि जाइत अछि -‘आध राति हौंकल, पहर
राति हौंकल’-
रुनझुन-रुनझुन, इहो नबि कोहबर हे।
आहे माइ, ताहि कोहवर सुतलनि कओन दुलहा, बेनिया डोलए मांगे हे।।
आध राति हौंकल, पहर राति हौंकल हे।
होत भिनसर बेनिया टूटि गेल, बंनिया ला रूसि गेला हे।।
ककरा भेजब बाबा घर, ककरा भेजब भइया घर हे।
परभुजी अरजल बेनिया टूटि गेल, बेनिया ला रूसि गेल हे।।
हजमा भेजऽ बाबा घर, ब्राह्मन भेजऽ भइया घर हे।
आगे माइ, हरिजी अरजल बेनिया टूटि गेल, बेनिया ला रूसल छथि हे।।
हाथी चढ़ल बाबा आबे, घोड़ा चढ़ल भइया आबे हे।
बीचहिं बेनिया झलकैत आबे, आब हम नैहर जएबै।।
उपर्युक्त उदाहरणमे प्रभु जीक अर्थात् पतिक अरजल बिअनि प्रभु जीके ँ
अनवरत हौंकैत रहलासँ पत्नीक हाथमे टूटि जाइत अछि। एहिमे ओकर कोन दोष
छलैक? किन्तु त्रासद पक्ष अछि जे पतिक आचरणसँ पत्नीमे असामान्य ग्लानिक बोध
होइत छैक। कोनो आन उपाय नहि देखि, नैहर समाद पठाए तकर प्रतिपूर्ति करबाक
निर्णय करैत अछि। एक प्रकारे ँ ओ जुर्माना भरैत अछि। तकर बादे नैहर जएबाक
अनुमति भेटैत छैक। अर्थात् पतिक अरजल बिअनि टूटि गेलासँ जुर्माना भरबा धरि
ओ सासुरमे बन्धक बनल छलि। ‘हाथी चढ़ल बाबा आबे, घोड़ा चढ़ल भइया आबे
हे’, बीचहिं बेनिया झलकैत आबे’ आ’ आब हम नैहर जएबै’ नारी जातिक एही
त्रासदीक अभिव्यक्ति थिक। ई सामाजिक विकृति एवं अर्थलोलुपता कमल नहि
अछि। दहेज लोभी लोकक आखेट नव विवाहिता निरन्तर भए रहल छथि। लोकगीतमे
पुरुष मानसिकता आ’ नारी उत्पीड़नक पर्याप्त चित्रण अछि। ई चित्रण सभ वस्तुतः
सामाजिक मनोवृत्तिक एक करुण इतिहास थिक।
कृषि संस्कृतिक देन लगनी, विशेष भास एवं अवसरक गीत थिक। एहि
कोटिक गीतमे सेहो बधू उत्पीड़नक चित्रण अछि -
घर पछुअरबा लौंग केर गछिया, लौंग फूलेल आधि रतिया रे दइबा।
लौंगवाके चुनी चुनी संजिया ओछइली, सुती रहलइ सासुजीके बेटबा हो दइया।
घुरि सुतु फिरि सुतु सासुजीके बेटबा ननदी जीके भैया।
तोहर घामसँ भीजल सभ चोलिया हे दइया।
उपर्युक्त गीतक पाँतीमे प्रयुक्त ‘सासुजी के बेटबा’ एवं ‘ननदी जीके भैया’
पर विचार कएल जाए। ओ पति, स्वामी आदि कहि सम्बोधित नहि करैत अछि। स्पष्ट
अछि जे पति अपन पत्नीक निकट नहि छथि। ओ माइ-बहिनिक कहलमे छथि।
सासु एवं ननदि सुनियोजित रूपसँ अत्यधिक परिश्रम करबैत छैक जाहिसँ पुतहुक
स्वेदसिक्त अंगबस्त्र पतिक विकर्षणक कारण बनल रहए। ‘घुरि सुतु फिरि सुतु
सासुजीके बेटबा ननदी जीके भैया’- एही स्थिति दिस संकेत करैत अछि।
प्रस्तुत गीतमे मिलनोत्कंठित नायिकाक मनोदशाक सूक्ष्म एवं सुन्दर वर्णन
अछि। ओ अपन तुलना लवंगक फूलसँ करैत अछि। जे पूर्णतः प्रस्फुटित होएबासँ
पहिने अधरतियेमे तोड़ि लेल गेल हो। ई नायिकाक अर्ध विकसित रहबाक द्योतक
थिक। किन्तु प्रस्फुटनक उष्मासँ अवश्य ओ मातलि अछि। जे ‘लौंगवाके चुनी चुनी
संजिया ओछइली’ सँ स्पष्ट अछि। एहि गीतमे अप्रस्तुत एवं प्रस्तुत विधानक अद्भुत
नियोजन भेल छैक। एक बेर नायिका लेल, जे प्रस्तुत अछि, प्रस्तुत लवंगक फूल आ’
