ISSN 2229-547X VIDEHA
'विदेह' ९२ म अंक १५ अक्टूबर २०११ (वर्ष ४ मास ४६ अंक ९२)
ऐ अंकमे अछि:-
२.२.- अतुलेश्वर- किछु विचार टिप्पणी
२.३.चन्द्रेश-यर्थाथक अनुभुतिमे ऐतिहासिक दिनः झिझिया नृत्य महोत्सव
२.४. जवाहर लाल कश्यप-एक टा विहनि कथा
२.६.जगदीश प्रसाद मण्डल- १.वीरांगना/ तामक तमघैल
२.८.नवीन ठाकुर-चंदा मामा आ चंद्रमा
३.१.१.शांतिलक्ष्मी चौधरी २.ज्योति सुनीत चौधरी
३.२.१.इरा मल्लिक २ओमप्रकाश झा ३.उमेश पासवान
३.३.१. जगदीश चन्द्र ठाकुर ’
अनिल’
२.मिहिर झा
३.४.१.शिवशंकर सिंह ठाकुर
३.६.१. नवीन ठाकुर २.रमा कान्त झा
४. मिथिला कला-संगीत-१.ज्योति सुनीत चौधरी २.श्वेता झा (सिंगापुर) ३.गुंजन कर्ण ४.इरा मल्लिक ५.राजनाथ मिश्र
५. गद्य-पद्य भारती:बिपिन कुमार झा-श्री देवब्रत बसुक संस्कृत कथाक मैथिली अनुवाद- सुख केँ मृगमरीचिका बुझू।
६.बालानां कृते-१. डॉ॰ शशिधर कुमर “विदेह” २. इरा मल्लिक ३.कुन्दन कुमार ४.कैलाश कामत
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भारतीय डाक विभाग द्वारा जारी कवि, नाटककार आ धर्मशास्त्री विद्यापतिक स्टाम्प। भारत आ नेपालक माटिमे पसरल मिथिलाक धरती प्राचीन कालहिसँ महान पुरुष ओ महिला लोकनिक कर्मभमि रहल अछि। मिथिलाक महान पुरुष ओ महिला लोकनिक चित्र 'मिथिला रत्न' मे देखू।
गौरी-शंकरक पालवंश कालक मूर्त्ति, एहिमे मिथिलाक्षरमे (१२०० वर्ष पूर्वक) अभिलेख अंकित अछि। मिथिलाक भारत आ नेपालक माटिमे पसरल एहि तरहक अन्यान्य प्राचीन आ नव स्थापत्य, चित्र, अभिलेख आ मूर्त्तिकलाक़ हेतु देखू 'मिथिलाक खोज'
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१. संपादकीय
स्वीडनक कवि टॉमस ट्रांसट्रोमरकें २०११क साहित्य लेल १.५ मिलियन डॉलरक नोबल पुरस्कार देबाक घोषणा कएल गेल अछि| स्वेडिश एकेडमी कहलक "ओ अपन घनगर पारदर्शी बिम्बसं सत्यक एकटा नव द्वारक परिचय करेलनि"|
हुनकर पोथी सबहक अंगरेजी अनुवाद रहनि "द ग्रेट एनिग्मा ", "द हाफ फिनिश्ड हेवेन ", द डिलीटेड वर्ल्ड " |
ओ अस्सी बरखक छथि| ओ १५ सं बेशी कविता संग्रह लिखने छथि जे अंगरेजी आ ६० आन भाषामे अनूदित भेल अछि| हुनकर जन्म स्टोकहोममें भेलनि|
ओ मनोचिकित्सक रहथि आ हुनकर कवितामे मानवताक गहन मनोविज्ञानिक विश्लेषण भेटैत अछि |हुनकर कविता गूढ़ मुदा सोझ होइत अछि | हुनकर कविता वैयक्तिक आ सार्वत्रिक दुनू अछि| हुनकर कविता एहेन गूढ़ नै होइए जइपर चिंता करैत रहू, वरन ओ धरातलसं अस्तित्वक उच्च शिखर दिस ल' जाइए |हुनकर स्वेडन क नम्हर शीतकालक विवरण , ऋतुक लय, आ प्रकृतिक सौन्दर्य वातावरणक अद्भुत विवरण हुनकर कवितामे भेटैत अछि |
हुनकर माता स्कूल शिक्षिका आ पिता पत्रकार रहथि आ ओ साहित्य , इतिहास , धर्मशास्त्र आ मनोविज्ञान पढने छथि |
१९९० सं ओ एकटा आघातक बाद बजबामे सक्षम नै छथि|
१९९३ का बाद अमेरिका ककरो साहित्यक नोबल नै भेटल छै| १९७४ क बाद आब जा क' कोनो स्वेडिश कें ई पुरस्कार भेटल छै|
नोबल समिति आब गएर यूरोपीय भाषाक बेशी साहित्यिक पोथीपर विचार करत|
( विदेह ई पत्रिकाकेँ ५ जुलाइ २००४ सँ अखन धरि ११६ देशक १,९४० ठामसँ ६८,०७२गोटे द्वारा विभिन्न आइ.एस.पी. सँ ३,२४,२३६ बेर देखल गेल अछि; धन्यवाद पाठकगण। - गूगल एनेलेटिक्स डेटा। )
गजेन्द्र ठाकुर
ggajendra@videha.com
http://www.maithililekhaksangh.com/2010/07/blog-post_3709.html
हम पुछैत छी- देवशंकर नवीनसँ मुन्नाजी पुछैत छथि ढेर रास गप। 1. अहाँक साहित्यिक लेखन-प्रक्रिया कोना आ कत’ए प्रारम्भ भेल? पहिल बेर कोन विधाक कोन रचना कत’ आ कहिया छपल पूर्ण जनतब दी।
नेनमतिएसँ फकड़ा जोड़बाक चसक सवार भ’ गेल छल। एक बेर ओ फकड़ा किनकहु भावनाकें आहत केलकनि, ओ हमर पिता लग शिकायत केलनि। ओइ दिन चमरौधा जूतासँ हमर पिटाइ भेल छल। कैक दिन धरि ज’र लागल रहल।...
सन् 1972मे हम अठमा क्लासमे रही। ठीक-ठीक मोन नइँ पड़ै’ए, मुदा ओही लगाति नौमा-दसमा क्लासमे अबैत-अबैत फिल्मी गीतक ओजन पर पैरोडी गीत लिखए लागल रही, जकर गायन हमर गामक कीर्त्तन मण्डलीमे भेल करए। ओही क्रममे गाम भरिमे प्रचार होअए लागल। क्रम आगू बढ़ैत गेल। तै समयमे साहित्यक माने कोनो विचित्र आ विलक्षण भाव-बोधक तुकबन्दी बुझैत रही।...
सन् 1976मे मैट्रिक पास केलहुँ। सहरसा कॉलेज, सहरसामे नाम लिखाओल। सन् 1978-80 सत्रमें बी.एस-सी.मे पढ़ैत रही। कॉलेज-पत्रिकामे हमर एकटा कविता मैथिलीमे छपल छल। पहिल प्रकाशन ओएह थिक, मुदा ओ कविता कतए गेल, पता नइँ! ता धरि सय के लगाति पैरोडी आ फकड़ा लिखि चुकल रही। ओही दिनमे हमर लिखल एकटा पैरौडी गीत सुनिकए हमर कक्का प्रो.नारायण झा(एखन ओ वीरपुर कॉलेजमे अंग्रेजीक अध्यापक छथि)हमरा महादेवी वर्माक पोथी सब पढ़बाक सलाह देलनि। किछु-किछु पढ़ए लगलौं। सन्1981-82क मध्य सहरसामे पाँच विषयमे एम.ए.क पढ़ौनी शुरुह भेलै। मैथिलीमे एम.ए. करबाक रुचि हमर जागि उठल। मिथिला मिहिर पत्रिका पढ़ए लागल रही। एम.ए.मे नामांकन भ’ गेल। क्लासमे पढ़ौनी शुरुह भ’ गेल। कक्षामे हमर अलावा स’ब गोटए विधिवत् ऑनर्स आ साहित्यक पोथी पढ़ि-पढ़ि आएल छलाह। एकटा हमहीं रही, जकरा किछुटा बोध नइँ छलैक। साइन्सक छात्रकें भाषाक बोध नइँ रहै छै--अइ किम्बदन्तीक आधार पर शुरुह-शुरुहमे आन सहपाठी लोकनि कोनो मानि-मोजर नइँ दैथि, मुदा क्रमे-क्रमे से सहज होअए लागल। ओही बीच सन् 1983मे सहरसा कॉलेजमे विद्यापति समारोह आयोजित भेल छल।‘मैथिली लोकसाहित्य’ पर लेख प्रतियोगिता आयोजित भेल छल। बिहारक तत्कालीन राज्यपाल अखलाख-उर-रहमान किदवईक हाथें पुरस्कृत भेल रही। हौसला बढ़ि गेल छल। सहरसा परिसरक मैथिलीक विद्वान लोकनिक बीच पहचान बनए लागल छल। पैरोडी लेखन पाछू छूटि गेल। साहित्यिक पोथी-पत्रिका पढ़बाक खगता होअए लागल। सन् 1983मे मिथिला मिहिरमे एक टा कविता प्रकाशित भेल--मिथिलाक वासी।...तखनहुँ धरि तुकबन्दी मात्रकें हम कविता बुझैत रही। ओही बीच राजकमल चौधरीक दू टा मैथिली कथा--‘ननदि भाउजि’, ‘एकटा चम्पाकली: एकटा विषधर’ आ एकटा हिन्दी कथा ‘जलते हुए मकान में कुछ लोग’ पढबाक अवसर लागल। ई तीनू कथा हमर दुनियाँ बदलि देलक। यात्री आ राजकमल चौधरी अही समयमे सम्मोहित केलनि। सम्मोहन बढै़त गेल, पाठ्य-पुस्तकक क्षेत्र बढै़त गेल। लिखैत-पढै़त रहलहुँ... इएह कथा अछि। समवयस्की साहित्यिक बन्धु लोकनिमे सबसँ पहिल परिचय आ प्रगाढ़ता तारानन्द वियोगीसँ भेल।...