दोसर बेर अप्रस्तुत मनक उल्लास लेल प्रस्तुत लवंगक फूलक प्रयोग भेल अछि। बेली
चमेली वा केओलाक प्रयोग मैथिली लोकगीतमे ठाम-ठाम भेटैत अछि। किन्तु
औषधीय गुणसँ युक्त एवं मिथिलासँ भिन्न प्राकृतिक एवं भौगोलिक क्षेत्रमे सुलभ
लवंगक फूलक संग नायिकाक मनोदशाक वर्णन दुर्लभ अछि। एही लगनीक अगिला
पांतीमे अछि -
तोहरेा के देबौ मलहा दही-चूड़ा भेाजन रे, जमुनामे फेकू महजाल रे दइबा।
एक जाल फेंकले मलहा, दुइ जाल फेंकले,तेसर जाल घोंघटा संए मारलए रे दइबा।
एक जाल फेंकले मलहा दुइ जाल फेंकले, तेसर जाल धनीके लहरबा रे दइबा।
कृषि संस्कृतिक नायिकाक कृषि संस्कृतिक नायकक (घर पछुअरबामे बसे
एक मलहा) प्रति आर्कषण सहज अछि। किन्तु नायिका द्वारा जमुनामे जाल फेंकबा
लेल कहब कम महत्त्वपूर्ण नहि अछि। गंगा शान्त छथि तँ जमुना तीव्र प्रवाहिनी। एहि
हेतु जमुनामे पार होएब लेल अपेक्षाकृत बेसी साहस, धैर्य आ’ परिश्रम चाही। स्पष्ट
अछि जे नायिका तेसर बेर जाल फेंकला पर आकर्षित होइत अछि। अपन तुलना
ओ जमुनासँ करैत अछि। एहि आकर्षणक नाटकीय अभिव्यक्ति प्रस्तुत लोकगीतमे
भेल अछि।
लोक गीतक विशेषता
गीतक विशेषताके ँ मोटामोटी निम्नलिखित रूपमे विभाजित कएल जाए
सकैत अछि -
1. सामूहिकता - लोकगीत सामूहिक रूपसँ गाओल जाइत अछि। ओ
लगनी, बटगमनी हो वा मांगलिक अवसर पर गाओल जाइत गीत। एकल गायन
कुशल गायक/गायिका टा श्रोताक ध्यान आकर्षित करैत अछि। ई लोकात्मक
होएबाक सेहो प्रमाण थिक।
2. सहभोगिता आ’ व्यापकता - संग-संग भोगब भेल सहभोगिता। लोक
गीतमे समाज वा सांस्कृतिक समूहक राग-विराग, विजय-पराजयक आदिक रागात्मक
अभिव्यक्ति रहैत अछि।
3. परिस्थिति एवं मनःस्थितक अनुरूप अनुकूलन - लोक गीत एक दिनमे
नहि सहस्रो वर्ष धरि अनुभवक उपरान्त वर्तमान स्वरूपमे आएल अछि। जे युगक घात
सहि नहि सकल छिटकैत गेल। लोकक नव-नव अनुभव जोड़ाइत गेलैक। लोक
गीतक ई लोचकता ओकरा टटका आ’ सुस्वादु बनौने रहैत अछि।
4. नृत्यक संग प्रगाढ़ एवं सुदृढ़ सम्बन्ध - लोकगीतक नृत्यक संग प्रगाढ़
सम्बन्ध सामूहिक गायनक समय अकस्मात दर्शन भए जाइत अछि।
वर्तमान
परिवेश बदलैत अछि। लोकक आवश्यकता आ’ रुचि बदलैत अछि। सम्बन्ध
आ’ सरोकार बदलैत अछि। एहिसँ सामाजिक जीवनमे परिवर्तन अबैत अछि। एहि
परिवर्तनक प्रभाव लोकक जीवन-यापन पर पड़ैत छैक। उद्योगीकरण आ’ शहरीकरणसँ
श्रमक पलायन आरम्भ भेल। गाम-घर, खेत पथार पोखरि -झांखरि, वन-पर्वतक
स्थान पर लोकके ँ गोठुल्लामे रहबाक बाध्यता भए गेलैक। ओ भिन्न भाषा-भाषी एवं
संस्कृतिक लोकक बीच जीबैत रहबा लेल विवश होइत रहल। पहिने देशहिक एक
कोणसँ दोसर कोन लोक जाइत छल। आब विश्वक एक कोणसँ दोसर कोण धरि
उड़ि जाइत अछि। जाहिठाम सभ किछु अनचिन्हार रहैत छैक। अपरिचित रहैत छैक।
बाजारबाद अपन अकादारुण मुह बाबि सभ किछु गीरि अपन रंग पसारबा लेल दु्रत
वेगसँ चतुर्दिक पसरि रहल अछि। जॉँत पीसब वा ढ़ेकी कूटब अनावश्यक भए गेलैक
अछि। तखन लगनीक कोन प्रयोजन रहि जाएत। पहिनहिसँ वर कनियाँ ‘हाय!