2. मैथिलीमे सतरि के दशक वा ओकर पाछू जुड़ल रचनाकार द्वारा बहुत रास विधा(दुनू विधाक बहुत रास प्रकार) पर काज भेल, अहाँ अइ मध्यम पीढ़ीक रचनाकारक क्रियाशीलताकें कोन नजरिएँ देखै छी?
अहाँ प्रायः ई पूछए चाहै छी जे बीसम शताब्दीक सातम आ आठम दशकक रचनाकारक क्रियाशीलता केहन रहलनि? जँ सएह सत्य, तँ हम सबसँ पहिने अइ बीस बर्खक अन्तरालमे क्रियाशील प्रमुख रचनाकारक नाम गनबए चाहब।
अइ अन्तरालक अमूल्य विशेषता ई छल, जे पछिला पीढ़ीक कतोक रास नव-पुरान(वयस आ विचार दुनूसँ) रचनाकार लोकनि एक संग सक्रिय छलाह। ओहिमेसँ प्रमुख छथि--सीताराम झा, कांचीनाथ झा’ किरण, हरिमोहन झा, तन्त्रनाथ झा, काशीकान्त मिश्र ‘मधुप’, सुरेन्द्र झा‘सुमन’, वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’, आरसी प्रसाद सिंह, ब्रजकिशोर वर्मा ‘मणिपद्म’, गोविन्द झा,रामकृष्ण झा ‘किसुन’, चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’, राजकमल चौधरी, ललित, मायानन्द, सोमदेव,धीरेन्द्र हंसराज, लिलि रे, बलराम, रामदेव झा आदि।
सातम दशकमे अपन प्रखर ऊर्जाक संग जे झमटगर पीढ़ी ठाढ़ भेल, ताहिमे प्रमुख छथि--धूमकेतु, रमानन्द रेणु, राजमोहन झा, गंगेश गुंजन, प्रभास कुमार चौधरी, कीर्तिनारायण मिश्र,वीरेन्द्र मल्लिक, मार्कण्डेय प्रवासी, साकेतानन्द, जीवकान्त, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, रामानुग्रह झा,कुलानान्द मिश्र, भीमनाथ झा, मन्त्रेश्वर झा, उदयचन्द्र झा ‘विनोद’, उपेन्द्र दोषी, सुकान्त सोम, महाप्रकाश, महेन्द्र मार्कण्डेय, सुभाष चन्द्र यादव, उषाकिरण खान, रामलोचन ठाकुर,उदयनारायण सिंह ‘नचिकेता’, बुद्धिनाथ मिश्र आदि।
अइ पीढ़ीक पाछुए लागल अगिला पीढ़ी ढाढ़ भ’ गेल। अहाँ मानि सकै छी, जे आठम दशकक नामे जाहि पीढ़ीक नामकरण होइत अछि, तकर कतोक रचनाकार सातमे दशकक अन्तिम समयमे चैंचक होइत अपन, ऊर्जाक संकेत देबए लागल छलाह। अइ पीढ़ीक महत्त्वपूर्ण नाम थिक--विभूति आनन्द, शिवशंकर श्रीनिवास, अशोक, पूर्णेन्दु चौधरी, ललितेश मिश्र, विनोद बिहारी लाल, अग्निपुष्प, केदार कानन प्रदीप बिहारी, सियाराम सरस, तारानन्द वियोगी,विभारानी, नारायणजी, शैलेन्द्र आनन्द, रमेश, नीता झा, शैलेन्द्र कुमार झा, ज्योत्स्ना चन्द्रम,सुस्मिता पाठक, आदि। हमर प्रवेश अपेक्षाकृत देरीसँ भेल।
अइ अन्तरालक रचना-कर्म पर चर्चा करबा लेल किछु महत्त्वपूर्ण बात पर ध्यान देब आवश्यक होएत। सन् 1947मे भारत देश स्वतन्त्र भेल आ सन् 1949मे महाकवि वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’क कविता संग्रह चित्रा प्रकाशित भेल--ई मात्र संयोग नइँ थिक। प्रथम स्वाधीनता संग्रामसँ स्वाधीनता प्राप्ति धरिक नब्बे बर्खक अन्तरालमे मैथिलीक पूर्वज रचनाकार लोकनि मातृभाषाक प्रति परम अनुराग रखितहु कोनो क्षेत्रीय धारणासँ प्रेरित नइँ भेलाह, स्वाधीनता संग्रामक लक्ष्य पूर्तिमे लागल छलाह। स्वाभाविक छल जे सन् 1930-35क लगाति रचनारत लोक सभक मुख्य चिन्ता सेहो ओएह बनल। मुदा, ओहि कालक मिथिलाक स्थानीय समस्या सब सेहो प्रबल छल। विद्यापति, गोविन्द दाससँ होइत मनबोध,चन्दा झा धरि मैथिली भाषा साहित्यक स्वरूप तँ बड़ आगू आबि गेल छल, मुदा अंग्रेजी शिक्षाक प्रचार-प्रसार बढ़ि गेने स्थानीय अस्मिता संकटपूर्ण देखाए लागल छल। स्वाधीनता प्राप्तिक बादहु मैथिली कोनहुँ जनपदक राजभाषा नइँ बनल। मातृभाषाक माध्यमे शिक्षा-दीक्षाक व्यवस्था मैथिल लेल नइँ भेल। मातृभाषाक प्रति अनुराग आ ममता रखनिहार मिथिलाक जनसाधारण तथा प्रतिबद्ध रचनाकर्मीकें अइ बातक आघात लगलनि। चन्दा झासँ ल’ क’ भुवनेश्वर सिंह ‘भुवन’ आ कांचीनाथ झा ‘किरण’ धरिक जे रचनाकार लोकनि समस्त आग्रह छोड़ि, निष्ठासँ स्वाधीनता संग्राममे अपन योगदान देने छलाह, हुनका आ हुनकर अनुवर्ती पीढ़ीक रचनाकार लोकनिकें ई झटका अत्यधिक आहत केलकनि।
एकर अलावा वंशवाद, जातिवाद, आ धार्मिक पाखण्डक कारणें जते कुसंस्कार मिथिलामे ओहि समयमे पोनकि क’ भकरार भ’ गेल छल, से जनजीवनकें एकदमसँ आक्रान्त केने छल। बाल विवाह, बहु विवाह, बेमेल विवाह आदि वंशवादक सहारचरण छल। किशोरावस्था आ युवावस्थामे अंसख्य कन्या विधवा भ’ जाइ छलीह; स्त्रीकें स्त्रीधन कहल जाइ छल; ओ पुरुख-पात्रक अथवा खानदानक सदस्य नइँ , इज्जत होइ छली; चाही तँ माथ पर, चाही तँ बजारमे, चाही तँ पैर त’र राखि लिअ’।