हेलो!’ करैत रहैत छथि, तखन मुहबज्जी वा कोवरक गीतक की होएतैक? बाजारमे
रंग-विरंगक क्रीम आ’ लोशन उपलब्ध छैक, नानी मेथी कथी लेल पीसतीह। गोदना
आब गोदौल नहि जाइत अछि। खोदपारनि आओत कतए सँ जे अवसरोचित गीत
द्वारा हास-परिहास होएत। टेटूक फाहामे लहरिया कतयसँ आओत, जकर तुलना
पति वियोगक लहरिसँ कएल जा सकैछ। (हमरो लहरिया गे सुन्दरी सहलो ने जाइ
छउ रे जान! जान सूइया के लहरिया कोना सहबे रे जान! सूइया के लहरिया हे
पिअबे घड़ी रे दंइ घड़िए रे जान! जान तोहरो लहरिया हो पिअबे सगर रतिया रे
जान! )। नवजातक वा नेनाक स्स्वास्थ्य रक्षा लेल विभिन्न प्रकारक औधषि एवं सूर्इ्र
आदिक निर्माण भेल अछि। तखन पाच आ’ ओहि अवसर पर गबै जाए बाला पाच
गीतक कोन प्रयोजन रहि जएतैक। पसरैत यान्त्रिकता, सांस्कृतिक परिवेशसँ दूर
जीवन-यापन, प्रदर्शन-प्रभाव एवं बाजारबाद तथा संचार माध्यमक माध्यमे अहर्निश
प्रहारसँ लोक संस्कृति प्रभावित एवं विकृत भए रहल अछि। ओकर कतेको वैशिष्ठ्य
लुप्त हेाएबाक कनगी पर छैक।
संरक्षणक उपाय
पारम्परिक ज्ञानक स्रोत एवं मानव जातिक विकासक भावात्मक अभिलेखक
संरक्षण दिस विश्व समुदाय (यूनेस्को)क ध्यान हालहिमे गेल अछि। पहिने विश्व
समुदाय इंटा-पाथरहिके ँसांस्कृतिक सम्पदा मानि विश्वस्तर पर ओकर संरक्षणक हेतु
नीति-निर्धारण करैत छल। ओहि लेल सुविधा दैत छलैक। किन्तु भूमण्डलीकरणक
चपेटमे विश्वक सम्पन्न सांस्कृतिक वैविध्य पर बढ़ल संकट एवं कतेको राष्ट्र तथा एवं
कए यूनेस्कोक ध्यान अस्पृश्य, अभौतिक एवं निराकार ;( Intangible) सांस्कृतिक
सम्पदाक संरक्षणक महत्त्व दिस गेलैक अछि। आ’ ई विश्वास बलवती भए गेलैक
अछि जे अभौतिक एवं निराकार सांस्कृतिक सम्पदा कोनहुँ प्रकारसँ साकार भौतिक;(tangible) सांस्कृतिक सम्पदासँ दऽब नहि अछि। इहो ओहिना संरक्षणीय अछि
जेना साकार भौतिक सम्पदा। एहि निमित्त आहूत बैसारमे अभौतिक एवं निराकार
सांस्कृतिक सम्पदाके ँ परिभाषित करैत विश्वक सभ देशसँ संरक्षण हेतु आवश्यक
उपाय करबाक हेतु कहल गेल अछि।3
यूनेस्कोक वैविध्य सांस्कृतिक सम्पदाक सार्वभौम घोषणक ; ( UNESCO Universal Declaration on Cultural Diversity)
मानवजातिक सामूहिक सम्पदा थिक एवं वर्तमान तथा भविष्यक संततिक लाभक हेतु
एकरा स्वीकृत आ’ सम्पुष्ट कएल जएबाक चाही। सांस्कृतिक सम्पदाक संरक्षण हेतु
यूनेस्कोक द्वारा दू टा बाटक अनुशंसा कएल गेल अछि -
क. चिन्हित करब एवं
ख. संरक्षण।
क. चिन्हित करब ;(Identification) निम्नलिखित मार्ग निर्देशनक आधार लोकगीत
के ँ चिन्हित कएल जा सकैत अछि: -
पद्ध लोक गीतक सार्वत्रिक (ग्लोबल) उपयोग हेतु सामान्य मार्ग निर्देश
पपद्ध लोक गीतक एक व्यपाक रजिस्टर तैआर करब, तथा
पपपद्ध लोकगीतक क्षेत्रीय वर्गीकरण
ख. लोकगीतक संरक्षण ;(Conservation of folklore) एक राष्ट्रीय अभिलेखागारक स्थापना करब जतय लोकगीत नीक जकाँ संकलित रहए तथा जिज्ञासुके ँ उपलब्ध भए सकए। पपद्ध एक केन्द्रीय अभिलेखागारक स्थापना करब जे सेवा कार्यक हेतु काज करए।
* एक संग्रहालय स्थापित कएल जाए अथवा स्थापित संग्रहालयमे
पारम्परिक एवं लोकप्रिय संस्कृति एवं कलाकृति प्रदर्शित रहए।
* पारम्परिक एवं लोकप्रिय संस्कृतिके ँ प्रस्तुतिमे प्राथमिकता देल जाए
तथा यथासम्भव ओही परिवेश/पृष्ठभूमिक जीवन-यापन, कौशल तकनीकी आदिक
सृजन रहए।
* लोकगीतक संकलन एवं अभिलेखनके ँ सुमेलित कएल जाए।
* संकलनकर्ता, अभिलेखकर्ता, एवं अन्य विशेषज्ञके ँ लोकगीतक भौतिकसँ
विश्लेषणात्मक संरक्षण लेल प्रशिक्षित करब, तथा
* संकलित सांस्कृतिक सम्पदाक सुरक्षाक हेतु लोकगीतक प्रतिलिपि
सांस्कृतिक समुदाय एवं क्षेत्रीय संस्थाके ँ उपलब्ध कराएब जाहिसँ ओ सब सक्रिय
बनल रहथि।
नृविज्ञानक मत अछि जे मानवताक विकासक क्रममे सर्वप्रथम समष्टि चेतना