अइ दुरवस्थाक कारणें मिथिलाक सृजनधर्मी वातावरणमे स्तब्धताक माहौल आबि गेल छलै। अइ समयमे मिथिलाक जनपदीय भाषाक रूपमे कमासुत लोकनिक बीच विकासमान भाषा तँ मैथिलीए छल। वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’ कमासुत आ काजुल लोकनिक अइ विकासमान भाषामे कमासुत लोकनिक स्वप्न देखए लगलाह। सन् 1941मे रचित कविता‘कविक स्वप्न’मे देखल बिम्ब ओही कमासुत लोकनिक स्वप्न थिक। कहि सकै छी जे महाकवि वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’क कविता संकलन ‘चित्रा’ ओइ कालक सामूहिक भावनाक उद्घोष साबित भेल। यद्यपि, एकर सूत्रपात पहिनहि, हुनकर पूर्ववर्ती कवि सीताराम झा,कांचीनाथ झा ‘किरण’, काशीकान्त मिश्र ‘मधुप’, भुवनेश्वर सिंह ‘भुवन’द्ध हरिमोहन झा आदि क’ चुकल छलाह। देशदशा आ मिथिला समाजक दयनीय स्थिति पर व्यंग्य, धिक्कार आ क्रोधसँ परिपूर्ण अभिव्यक्ति हुनका लोकनिक रचनामे आबि चुकल छल। जीवन झा, यदुनाथ झा ‘यदुवर’, छेदी झा ‘द्विजवर’, पुलकित लाल दास, रघुनन्दन दास, भोला लालदास, ईशनाथ झा आदिक नामोल्लेख सेहो अइ क्रममे उचित थिक, जिनकर रचनाधारामे राष्ट्रीय चिन्ता आ आम नागरिकक सपना अंकित छल।
महाकवि यात्रीक सृजनात्मक जीवनक फलक तँ पैघ छनिहें, ओहिसँ बेसी विराट हुनकर रचनाक फलक छनि। स्वातन्त्र्योत्तरकालीन मिथिला समाजक जीवन-क्रमकें जड़तासँ चेतनोन्मुख होइत अपना आँखिएँ देखैत रहलाह। अपन रचनाक प्रभावक परिणाम हुनका क्रमे-क्रमे देखाइत रहलनि। रचनात्मक सन्धानमे ओ योजनाबद्ध पद्धति अपनौने छलाह। सम्मुख ठाढ़ विकराल अन्हारकें मेटएबा लेल हुनकर समकालीन कवि ‘सुमन’ आ ‘आरसी’क अपेक्षा कनेक बेसिए तीक्ष्ण ध्वनिसँ पूर्व पीढ़ीक सीताराम झा आ कांचीनाथ झा ‘किरण’तत्पर रहथिन। हमरा लोकनिक जाहि मानवीय सम्बन्ध-सरोकार आइ जातिसँ चीन्हल जा रहल अछि; आ जाहि वर्गहीन समाजक सपना हम आइयो देखि रहल छी, से सपना सीताराम झा तहिए देखलनि, कहलनि--भेदहीन मानव-समाज एक जाति हएत।...जाहि धर्मान्धता आ पाषाण-मूर्ति पूजनमे मिथिलाक सशक्त हाथ जुटल रहै छल, तकर शक्तिक घोषणा आ अन्धविश्वासक खण्डन कांचीनाथ झा ‘किरण’ तहिए क’ देलनि। पूजा पबैत माटिक महादेवकें कहलनि--बलवान मानवक हाथक बलसँ बैसल छह तों सराइ पर... सुमन आ आरसी ओहि कालक बेस प्रशस्त कवि छथि; प्रगति आ विकासक प्रति, राष्ट्रक उन्नतिक प्रति हिनका लोकनिक बेस आस्था छलनि। श्रमशील लोकनिक प्रति पर्याप्त सम्मान रखै छलाह;मुदा कोनो नव बाट तकबा लेल अथवा बनएबा लेल कोनो सामान्यो उत्साह आ आग्रह नइँ छलनि। यात्री जकाँ पुरानकें तोड़ियो क’ न’वकें स्थान देबाक उत्साह नइँ छलनि; अभिप्रेत छलनि जे न’व आबथु, अवश्य आबथु, मुदा पुरानक अधीनता स्वीकार करैत। अकारण नइँ थिक जे वर्षा ऋतुमे जखन--मेघ पड़ै छै, बुन्न झरै छै तँ आरसी प्रसाद सिंहक ‘मन मोर’ नाच’ लगै छनि आ कोनो प्रियाक कजराएल दृगसँ नोर खसैत बुझाइ छनि, मुदा यात्रीकें जखनहि-- गरजल इन्द्रक हाथीèछाड़ि नचारी गाबए लगला गिरहथ लोकनि मलारप्रमुदित दूबिक सीर-सीरèअछि पुलकित कूशक पेंपी...। अही बीच ब्रजकिशोर‘मणिपद्म’, गोविन्द झा, रामकृष्ण झा ‘किसुन’, चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ आदि लोकनि प्राणपणसँ लेखनमे जुटलाह। स्वातन्त्र्योत्तर कालक असन्तोष मुदा किनकहु रास नइँ अएलनि। चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’, गाँधीजीकें उलहन देबए लगलाह--देखहक हौ गाँधी बाबा तोरो स्वराजमेè...धरती से बाँझ पड़ल बनि परतीèकरती बहुआसिन की चुलहा जरा क’नेना करै’ छनि खाँहि-खाँहि हौ!... ओम्हर रामकृष्ण झा ‘किसुन’ बाँझी लागल वृद्ध जर्जर गाछक उखड़ि गेने आश्वस्त होअए लगलाह।
कह’क चाही जे वैद्यनाथ मिश्र ‘यात्री’क चित्रा(1949) आ राजकमल चौधरीकस्वरगन्धा(1959)क बीच रामकृष्ण झा ‘किसुन’ मैथिलीक जबर्दस्त सूत्र रूपमे काएम रहलाह। अगिला पीढ़ीक नायक कवि राजकमल चौधरी भेलाह। एतए धरि अबैत-अबैत मैथिली सकारात्मक रूपसँ बेस मुँहजोर भ’ गेल। जे कहबाक छलै, ताहिमे कोनो धरी-धोखा नइँ । स्वरगन्धाक प्रकाशनसँ पूर्वक मैथिली कविताक विकास-क्रममे आन भाषा जकाँ कोनो टोप-टहंकारसँ घोषणा अथवा दलबन्दी आदि नइँ भेल। मुदा ई बिसरबाक नइँ थिक जे किरण, भुवन, मधुप, यात्रीक प्रयासें बनल अइ मन्दिरमे भकरार इजोतक टेमी राजकमल चौधरीए लेसलनि। पछाति मायानन्द मिश्रक कविता संग्रह ‘दिशान्तर’क कविता आ ओकर भूमिकासँ, आ फेर राजकमल चौधरीक निबन्ध ‘हमरा लोकनिक युग आ आधुनिक मैथिली कविता’सँ बात आओर फरीछ भेल। सन् 1949सँ सन् 1959 धरि; आ तकर बाद फेर आइ धरिक युगान्तकारी मैथिली साहित्य तकर उदाहरण थिक। एहि अन्तरालक समस्त ऊर्जावान रचनाकार लोकनि अपना-अपना समयक मैथिल नागरिक(स्त्री-पुरुष, सवर्ण-अवर्ण,हिन्दू-मुसलमान, शिक्षित-अशिक्षित, पालक-पालित, चाकर-स्वामी, दाता-याचक, भुक्त-भोगी...)कें अपना-अपना पक्ष लेल अर्थ-तन्त्र, समाज-व्यवस्थाक व्यूह आ पारम्परिक सम्बन्धक दुर्गसँ टकराइत देखलनि अछि; आ तकरा अंकित केलनि अछि।