; ( Tribal consciousness) तदुपरान्त, हम-चेतना ;(we - consciousness)
आ’ ‘अहं चेतना ; ( I - consciousness)
वास्तविक यात्रा एतहिसँ प्रारम्भ होइत छैक। ओना हम के छी ? से बूझबा लेल कहि
सकैत छी जे एक प्राणी छी, मनुष्य छी, नेपाली छी, भारतीय छी, उच्चवर्गमे जनमल
छी, निम्नवर्गमे जनमल छी, आरक्षित वर्गमे छी, अनारक्षित वर्गमे छी आदि। मुदा,
व्यष्टि चेतनाक सोड़ समष्टि चेतनामे ततेक गहींर धरि छैक जे चाहिओ के ँ समष्टि
चेतनासँ विलग नहि भए सकैत अछि आ’ अपन परिचितिक अभिव्यक्ति वा प्रदर्शन
समष्टि चेतनामे एकाकार भए करैत अछि। विभिन्न सांस्कृतिक अनुष्ठान, विद्यापति
स्मृतिपर्व अथवा मिथिला महोत्सव आदि आयोजित कएल जाएब व्यष्टि-चेतनाक
समष्टि चेतनामे एकाकार होएबे थिक। एहिसँ स्पष्ट अछि जे विकासक उत्कर्षक
परिचयक हेतु भूतमे जाएब आवश्यक भए जाइछ। बिना भूतके ँ देखने, बूझने आ’
गमने वर्तमानमे ने प्रासंगिक रहि सकैत छी आ’ ने नीक भविष्यक कल्पना कए सकैत
छी। लोक गीतमे इएह समिष्ट चेतना, हमर राग-विराग, उल्लास, अवसाद पराजय
आदि, गीतक माध्यमसँ अभिव्यंजित अछि। आ’ जखन वा जतए कतहु पारम्परिक
भासक गीत, जाहिमे हमर अतीकक समस्त अनुभूति अपन सन्दर्भ आ’ परिवेशक संग
साकार भेल रहैत अछि, कानमे पड़ैत अछि, हमर सुषुप्त आत्मीय रागात्मक तन्तु
अकस्मात झनझना उठैत अछि। एही हेतु लोकगीतके ँ संस्कृतिक सर्वाधिक बलिष्ठ
आ’ सुरक्षित तत्त्व मानल गेल अछि।
संस्कृतिक उपयोगिताक प्रसंग एक अमेरिकन समाजशास्त्रीक मत4 सर्वथा
समीचीन अछि जे द्रुत सामाजिक विकास एवं नवोन्मेष लेल सांस्कृतिक तत्त्वक
वैविध्य महत्त्वपूर्ण अछि। अर्थात् जतेक सांस्कृतिक वैविध्य एवं चेतना प्रखर, ततेक
विकासक गति द्रुततर होएत। मैथिल, सीमाक एहि पारक होथि वा ओहि पारक,
अपेक्षित विकासक अवसर लेल अवश्य लालायित रहलाह छथि। एहना स्थितिमे द्रुत
सामाजिक आ’ आर्थिक विकासक लेल एक मात्र समाधान सांस्कृतिक चेतनाक
जागृति एवं सबलता थिक। एहि अभियानमे मैथिली लोकगीतक संरक्षण प्रयोजनीये
नहि, अनिवार्य सेहो अछि।
सन्दर्भ -
1. पराशर, कांचीनाथ ‘किरण’
2. गीत दीनाभद्रीक ओ नेबारक,2010, सम्पादक डा.रमानन्द झा ‘रमण’, पृ.सं. 68
3."Convention for the safeguarding of the intangible
cultural heritage" Article 2 :
The 'intangible cultural heriage" means the practices,
representation, expressions, knowledge, skill as well as the
instruments, objects, artifacts and cultural space associated
therewith - that communities, groups and in some
cases, individual recognize as part of cultural heritage. At
his intangible cultural heritage, transmitted from generation
to generation, is constantly recreated by communities and
groups in response to their environment, their interaction
with nature and their history, and provides them with a sense
of identity and continuity, thus promoting respect for
cultural diversity and human creativity. For the purpose of
this Convention, consideration will be given solely to such
intangible cultural heritage as in compitible with existing
international human rights instruments, as well as with the
requirement of mutual respect among communities, groups
and individuals and sustainable develpoment. The " intangible
cultural heritage" as defined in paragraph 1 above, is
manifested inter alia in the followed domains :
a) Oral traditions and expressions, including language
13 14
as a vehicle of the intangible cultural heritage;
b) Performing arts.