मोटे कहल जएबाक चाही जे सन् 1931सँ 1959 धरिक समय मैथिलीमे पुनर्जागरणक समय थिक, अही अवधिमे उद्भूत चेतना, समय आ सुविधा पाबि कर्त्ता-धर्त्ता लोकनिक विवेक आ कौशलकें उर्ध्वोन्मुखी केलकनि; आ तकरे परिणाम आगू धरिक साहित्यमे परिलक्षित भेल। व्यवस्थाक विरोध करैत, स्थापित काव्यधारासँ पृथक बाट धरैत आगू बढ़बाक उद्यम सब कालक नवोन्मेषमे देखल गेल अछि। अही नवोन्मेषमे विलाप,निस्सहाय, अशक्य अवस्थाक चित्रण छोड़ि रचनाकार लोकनि जनशक्तिक जागृतिक प्रति आस्था व्यक्त केलनि। घोषणा भेल जे--अहिल्याक डरें गौतम ऋषि कँपै छथि थरथरआब नइँ मुनि शापें हेतीह ओ पाथर(राजकमल चौधरी); फूटल घैलक खपटा जकाँ हम अपन अतीतकें इतिहासक गलीमे फेकि आएल छी(मायानन्द मिश्र); चेतना रहल ताकए हमर माथमे घी-दूध नहिओ जुटओèमुदा दालि रोटी के छीनत?(धीरेन्द्र)...सन्1960क बाद देखल गेल जे ई प्रवंचना बढ़ले जा रहल अछि, स्थापित विचार-व्यवस्थाक प्रति विमुखता, व्यवस्थाक निरर्थकता आ व्यर्थताबोध, एसगरमे भीड़ आ भीड़मे एसगर हेबाक जटिल प्रक्रिया, निषेध-नकारक भाव...असीम छल। नव मोहावरा, नव शब्दावाली, जीवन-व्यवस्थाक विविध गतिविधिक नव बिम्ब, जनोन्मुख भाषा विधान, प्रहारोन्मुख ध्वनि,आत्मालोचन धरिमे निर्ममता आदि...अइ कालक रचनाक मुख्य प्रवृत्ति बनल। रचनाकार लोकनिकें विशिष्ट कहएबाक अपन महत्वाकांक्षा केर दाह संस्कार करब उचित(कीर्तिनारायण मिश्र) बुझेलनि; जिनगीक उत्ताप आ मनुष्यक शाश्वतता पर प्रश्न उठेनिहार पर अँगुरी उठेलनि--जिनगीक आगिमेèमृत्यु जरि गेलèके कहलक जे मनुक्ख मरि गेल?(रामकृष्ण झा ‘किसुन’)। घोषणा केलनि जे हम अपन सपना तोड़ि लेलèआब हम ओकर सपना देखए लगलहुँ जे हमरा लेल खेतमे भातक गाछ रोपैत अछि(मायानन्द मिश्र); कहलनि जे इच्छुक छी काल्हि प्रात छीन ली टीन किरासिन दीप बुतबए आओत जे, तै मशालचीसँ(सोमदेव)। अर्थात सन् 1960क पश्चात, पीढ़ीसँ पीढ़ीमे अपन गुण-सूत्र पसारैत मैथिली साहित्य अद्यतन भेल।
नक्सलबाड़ी आ तेलंगानामे भेल किसानक जागृतिसँ जे कृषक क्रान्ति भेल, तकर असर भारतक सब भाषाक साहित्य पर पड़ल; नगरोन्मुखक साहित्य ग्रामोन्मुख भ’ गेल; कृषक चेतना पसरि गेल; मैथिलीमे सेहो एकर प्रभाव स्पष्ट हेबाक चाही छल। सातम आ आठम दशकमे क्रियाशील समस्त न’ब आ पुरान पीढ़ीक रचनाकर अपन विषय-बोध आ रचना-कौशलक परिचय देलनि। अपन पूववर्ती पीढ़ीक रचनात्मकतासँ प्रेरणा लैत अइ अन्तरालक रचनाकार लोकनि अइ समस्त दायित्वक संग आगू बढ़लाह। सन् 1966क बिहार, उड़ीसाक दुर्भिक्ष, सन् 1967क चुनावक पश्चातक सम्विद सरकारक गठन, आ सन् 1967क नक्सलबाड़ी आन्दोलनक सफलतासँ भारतक समस्त भाषाक सृजनकर्मीक संग-संग मैथिलीक जाग्रत चेतनाक रचनाकार लोकनि चौंचक भेलाह। सन् 1947सँ 1977 धरिक तीन दशक भारतीय नागरिक लेल छल-प्रपंच, दमन-उत्पीड़न, अभाव-कुभावे टाक नइँ ; अनिश्चय,दिशाहीनता, विचार शून्यता, संशय, पाखण्ड, अराजकता, दानवतासँ सेहो भरल रहल। स्वार्थपूर्ति हेतु देशक विवेकहीन नागरिक, दुनियाँ भरिक दुर्वृत्तिमे फँसैत गेल, प्रभुत्व जुटएबा लेल समस्त शील-सभ्यता, मानवता बिसरैत गेल। बिसरबाक एहि क्रममे लोक इहो बिसरि गेल जे प्रभुत्वक पहिल आ अन्तिम पहचान सभ्यता थिक, मानवता थिक। राजनीतिक-सामाजिक चेतना एतए सूक्ष्मसँ सूक्ष्मतर होअए लागल। बारम्बार पड़ोसी राष्ट्रक संग सीमा-संघर्ष, पार्टी विभाजन भेल, राजनीतिक मतभिन्नता, आपातकालक घोषणा भेल, राजनीतिक पतन, अपराध, आ आपराधिक राजनीतिक शृंखला, मन्दिर मस्जिद विवाद, लूट-पाट, हत्या,राहजनी, अपरहण, बूथ कैप्चरिंग, घपला, घोटाला, साम्प्रदायिक दंगा आ जातीय द्रोह...सबटा अही अवधिक उपज थिक। ई समस्त दुर्वृत्ति रिले रेशक करतब जकाँ बढै़त रहल। आम चुनाव, मध्यावधि चुनावक शृंखलासँ देश पर अपव्ययक बोझ लादैत गेल। अकाल, दुर्भिक्ष,बाढ़ि, सुखाड़, भूकम्प, अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि-आदि प्राकृतिक आपदा सबसँ तँ समाज तबाह छलहे, मनुष्य द्वारा सृजित तबाही लोककें आओर त्रस्त क’ देलक। विज्ञानक विनाश आ विध्वंसकारी परिणति सेहो कम उत्पाती साबित नइँ भेल। अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर आर्थिक उदारीकरण भेल। विश्वग्रामक अवधारणा बढ़ल। बहुराष्ट्रीय कम्पनीक आगमन आ नव शिक्षा नीतिक कारणें व्ययसाध्य रोजगारोन्मुख डिग्री-डिप्लोमा शुरुह भेल, शिक्षाक परिदृश्य बदलि गेल। अन्तर्राष्ट्रीय चिन्तन फलकसँ सम्पर्क भेने साहित्यिक क्षेत्रमे नव-नव विचार पद्धतिक प्रवेश भेल। साहित्यालोचनक उपस्कर समाज-व्यवस्था भ’ गेल। जीवन-क्रम आधुनिकसँ उत्तर आधुनिक भ’ गेल। भारतीय साहित्यमे दलित प्रश्न, स्त्री-विमर्श, उत्तर उपनिवेशवाद, वंशवादक विरोध आदि विचार-बिन्दु प्रमुख भ’ गेल। जे विभूति आनन्द ‘चूल्हि महक छाउरसँचिनगी बीछि रहल’ माइकें देखि प्रमुदित’ होइ छलाह, से ‘आस्ते-आस्ते गाममे पक्की सड़क’ अबैत देखि प्रसन्न भेलाह, तहिआ नइँ बूझि सकल छलाह जे ‘एक दिन एही सड़क द’ क’èहमर अपन गामसँ गाम भागि जाएत ल’ जाएत भगा क’ हमरो...।’तारानन्द वियोगीकें अनुभव भेलनि जे ‘अहीं ठीक कहै छी बाबा, अन्यायक विरुद्ध लड़बाक उमेर कहिओ नइँ बीतै छै...’ मैथिलीमे सातम आ आठम दशकक रचनात्मक उद्यमकें हम अही अभिप्रेरणा आ दायित्वक नजरिसं देखै छी।
3. सतरि के दशक मध्य मैथिलीमे समाजवादी अवधारणा मूड़ी उठेबाक प्रयास केलक ओकर की स्थिति रहलै, अहाँ सब ओइसँ कतेक प्रभावित-अप्रभावित रहलौं?
जेना कि पछिला प्रश्नक उत्तरमे कहलहुँ, कोनहुँ भाषाक साहित्यमे कतबो क्रान्तिधर्मी पीढ़ी आबि जाथु, हुनका अपन पूर्ववर्ती द्वारा कएल-धएल महत्त्वपूर्ण काजक सम्मान करबाक चाहिअनि। परम्परासँ विछिन्न भ’ कए कोनहुँ टा प्रगति व्यवस्थित नइँ होइत अछि। तें हम मानै छी, जे हमरा पीढ़ी द्वारा साहित्यमे जते काज भ’ रहल अछि, ओ पूर्ववर्ती द्वारा कएल गेल महत्त्वपूर्ण काजक विकास-सूत्र थिक। ई पीढ़ी अपन पूर्ववर्तीक तुलनामे जे किछु बेहतर क’ सकल अछि, ताहिमे अइ पीढीक ऊर्जा, प्रतिभा आ रचनात्मकताक संग-संग पूर्ववर्ती पीढ़ीक महत्त्वपूर्ण काजक प्रेरणा आ समय-चक्रक अवदानक महत्त्वपूर्ण भूमिका अछि। हमर अइ धारणासँ सब गोटए सहमत होथु, से कोनहुना आवश्यक नइँ। हम व्यक्तिगत रूपें अपन पूर्ववर्तिए टा नइँ, कतोक बेर अपन समवर्ती आ अनुज पीढ़ीसँ से सेहो प्रेरणा ल’ लै छी। हमर ई दृढ़ मान्यता अछि जे दुनियाक स’बो टा काज हम नइँ क’ सकै छी। खाहे समयक अभावमे, खाहे प्रतिभा आ ऊर्जाक अभावमे। तें कोनो बिन्दु पर जँ व्यक्ति कोनो महत्त्वपूर्ण काज क' रहलाह अछि, तँ हुनकर सराहना कएल जएबाक चाही। थुक्कम-फजहतिमे लागल रहब अपन प्रतिभा आ ऊर्जा दुनूक अपमान थिक।
4. अहाँ सभक प्रारम्भिक कालमे जुड़ल साहित्यिक मित्र-मण्डलीकें एकटा विशेष समूहबाजी लेल जानल जाइत अछि। किछु गोटए द्वारा ओतबे गोटएक बीच चर्चा परिचर्चा वा सब उकस-पाकस (साहित्यिक) केन्द्रित रहल। किएक?
अइ ‘समूहबाजी’क उत्खनन के केलनि, हमरा से नइँ बूझल अछि। समूहबाजीमे के-के लागल छथि, सेहो हमर चिन्ताक विषय नइँ थिक। हम किनकर समूहमे छिअनि, से हमरा ज्ञात नइँ अछि। एतबा जनै छी जे मैथिली साहित्यक वयोवृद्ध रचनाकार पं. गोविन्द झा, पं. चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’ सँ ल’ कए अजित आजाद, कामिनी, धीरेन्द्र प्रेमर्षि धरिक पीढ़ीक एकटा समूह अछि, हमहूँ ओकर एकटा सदस्य छी।
हमर आलोचनात्मक निबन्ध सब पर जँ अहाँक नजरि पड़ल हो, तँ अहाँ अनुभव क’ सकल होएब जे कोनो बाबिएँ हमरा समूहबाजी पसिन नइँ अछि। व्यक्तिक रूपमे किओ फुटली नजरि नइँ सोहाइ छथि, निजी तौर पर हमरा अपूरणीय क्षति दुख पहुँचौने छथि,तथापि साहित्यमे हम से मोन नइँ पाड़ै छी। साहित्यमे हुनकर योगदानकें ईमानदारीसँ अंकित करै छी। अपराधीकें माफ क’ देब हम अशक्यता नइँ मानै छी। अइ माफी लेल नमहर कलेजा चाही। माफी देलासँ शत्रुता आ प्रतिशोधक भावना समाप्त होइ छै। प्रतिशोधक भावनासँ काज करब साहित्यकारक नइँ, डकैतक काज होइत अछि। डकैत आ अपराधी स्वभावक साहित्यिक जीवकें माफ करब, आ गुटबाजी द्वारा साहित्यमे दाखिल-खारिज करबाक धन्धाक विरोध करब हमर मूल स्वभाव थिक। प्रायः इहो कारण हो, जे परोक्षमे अहाँकें हमर प्रशंसा केनिहार लोक नइँ भेटताह। कोनो खास समूहक करतूत पर किछु पूछए चाहै छी, तँ साफ-साफ पूछू। सत्य कहबामे हमरा कोनो दुविधा नइँ होइ'ए। साहित्य हमरा लेल सुविधा जुटेबाक साधन नइँ थिक। आत्मस्थापन आ उपलब्धिक माध्यम नइँ थिक। तें हमरा किनकहु भय नइँ होइत अछि।
5. अहाँक पीढ़ीक रचनाकारक मध्य अपनाकें देखार करबा लेल पछिला वा स्थापित रचनाकारकें धकिएबाक वा गरिएबाक(साहित्यिके भाषाक माध्यमे) प्रवृत्ति जगजियार भेल रहै। तकर की उद्देश्य छलै? आ तै माध्यमे कते गोटए सफल भ’ सकलाह?
ई आँकड़ा तँ हमरा नइँ बूझल अछि मुन्नाजी, जे के कते सफल भेलाह? के किनका कते धकियाबै छनि, मैथिलीमे इहो नेर्धारित करब बहुत कठिन अछि। अइ शोध-कार्यसँ हम एख धरि बचैत रहलहुँ अछि। जिनका ई काज पियरगर लगै छनि, से करथु।...
दोसर प्रश्नक-उत्तरमे हम स्पष्ट केने छी, जे हमर गनती जाहि पीढ़ीमे होइत अछि, तै मे हमर प्रवेश बहुत बादमे भेल। ता धरि अइ पीढ़ीक करीब-करीब रचनाकार अपन परिचय बना चुकल छलाह। ओहि काल फणीश्वरनाथ रेणुक धारणासँ हम सहमत भेल रही जे साहित्य मनुष्यकें सामाजिक बनबैत अछि, आ समाजकें मानवीय। मुदा क्रमे-क्रमे से धारणा भंग होअए लागल। लक्षण-गन्थ आ आलोचनात्मक पोथी आ आन साहित्यिक कृति पढ़ि कए साहित्य सृजनक उद्देश्य-अभिप्राय पर एक सँ एक वाक्य देखी, आ एम्हर मैथिलीक रचनाकार लोकनिक चर्या देखी, मोन घोर होइत रहए। क’ किछु नइँ पाबी, से तामसें अपनहिमे जरैत रही। अपना तुर’क अधिकांश रचनाधर्मी आ किछु वरिष्ठ लेखक लोकनिक बीच ‘साहित्य अकादेमीमे मैथिली’ प्रकरण पर चर्चा सुनि-सुनि दंग रहैत रही। मुदा सबटा चर्चा मुखविलासे टा होइत छल। देखार भ’ कए सोझाँ अएबाक चेष्टा वा साहस किओ नइँ करथि। सन् 1993मे जखन ‘हंस’ पत्रिकामे ओहि प्रसंग पर हम विरोध दर्ज केलहुँ, त’हरबिरड़ो मचि गेल। हमरासँ कनिष्ठ पीढ़ीक नवगछुली सब हमर प्रशंसक बनि गेल,समवयस्की लोकनि पंचैती करए लगलाह, आ वरिष्ठ लोकनि विरोध। ओएह हमरा जीवनक एहेन घटना थिक, जे हमरा नजरिमे मैथिलीक समस्त रचनाकारक चरित्र स्पष्ट क’ देलक। वस्तुतः हम ओ काज केने रही व्यवस्था-परिवर्तन लेल, मुदा ओकर उपयोग मैथिलीक अग्रमुखी रचनाकार लोकनि अपन लाभ-लोभ लेल करए लगलाह। हमरा हुड़बा बना कए अपन काज सुतारए लगलाह। ओही दिन हम अपनाकें हुनका लोकनिक ओहि आचरणसँ काटि कए अलग करैत ई विचार केलहुँ जे विरोधमे जिआन कर’ बला ऊर्जाकें बचा कए विकासमे लगाबी, तँ सकारात्मक परिणाम सोझाँ आओत। आनक बात हम नइँ कहब, मुदा अपना मादे जनै छी, जे आइ धरि हम किनकहु चरित्र हनन नइँ केलिअनि अछि। किनकहु अधलाह लेखनक प्रशंसा, आ नीक लेखनक निन्दा नइँ केलहुँ अछि। कोनो उदाहरण होअए तँ साफ-साफ कहू। अपन समस्त नेतकें सबसँ पहिने हम अपना नजरिमे ठाढ़ क’ कए आ आनक काज बूझि कए निर्णय करबाक अभ्यासी छी। अपन पूर्ववर्ती पीढ़ीक समर्थ रचनाकारक अवहेलना आइ धरि कोनो समझदार व्यक्ति नइँ केलनि अछि। व्यक्ति-निन्दा आ रचनात्मक मूल्यांकन अलग-अलग बात थिक। महान भक्त कवि रसखान शुरुह-शुरुहमे परम लम्पट छलाह, महाकवि तुलसीदास घनघोर विषयी छलाह, कालिदासक कथा बूझले अछि...जँ हुनका लोकनिक जीवनक अइ प्रसंग पर चर्चा करी, तँ एकर की अर्थ निकालब, जे हुनकर रचना निंहेस थिक?