4-ओगबर्न & The large number of cultural elements, the greater
number of inventions and faster the rate of social change.
— बृषेश चन्द्र लाल
जहिया ओ जनमल, बड़कीमाइ धरतीपर खसहु नहि देलकैकि π कहा“दोन माटि लागि जइतैक ππ कहैत छैक जे पशु जाति गन्धेस“ चिन्हऐत छैक आ प्रायः तैं गोलबा सभस“ पहिने बड़कीमाइक गन्ध थाह पओलकैक आ लगले तखनहिं सोनी, मोनी आ बब्बूक । अपन माइ चितकबरीक गन्ध त“ ओ पेटहिंस“ पओने रहए ।
ओकरा कहियो नहि बुझएलैक जे ओ पशु अछि । ओ अपनाके“ सोनी, मोनी आ बब्बूये जका“ बड़कीमाइक सन्तान बुझैत रहल । बड़कीमाइ कहैतिरहैति छलैकि जे गोलबा जनमल त“ ओकरा जखने पोछिपाछि कए ठाढ कएल गेलैक, चभकि–चभकि कए चितकबरीक थनस“ दूध पिबए लगलैक आ जखने पेट भरि गेलैक त“ दौडि कए ओकरि दुनू पएरक बीचमे साड़ीक कोंचामे गरदनि नुका लेलकैक । आ तहियास“ ई क्रम चलिते रहलैक । कुदि–फानि क’ आएल आ बड़कीमाइक साड़ीक कोंचामे गरदनि पैसाकए उपर–नीचा करए लागल । बड़कीमाइ ओकरा कोरामे उठाकए ताबरतोड चुम्मा लेबए लगैकि आ गोलबा बड़कीमाइक स्नेहस“ मुग्ध भ’ जाइक । संसारमे एहिस“ बेशी सुख ओकरा आओर कतहु कखनो नहि बुझएलैक । ओकरा बड़कीमाइ सभ दिन ममताक समुद्र लगैत रहलैक । कहा“दोन, सन्तानस“ प्रेम करएबलाकप्रति सन्तानक माय मुग्ध भ’ जाइत छैक । ओकर माइ चितकबरी बड़कीमाइक सभ दिन आदर करैति रहलैकि । जखने बड़कीमाइ कहैकि — “चितकबरी आह ..आह ।” कि ओकर माइ चितकबरी चाहे कतबो दूर किएक ने रहौक, कानमे आवाज झरिते“ चट बड़कीमाइ लग दौड़ि जाइक । आ बड़कीमाइ जेना–जेना इशारा करैकि चितकबरी चुप्पे मुड़ी गोंतने आदेशक पालन करैति जाइक । करौक कोना नहि ?† भोरे–भोरे चितकबरीलेल घास, कोराइ आ कहियो काल दालिक कुन्नीक ओरिआओन त“ वएह करैकि ने । रौद उगैक त“ बड़का रस्सीमे खुट्टीमे बान्हि ओकरा चरएलेल छोडि दैकि आ फेर दुपहरियामे चौरीमे ल’ जाइकि । आरिक दुबि खाएमे कतेक आनन्द अबैत छैक से जे खाए सएह ने जानए †
तहिना करैक गोलबा । ओहो कहियो बड़कीमाइक आदेशक अवज्ञा नहि कएलक । ह“, चितकबरी स्थिरस“ अबैकि त“ ओ दौडैत–कुदैत–फानैत π कहियो काल जखन बड़कीमाइ कोनो काज –धन्धामे लागलि रहैति छलि अथवा ककरोस“ बतिआइतिरहैति छलि त“ गोलबाके“ दुलारस“ धकेलि दैति छलैकि । मुदा, गोलबा ताधरि जान नहि छोड़ैत छलैक जाधरि बड़कीमाइ ओकरा उठाकए चुमि नहि लैति छलैकि । ... चितकबरी बड़कीमाइ आ गोलबाक सिनेह देखि मुग्ध रहैति छलि । ओ सभ दिन गोलबाके“ सिखबैतिरहलि जे जननाहरिस“ पोसनाहरि बड़की होइत छैक । आ ओ तै“ सभ दिन बड़कीमाइके“ अपन माइ चितकबरीस“ उपरे देखलकैक ।