6. अहाँ द्वारा एन.बी.टी.क माध्यमे मैथिली भाषा साहित्य लेल बहुत रास निस्सन काज भेलै। मुदा किछु लोक आरोपित करैत रहलाह जे सब काज अहाँ सबहक साहित्य-मित्र मण्डली मध्य घुरियाइत रहल। की सत्य छै एकर?
मुन्नाजी, एन.बी.टी.ए टा नइँ प्रकाशन विभाग(भारत सरकार), आ सी.आई.आई.एल, मैसूरमे सेहो मैथिलीक नेंओं हमरे राखल थिक। मैथिल लोकनिक ई सबसँ पैघ समस्या थिक जे सामान्य स्थितिमे नइँ रहताह, अहाँ जिनका लेल हितकारी साबित भेलिअनि से अहाँकें पाग बना लेताह, जिनका लेल नइँ, से पनही। एन.बी.टी.मे अपन सेवाकालमे मैथिलीक चारि गोट पोथी हम प्रकाशित करौलहुँ, चारूक हिन्दी अनुवाद सेहो प्रकाशित अछि। मैथिलीक एकहु टा सम्मानित आ प्रतिभावान नव-पुरान रचनाकार ई नइँ कहि सकताह जे हुनका एन.बी.टी.क राष्ट्रीय मंचसँ आमन्त्रण नइँ देल गेलनि। सोलह बर्ख हम एन.बी.टी.मे हिन्दी लेल काज केलहुँ, हिन्दीक दिग्गज लोकनि आइयो हमर कएल-धएलकें रखांकित करै छथि, ओहू समयमे करै छलाह। मैथिलीक रचनाकार लोकनि लेल तीन बर्खमे जे किछु केलहुँ तकर घिर्ता-घिन्न अहाँ देखि चुकल छी। मैथिलकें अइ बातक प्रसन्नता नइँ भेलनि जे मैथिलीमे ई काज भेल,से देवशंकर नवीनक उद्यमक बिना सम्भव नइँ छल। देवशंकर नवीनकें किछु आओर काज करबा लेल सहयोग करिअनि। ओ लोकनि ई देखए लगलाह जे अइ काजसँ व्यक्तिगत रूपें हमरा कोनो लाभ कहाँ भेल? एते धरि जे किछु लाभन्वित व्यक्ति सेहो ओहि दुष्कर्ममे लिप्त भ’ गेलाह। हुनका लोकनिकें प्रायः ई बोधगम्य नइँ भेलनि, जे ओ लोकनि जे किछु प्राप्त क'सकलाह, से हुनकर अधिकार नइँ छलनि, हमर प्रयासक परिणाम छल। ओएह एन.बी.टी. तँ पहिनहुँ छल, कए टा मैथिल लेखक चौकठि नाँघि सकल छलाह? दोसर बात जे हमरा रहैत मैथिलीक एकहुटा प्रस्ताव एन.बी.टी.मे आएल हो, तकर कोनो उदाहरण अहाँकें नइँ भेटत। जे किछु भेल, से हमरहि प्रस्ताव छल, सक्षम अधिकारीक स्वीकृति पर काज पूर्ण भेल। ओ नइँ केने रहितहुँ तँ हमर दरमाहा घटा नइँ देल जइतइ आ ओहि काजक संगोरमे जतबा समय लगौलहुँ, आ गारि-गज्जन सुनि कए जतबा व्यथित भेलहुँ, ताहिमे थोड़ेक अपन मौलिक काज क’ सकै छलहुँ। मुदा...ओना एकटा जानकारी अहाँकें द’ दी जे एन.बी.टी.मे हमर काजक निन्दा ओएह लोकनि क’ रहलाह अछि, जे अपनाकें बड़े भारी लेखक बुझै छथि, मुदा हम हुनका मनोनुकूल स्थान नइँ देलिअनि। हमर धारणा अछि जे हम कोनो विधाता तँ छी नइँ,हमर निर्णयसँ कोनो व्यक्ति किऐ एते तिलमिलाइ छथि? दुनियामे एते रास विद्वान छथि, जँ किनकहुमे प्रतिभा छनि, तँ किओ ने किओ मान्यता देबे करतनि!
दोसर बात जे जाहि चारि टा पोथीक प्रकाशन एन.बी.टी. द्वारा भेल तकर सम्पादक तँ चारिए गोटए भ’ सकै छलाह! अइ चारिमे एक त’ हम स्वयं छी, शेष तीन गोटएक स्थान पर कोनो दोसर तीन गोटएक नाम राखि कए देखू, तँ की सब सन्तुष्ट भ’जेताह? अहाँकें उदाहरण दी, जे एन.बी.टी. द्वारा डोगरीमे जखन एकटा किताब छापल गेल, तँ महाराजा कर्ण सिंह मंच पर आबि कए कहलखिन जे ‘एन.बी.टी. के अध्यक्ष, निदेशक, सम्पादकों का मैं सम्पूर्ण डोगरा समाज की ओर से आभारी हूँ कि उन्होंने हमारी मातृभाषा को यह सम्मान दिया है।’ मैथिलीक लोककें सबटा चीज अपनहि नामे चाहिअनि। सब ठाम रहए चाहताह, प्रतिभा कथूक नइँ। भ’ सकए तँ पता लगा लिअ’ दिसम्बर 2010मे सी.आई.आई.एल.मैसूर, द्वारा अनुवाद पर पटनामे एकटा आयोजन भेल छल, ओहिमे अधिकांश आमन्त्रित विद्वान(?) लोकनि अपन कोन प्रतिभाक प्रदर्शन हेतु आएल छलाह, आ की बाजि-भूकि कए गेलाह, से हुनका स्वयं नइँ बूझल हेतनि। एन.बी.टी.क काजक प्रसंग हमरा पर जे आरोप लगबै छथि, हुनकासँ तीन टा प्रश्न पूछल जाए, जकर उत्तर ओ ईमानदारी सँ दैथ—
· अइ आरोपक संग अहाँ कोनो स्वार्थसँ तँ प्रेरित नइँ छी?
· अइ काज लेल नियोजित व्यक्तिकें अहाँ अपना तुलनामे अयोग्य बुझै छी?
· अहाँक योग्यतासम्मत कोनो प्रस्ताव कहियो एन.बी.टी. द्वारा निरस्त कएल गेल अछि?
अइ तीनू प्रश्नक जवाब सम्पूर्ण परिदृश्यकें सोझरा देत।...बात बहुत भ’ सकैत अछि। मैथिल सभाक कोनो नागरिक मंच हो तँ बैसाउ, हम सब बातक खोंइचा छोड़ा देब। ओना के जानत? इएह जे जवाब द’ रहल छी, तकर की परिणाम हएत? कते गोटए पढ़त? अहाँ सन-सन दस गोटए पढ़ि कए बूझि लेताह! से अहाँ लोकनि ओहुना पिहनिहसँ बुझिते छी! मैथिलीक कए गोटए सकारात्मक दृष्टिएँ कोनो बात पढ़ै छथि?
7. अहाँ हिन्दी आ मैथिली दुनू भाषामे समान रूपें सृजनरत रहलौं अछि। दुनूक अपन स्वतन्त्र अस्तित्व छै। ककर केहेन अस्तित्व छै? दुनूमे की समानता-भिन्नता देखाइछ?