सोनी आ मोनी त“ गोलबालेल अपन जाने न्योछारि देने छलि । नामो त“ ओकरेसभक देल रहैक ने । गोलबा जनमलैक त“ गोल, गुटमुटाएल आ लेपटाएल रहैक कहा“दोन † आ तै“ ओकरा सोनी–मोनी ‘गोलबा’ कहि देलकैकि । ओकर नामाकरण अहिना भेल रहैक । पहिल बेरस“ ल’ क’ बहुत दिनधरि सा“झु पहर, रातिमे आ सुति–उठिकए ओसभ ओकरा ओकर माइ चितकबरी लग ल’ जाइक आ मुह“ पकड़िकए थन छुअबैकि । गोलबा मस्त“ दूध पिबए लागए । दिनोमे ओकरा मोनस“ कुद–फान कहा“ करए दैकि ओसभ । भरि दिन कोरामे लदने छी, लदने छी † तहिया गोलबाके“ नीक नहि लगैक । मोन होइक जे छोड़ितए त“ कुद–फान करितए । मुदा, बादमे जखन ओ नम्हर भ’ गेल त“ रहि–रहि कए मोन होइक जे कने सोनी–मोनी ओकरा कोरमे उठैबितैकि । सोनी–मोनी ओकरालेल सुतएलेल ओछाओन आ पहिरएलेल मिरजइक व्यवस्था कएने रहैक । ओ मुति दैक त“ ओसभ बड्ड पिताइक । रातिमे उठा–उठा कए पेसाप कराबए ल’ जाइक । गोलबाके“ तामस होइक । ओ की जानए गेलैक जे ओकरा मुतक छैक । पेसाप लागल रहैक त“ ने † जखन पेसाप लगैक ओ उठिकए गड़गड़ा दैक । ... सोनी–मोनी ओकरा अपने कोठरीमे सुतबैकि । बड़कीमाइ कए दिन कहलकैकि जे ओकरा चितकबरी लग पथियास“ झ“ापि दौक । मुदा सोनी कहैकि जे कहु“ हुराड ल’ जएतैक तखन † आ ओसभ एक बरखधरि गोलबाके“ अपने कोठरीमे सुतबिते रहि गेलैकि । ओ नम्हर भेलैक त“ चट्टीमे गहु“मक भूस्सा भरि कए ओसभ ओछाओन बना देने रहैकि । आमक पात, दुबि, रामझिमनी आदि गोलबाक प्रिय भोजन रहैक । सोनी–मोनी चाऊर भुजि ओहिमे करुतेल सानि क’ खुअबैति छलैकि । गोलबा मस्तस“ खाए । कहैकि जे एहिस“ देह मोटाइत छैक । गोलबाके“ लोक मोट आ कसगर कहकि त“ बड्ड आनन्द अबैक । आ तैँ ओ चपर–चपर क’ खाइक । गेरुका मेला लगलैक त“ सोनी–मोनी मेलास“ फुदना अनने रहैकि आ लाल, हरियर, कारी फुदना ओकरा गरमे बान्हि देने रहैकि । कहैकि जे लालस“ शक्ति बढतैक, हरियरस“ तन्दुरुस्ती आ कारी रहलापर ककरो नजरि नहि लगतैक ।
जेना–जेना ओ बढ़ैत गेल बब्बू ओकर दोस बनैत गेलैक । शुरु–शुरुमे ओ अपन दीदीसभक संगे“ आगा“–पाछा“ करैक । मुदा बादमे बब्बू ओकरापर बेशी ध्यान देबए लगलैक । जखन–तखन ओकर देह सेहारैक । कतहु, कनेको, कोनो दाग नहि लगबाक चाही । कनेको किछु लागि जाइक त“ ओ तुरत साफ करैक, देह मलैक आ पोछ–पाछ करैक । .... एकदिन पेठियास“ चारिगोट घुंघरुबला पट्टा किनि बब्बू ओकर गरमे सोनी–मोनीक फुदना संगहिं बान्हि देने रहैक । गोलबाकेँ अपन गर कनेक भारी जका“ लगलैक आ कुद–फानमे सेहो असहज भ’ गेलैक । घुंघरुक आवाज कानमे झर दैक । कर्कश लगैक । गोलबा मुड़ी हिलाकए पट्टा निकालक प्रयत्न कएलक मुदा ओ निकलएबला थोडेÞ रहैक † उन्टे कान फाड़ए लगलैक । आब त“ दौड़एमे, पछिलका पएरपर ठाढ़ भ’ क’ गरदनि आ आ“खि टेढ़ कए धाही मारएमे सेहो असोकर्य होमए लगलैक । मुदा करो की ? अपने निकालि सकैत नहि अछि † भगवान बोली त“ देने छथिन्ह मुदा सहज भाषा नहि जे ओ बब्बूके“ सम्झाबए सकओ । अन्ततः मन मसोसही पड़लैक ।
गोलबाक सिंघ जनमए लगलैक त“ माथपर कुरिऐनी ध’ लेलकैक । ओ दाबा, खम्हा, आड़ि जहा“ पाबए माथ रगड़ए आ धाही मारए । । बब्बू आब ओकर माथके“ पकड़िकए ठेलए लगलैक । ओकरा नीक लगैक । ओ छड़पिकए पछिला टांगपर ठाढ भ’ बब्बूक हाथपर धाही मारए लागल । बब्बू आ गोलबाक नित्य कर्ममे इहो एकगोट अभ्यास जुड़ि गेलैक आ तकर बाद त“ ओ लड़ाका बनि गेल । दुपहरियामे बब्बू ओकरा गाछीमे टहलाबए ल’ जाइक आ ओतए ओकरा कएटास“ भिड़ए पड़ैक । बेशीके“ ओ लगले भगा दैक मुदा एक दिन ओ हारही लागल छल । ओ त“ बब्बू जे चलाकीस“ ओकरा जीता देलकैक । ततेक जोड़स“ ने जोश बढ़ओलकैक जे विपक्षी डरे भागि पड़ा गेलैक । मुदा, तीन दिनधरि ओकर सिंघलग माथ दुखाइते रहलैक ।
* * * * *
नहि जानि किएक एकाएक घरमे भीड़–भाड़ बढ़ि गेल रहैक । बड़कीमाइ एकदिन बुढ़िया दाईक“े बजओने रहैकि आ तकर लगले दोसर दिन सभ दर–देआदसभक जमघट भेल रहैक । गोलबाके“ घरक गतिविधि किछु विशेष त“ बुझएलैक मुदा ओ किछु बुझि नहि सकल । ओ देखि सकैत अछि । प्राकृतिक रुपस“ ओकरा अपनालेल आवश्यक विषयमे भगवान बुझक जतबे सामथ्र्य देने छथिन्ह ओ ततबे ने बुझत π ओ अपन दिनचर्या क’ सकैत अछि, अपनप्रतिक स्नेह आ बजारल चोटके“ छू सकैत अछि, मुदा दोसरक छुपल भाव वा मनुखक भाषायी अभिव्यक्ति ओकर प्रकृति प्रदत्त सामथ्र्यस“ फाजिलक विषय छैक । तै“ घरमे की चलिरहल रहैक ओ बुझि नहि सकल । ह“, गोलबाप्रति स्नेह किछु बेशीये बढ़ि गेल रहैक । ओना गोलबाके“ केओ ऐंठ–का“ठ खाए नहि देलकैक । शुरुअेस“ कोनो घाओ–घौस नहि होउक, कतहु कटाउक नहि तकर ख्याल सभ केओ रखैत अएलैक अछि । मुदा, एखन ओकर खान–पानपर पहिनेस“ किछु आओर विशेष ध्यान राखल जारहल छलैक । ... एक दिन पुरहित अएलखिन्ह । बड़ीकालधरि पतरा उनटअबैत रहलखिन्ह । जाएकाल बड़Þकीमाइ बहुते रास चाउर दालि , अल्लू आ नूनक संगहिं किछु टका सेहो देने रहैकि । आ तकरबाद घरक नीप–पोत, हाट–बजारक गतिविधि बढ़ि गेल रहैक । दसे दिनक बाद घरमे ढ़ोल–पिपही बाजए लगलैक । सा“झखन क’ गोसांउनि–घरमे कनिया“–मनिया“ आ बुढ़ियादाइ सभक जमघट तथा गीतनाद होमए लगलैक । बब्बूक“े आगा“ राखि नहि जानि कतेक विधवाध कएल गेलैक । ढ़ोल–पिपही आ गीतनादस“ ओकर कान भारी भ’ गेल छलैक । मुदा तैयो सभ किछु रमनगर लगैक । बब्बू हर्षित रहैक तै“ ।