मुन्नाजी, हिन्दीसँ पहिने हम मैथिलीएमे एम.ए., पी.एच-डी.क’ कए बहुत दिन धरि रोजगारक बाट तकैत रहलहुँ। मुदा हिन्दीमे रोजगार भेटल। आत्मस्थापन, अन्न-वस्त्र-आवास-सुविधा-पहचान हिन्दी देलक। मिथिलांचलसँ उपटि गए जखन दिल्ली प्रवास करए लगलौं, ताहिसँ पहिने शुद्ध रूपें मैथिलीएमे लिखैत रही। कहियो कियो एकटा पोस्टकार्डो नइँ लिखलनि।‘स्वान्तः सुखाय’क अपन महत्त्व भने होउ भाइ, मुदा जीवन जीबा लेल त’ पाइ चाही। सन्1991-93 धरिक हमर संघर्षमय जीवन हिन्दीमे लेखन, हिन्दीमे अनुवाद, आ दसमसँ बारहम कक्षाक छात्र-छात्रा लोकनिकें फिजिक्स, कैमेस्ट्री, मैथमैटिक्स पढ़ा कए चलै छल। ओही दौरान एन.बी.टी.मे हिन्दीमे सम्पादनक कार्य हेतु नोकरी भेटि गेल। तकरा अछैत सन्1996मे मैथिलीक अध्यापक बनबा लेल इण्टरव्यू देबए पटना गेल रही; उनटे पैर वापस एलहुँ। मजबूरीमे जीवन-बसर हेतु हिन्दीमे लेखन आ अनुवाद काज शुरुह केने रही, आब ओएह मजबूरी भ’ गेल। बहुत रास सम्पादक लोकनि मित्र भ’ गेलाह अछि। दबाव दैत रहै छथि। सम्बन्ध-रक्षा हेतु लिखए पडै़ए। मोनो लगैए। हिन्दीमे आइ धरि जते चीज छपल अछि, सैकड़ो फोन आ दर्जनो पत्रसँ प्रशंसा होइत अछि, नीक लगैए। मुदा तैयो मातृभाषा तँ मैथिलीए थिक। साहित्यमे प्रवेश तँ ओही बाटए भेल अछि। पहचान मैथिलीएक रचनाकारक रूपमे अछि। सएह रहैयो चाहै छी। हम अपन परिसीमा एतबा अवश्य जनै छी जे जँ कोनो दिन किछु महत्त्वपूर्ण लिखि सकलहुँ, तँ से मैथिलीएमे लीखि सकब, कारण, मैथिली हमर मातृभाषा थिक, आ मातृभाषामे कएल काज निर्विवाद रूपें बेहतर होइत अछि। माइकेल मधुसूदन दत्त सेहो चारू दिससँ बौआ कए मातृभाषामे घुरि आएल छलाह। सत्य थिक जे मैथिली हमर मातृभाषा थिक, आ हिन्दी हमर राष्ट्रभाषा। दू मेसँ ककरहु मूल्य पर हम ककरहु प्रति अभद्र कथा नइँ सुनए चाहै छी। हमरा जीवनमे दुनू वरेण्य अछि, पूजनीय अछि।
8. बहुत रास मैथिलीक रचनाकार हिन्दीमे लेखन क’ कए अपन अस्तित्व तकै छथि, असफल भ’ मैथिली दिस उन्मुख होइ छथि आ मैथिली रचनाकार मध्य अपनाकें पण्डित हेबाक स्वांग रचै छथि। एना किएक?
एहेन काज के करै छथि, से हम नइँ जनै छी। हम स्वीकार करै छी जे हम मैथिलीमे लिखै छी। लोक हमरा मैथिलीक लेखक मानै छथि कि नइँ, से लोक जनैत हेताह। लोक मानि-मोजर देताह त’ लेखक कहाएब, अन्यथा अइ आत्मसुखक संग मरि जाएब जे जाहि काल जे नीक लागल, से केलहुँ! हिन्दीमे रीति-कालक प्रसिद्ध कवि भिखारीदासक पद अछि--'आगे के सुकवि रीझिहैं तो कविताई, नाही तो राधा कन्हाई के सुमिरन को बहानो हैं।'एतबा तय अछि रचनाकारक कोनो भाषा नइँ होइत अछि। भाषा तँ अनुवाद क’ कए बदलल जा सकैत अछि, विचार नइँ बदलल जा सकैत अछि। मैथिली कविता पर, कथा पर, आ नाटक पर हिन्दीमे जखन लेख लिखने रही, आ ओहि पर तमिल, तेलुगु, पंजाबी भाषाक लोक अपन-अपन विचार व्यक्त करए लगलाह, तँ प्रसन्नता भेल। आ हम सोचलहुँ जे ई काज हम मैथिली लेल केने छी। कविताबला लेख तँ हू-ब-हू पंजाबीमे केओ अनुवादो केने छलाह।...
पाँच टा हिन्दी अंग्रेजीक पोथी पढ़ि कए जँ किओ मैथिलीक रचनाकार मध्य पण्डित कहबए चल जाइ छथि, तँ हुनका अपन ज्ञान-लोकक इलाज करेबाक चाहिअनि। कोनो रचनाकार भाषाक करणें नइँ, अपन रचनाक गुणवत्ताक कारणें पूजल जाइ छथि। कन्नड़ जानने बिना अहाँ यू.आर.अनन्तमूर्तिकें जनै छिअनि, रूसी भाषा जनने बिना अहाँ अन्तोन चेखब,दोस्तोयवस्कीकें जनै छिअनि! किऐ जनै छिअनि?...भाषाक कारणें नइँ। विविध भारतीय भाषा, आ विदेशी भाषामे जतेक अनुवादक मित्र हमर छथि, हम एक रती सुगबुगा उठी, तँ हुनकर सहयोगसँ दुनियाक पचासो भाषामे हमर समस्त रचनाक अनुवाद छपि जाएत। मुदा ताहिसँ हम महत्त्वपूर्ण रचनाकार भ’ जाएब? जे किओ एहेन किरदानी करै छथि, हुनका करए दिअनु, साओन मासमे तँ इनार लग’क नालियो भरि जाइत अछि! समय हुनकर न्याय क’देतनि।
9. मैथिलीक किछु रचनाकार एके विषय पर एके रचनाकें हिन्दी-मैथिली दुनू भाषामे प्रकाशित करा क’ दुनू भाषामे ओइ रचनाकें ओहि भाषाक मूल रचना कहबाक गौरवक भान करैत छथि। एकरा अहाँ कोन रूपें देखै छी? ई कते उचित वा अनुचित थिक?
हमरा जनैत अइ काजमे लेखक आ विवेचक--दुनू गोटएकें विवेक आ मर्यादासँ काज लेबाक चाहिअनि। लेखक जँ हू-ब-हू अपन रचना दोसर भाषामे छपबै छथि, तँ उनका पहिल प्रकाशनक भाषासँ अनूदित हेबाक उल्लेख करबाक चाहिअनि। ई लेखकीय विवेक तँ स’ब रचनाकारमे हेबाक चाहिअनि। मुदा जँ ओही विषय पर दोसर भाषामे ओ पुनर्सृजन थिक, तँ विवेचक लोकनिकें सेहो हंगामासँ बचबाक चाहिअनि। कोनो रचनाक विषये टा महत्त्वपूर्ण नइँ होइत अछि, सब भाषामे ओइ विषयकें उपस्थापित करबाक शिल्प आ वातावरण अलग होइत अछि। द्विभाषी रचनाकारक किछु खास समस्या अवश्य होइत अछि, मुदा तकर अतिरिक्त छूट लेखककें नइँ लेबाक चाहिअनि। विवेचक सेहो थोड़ेक धैर्यवान होथु। हम ओना एहन काज नइँ करै छी।...
एकटा महत्त्वपूर्ण बात दिश अहूँके विचार करबाक नोत दै छी। रचना-कर्मक कोनो भाषा पहिनेसँ बेराएल नइँ होइ छै। मनुष्यक जीवनमे भाषा, अभिव्यक्तिक साधन मात्र नइँ थिक। जनपदीय संस्कृतिक सरणि आ मनुष्यक सोचबा-बुझबाक साधन सेहो थिक। मैथिलीमे जखन अहाँ ‘मातृका-पूजा’ कहै छिऐ, तँ की ओ एकटा शब्द मात्र होइत अछि? अहाँ जखन सोचै छी जे हमरा चिट्ठी लिखबाक अछि, तँ से सोचब कोनो भाषाक बिना सम्भव अछि? तें हमरा लोकनिकें इहो सोच’क चाही जे रचबा काल कोनो रचनाकारक समक्ष जनपदीय जनजीवनक कोनो घटने टा नइँ रहै छनि। आम नागरिकक जीवन-यापन, रीति-रिवाज, सोच-समझ, आहार-व्यवहार, व्यवस्था-संस्कृतिकें अंकित करबाक दायित्व सेहो रहै छनि। स’ब भाषाक अपन निजी वातावरण, आ संस्कार होइत अछि! शीतला माइक कोप, कोशी महरानीक प्रकोप, परशुरामजीक क्रोध, आ भीखन साहुक तामसमे की अन्तर होइत अछि,आजुक रचनाकर्मी नइँ सोचै छथि। अइ समझदारीक संग रचनारत द्विभाषी अथवा बहुभाषी रचनाकार वस्तुतः पशोपेशमे रहै छथि, जे रचना कोन भाषामे करथि? जिनकर रचनाकर्म एतबा सुविचारित नइँ रहै छनि, तिनका लेल चिन्तित हएबाक की प्रयोजन?
10. मैथिली-भोजपुरी अकादेमीक आयोजनमे मैथिलीकें गरोसि लेल जाइए। एहेनामे भोजपुरीक न’ब उठल बिहारि द्वारा स्थापित भाषा मैथिलीकें उधिया जेबाक सम्भावना त’ नइँ बनि रहल अछि? अइ पर अहाँ सभक समूह अपन कोनो सक्रियता नइँ देखा रहल छथि। की भविष्य हेतै एकर?