ओहि दिन भोरेस“ भीड़–भाड़ रहैक । गोसाउनि–घरमे पूजा–पाठ भेलैक । ओही क्रममे गोलबाके“ दू गोट छौंड़ा पकड़िकए पोखरि ल’ गेलैक आ नहा देललैक । बड्ड जाढ़ भेलैक गोलबाके“ । माघ महीनाक जाढ़ आ ठढ़ल पोखरिक पानि † छौंडासभ सोझे पोखरिमे बुड़का देने रहैक । बेचारा गोलबा मेमिआए लागल, पैखाना–पेसाप सभ भ’ गेलैक । डरे परान निकलए लगलैक । विवश गोलबाक गर लागि गेलैक । ओ बब्बूक स्मरण कएलक । एखन बब्बू रहितैक त“ एना होइतैक ? .... छौंड़ासभ ओकरा कोरमे उठओने गोसाउनि–घरमे ल’ गेलैक आ बब्बू लग ठाढ़ क’ देलकैक । तखन जा क’ ओकर परान पलटलैक । बुझएलैक, ओकरो एहि समारोहमे सहभागी बनाओल जारहल छैक । ओ चारु भर देखए लागल । जाढ़े देह थरथराइक मुदा तैयो ओ अपनाके“ स्थिर करक पूरा प्रयत्नमे लागि गेल । ओ अपनाके“ स्थिर करएमे लागले रहए कि पण्डितजी जोड़–जोड़स“ मन्त्र पढलखिन्ह आ बब्बू ओकर माथपर अक्षत, फूल आ पानि ढ़ाड़ि देलकैक । माथ सर्द भ’ गेलैक आ केशमे अक्षत फूल घुसिआ गेलाक कारणे“ ओकरा कुरिअइनी लागि गेलैक । ओ जोड़स“ अपन माथ झटकए लागल । पण्डितजी ‘ जय भगवती † जय माते †† ’ चिचिआए लगलखिन्ह । बब्बू पाछाँ हटि गेलैक । एक गोटे पाछा“स“ ओकर दुनू पएर पकड़ि लेलकैक । दोसर ओकर गर्दनपर हाथ फेरए लगलैक । .... आ .... छपाक †
* * * * *
आहिरो † ई की भेलैक ?† ओ त“ अपन धरस“ अलग भ’ गेल अछि ††† आब ने ओ धरस“ अलगे फेकाएल माथमे अछि ने धरेमे । ओ अपन अलग भेल मुड़ीक मुआयना करैत अछि । असह्य पीड़ाक प्रतिविम्व छैक – उनटल आ“खि आ दा“त तर दने निकलक जीभ । दा“तक दबाब एतेक जे आधा जीभ कटाइये गेल छैक । धरोक हालत ठीक नहि छैक । छिड़िआएल चारु टांग आ तानल धर एकदम कड़ा भ’ गेल छैक । ओ अपनाके“ एकदम हल्लुक पाबिरहल अछि । अनन्त अन्तरिक्षक यात्राक हड़बड़ी भ’ गेल छैक एहि अनन्त यात्राक कतहु कोनो पड़ावपर ओकरा दोसर शरीर धारण करक छैक । नहि जानि ओ पड़ाव कतए हएतैक ? तखने ओ पुनः दुःःख–सुख आ भावनाक संवेगके“ भोगि सकत । स्वाद आ श्रंगारक रस पिबि सकत । अथवा अन्य कोनो अनुभूति ल’ सकत । .... गोलबा पुनः एकबेर स्थितिक जायजा लैत अछि । सोनी–मोनी पानि गरमारहलि छैकि । छौंड़ासभ ओकर धर छोलएलेल केराक पात आ औजारसभ ठीक क’ रहल अछि । भन्सीआसभ बडका कराह आ भट्ठीक प्रबन्ध मिलारहल अछि । बड़कीमाइ कनिया“–मनिया“सभके“ मर–मसल्ला, तेल, पिआउज आदिक वन्दोवस्तमे लगओने छैकि । पिअर, धोती, कुत्र्ता आ गमछामे मुण्डित माथ नेने बब्बू अपन दोससभक संग ह“सि–ह“सि क’ बतिआरहल अछि । दरबज्जापर दरदेआदसभ मस्त खैनी चुनबैत गप्प–सप्पमे लागल छैक । चितकबरी नोराएल आ“खिस“ अपन पहिल बेटाक धरदिसि टुकुर–टुकुर ताकिरहलि अछि ।
.... ओ कोनो झोंका जका“ अन्तरिक्षदिसि उधिया जाइत अछि । एकदम निस्पृह भावे“ † ई सभ स्वाभाविक छैक । ओहो स्वाभाविक रुपे“ प्रकृतिक स्वाभाविक प्रक्रियामे आगा“ बढि जाइत अछि । आब ओ गोलबा कहा“ अछि †
बिपिन झा
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पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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