मुन्नाजी, हमर कोनो समूह नइँ अछि। जाहि दिनमे किछु अपात्र-कुपात्र लोक जहाँ-तहाँ हमरा गरिऔने फिरै छल, एखनहुँ गरिअबै अछि, हमरा विरुद्ध अपमानजनक लेख अमर्यादित भाषामे लिखि कए छपबै छल, आ हमर नियोजक धरि पहुँचबै छल; हमरा पर इन्क्वायरी बैसल, ओ इन्क्वायरी मैथिली लेल काज करबाक दण्ड छल। अन्यथा देवशंकर नवीन पर अँगुरी उठएबा काल देवतो-पितरकें सोचए पड़ितनि।... ओहू समयमे कोनो व्यक्ति हमरा संगें ठाढ़ नइँ छलाह। जहाँ धरि मैथिली-भोजपुरी अकादेमीक प्रश्न अछि, ओकर शासी निकायक हम प्राथमिक सदस्य मनोनीत कएल गेल रही। अइमे हमर कोनो अपराध नइँ छल, हम अपना दिससँ कोनो टा उद्यम नइँ केने रही। किछु मैथिलीप्रेमी लोकनि अखबारबाजी करए लगलाह जे हम ओतए सचिव बनए चाहै छी। कतेक लज्जास्पद लगैत अछि कहबामे, जे ओहू समयमे हम ओहिसँ अधिक सम्मानित पद पर कार्यरत रही। अकादेमीक बैसकमे जाइत रही, मैथिली भाषा लेल जे अभद्र आचरण होइ छल, तकर विरोध करैत रही। मुदा हमरा कोनो सूचना देने बिना ओकर सदस्यतासँ समयपूर्व मुक्त क’ देल गेल। हम विरोध क’ सकै छलहुँ, मुदा जें कि किछु उत्साही मैथिल अइमे सक्रिय छलाह, हम से काज नइँ केलहुँ। आब ओतए की भ’ रहल अछि, से मैथिलीक ओ उद्धारक लोकनि जानथु। हम त’ मैथिलीमे लिखै छी, लिखैत रहब। मैथिली-भोजपुरी अकादेमीक कोनो कार्यक्रमक सूचना हमरा निमन्त्रण-पत्र अथवा फोनादिसँ नइँ, अखबारहिसँ भेटैत अछि। अखबारक सूचना पर दौड़ल जाइ, आ अपना लेल जगह ताकी, तेहेन स्वभाव हम विकसित नइँ क' सकल छी। सोन्हिया क’ कतहु बैसबा लेल एक बीत जगह ताकि लेब हमर काम्य नइँ थिक।
‘भोजपुरीक न’ब उठल बिहारि’ पदबन्धक उपयोग अहाँ केने छी। अइसँ अहाँक आवेशक अनुमान होइत अछि। हम अहाँक व्यथाक अनुमान क’ सकै छी, तथापि एकटा निवेदन करै छी, जे एहेन शब्दावलीक प्रयोगसँ बचबाक चाही। उचित लागए तँ अइ सम्वादकें सार्वजनिक करबासँ पूर्व अइ प्रसंगकें सम्पादित क’ लेब। बल्कि ई आक्रोश तँ अहाँकें अपन मैथिल भाइ-बन्धु पर हेबाक चाही, जे आठम अनुसूचीमे जगह पाबि गेलाक बादहु अपन भाषाक गरिमाकें बचा नइँ पाबि रहल छथि। भोजपुरीभाषी लोक जँ अपन भाषाक विकास लेल उद्यमशील छथि, अपन लाभ लेल बानर जकाँ लड़ै नइँ छथि, त’ ई हुनकर अपराध थोड़े छिअनि?मैथिलीक लोककें तँ बल्कि प्रेरणा लेबाक चाही जे समृद्ध साहित्यिक विरासतक वंशज भेलाक बावजूद ओ भोजपुरीभाषीक सोझाँ पछलगुआ बनल ठाढ़ छथि।
11. इग्नूमे बिहारि जकाँ आएल भोजपुरीक स्वतन्त्र भाषाक रूपमे पढ़ाइ भ’रहल अछि। मुदा मैथिलीक लेल घोषाणा मात्र भ’ क’ रहि गेल। एकरा लेल किओ सुगबुगेला धरि नइँ? की कारण?
मुन्नाजी, हम आब गोनू झाक बिलाड़ि भ’ गेल छी। मैथिलीक भद्र-अभद्र लोक सबसँ तेना ने झड़कि गेल छी, जे कोनो सांस्थानिक काजमे हाथ दैत अबूह लगैत अछि। मैथिलीभाषी हेबाक कारणें हमरा पर टिप्पणी करबाक हक ओहेन-ओहेन लोककें भ’ गेल छनि, जिनकर हैसियत हमर पी.ए., एटेण्डेण्टक बराबरीक नइँ छनि। आर्थिक आ बौद्धिक दुनू तरहें।
जखन इग्नू ज्वाइन केलहुँ, तखन हमरा अइ काजक दायित्व-निमन्त्रणक संग कहल गेल छल जे मैथिली लेल हम किछु काज करी, मुदा समकुलपतिक सोझाँ हाथ जोड़ि हम माफी माँगि लेलहुँ। ओइ कुण्डमे फेरसँ कथी लए खसितौं। दायित्व लेबाक अर्थ छल काज केनाइ, ओइ काजमे मैथिलीक किछु विद्वान आ किछु कार्यकर्त्ता लोकनिकें काजमे जुटाएब। से जुटान हम अपन पसिनसँ करितहुँ आ तखन फेर मैथिल कुकूर सब कुप्फर मचबितए, जे हमरा त' ई खैरात भेटबे नइँ कएल, नवीनजी सबटा धन अपन कुटुमकें द' देलिखन। अहीं कहू, जे ऐना तलवार पर गरदनि हम कथी लेल रखितहुँ? जाहि दायित्व लेल हमर बहाली नइँ छल, तै पर समर्पण-भावसँ काज क' क' एक बेर एन.बी.टी.मे स'ब दुर्गति भोगि चुकल छी। अइ अतिरिक्त कार्यभारकें हाथमे ल’ कए अपना लेल मैथिलजनसँ गारि सुनबाक स्रोत फेरसँ किऐ जुटबितहुँ? साफ-साफ कहि देलिअनि--जे करै छथि, तिनका करए दिअनु, हमर सम्पूर्ण सहयोग हुनका संग रहतनि। जखन जे मदति मँगताह, हम तत्पर रहबनि। ओना अहाँक सूचना लेल ऑफ द’ रिकार्ड कहि दी जे फाउण्डेशन कोर्सक तैयारी पूर्ण भ’ गेल छै, ओ शीघ्रे छपि क’ आबि रहल छै। इग्नूक उत्साही वाइस-चान्सलर बहुत किछु क’ सकै छलाह, अइ बिन्दु पर हुनका कन्विन्स करब बहुत आसान छल, मुदा फेर ओहिमे जा कए मैथिल लोकनिक किरदानीसँ अपन जीवन हम अशान्त किऐ करितहुँ?...लोक अँगुरी उठबै छथि, जे हम अपन पदक दुरुपयोग क’ कए लेखक बनए चाहै छी, हुनका लोकनिकें किओ ई त’पूछनि जे हम जे किछु छी, से अपना बलें, अथवा ओहने कोनो अपात्र-कुपात्र मैथिलक बलें?...अहाँक अनुमान सत्य अछि, इग्नूमे पछिला दू बर्खक समय एतबा अनुकूल अवश्य छल जे प्रयास केला पर ‘मैथिली भाषा एवं संस्कृति शोध केन्द्र’ आरामसँ बनाओल जा सकै छल, मुदा...।
हमही टा नइँ, अहाँ चाही तँ गजेन्द्र ठाकुरसँ पूछि सकै छिअनि, मैथिलक अही स्वभावक कारणें एकाध टा एन.आर.आई. सेहो मैथिली-सेवासँ अपन मुँह मोड़ि लेलनि।
12. अहाँ दुनू भाषामे कतेको प्रकारक रचना कएल, जाहिमे बीहनिकथा(लघुकथा)क सेहो प्रमुखता छल। आब अहाँ सब एकरा बेरा किऐ देलौं? वर्तमानमे मैथिली मध्य बीहनिकथा (लघुकथा)क की अस्तित्व अछि,आ एकर केहेन भविष्य अहाँकें देखाइ अछि? एखनुक रचनाकार सबमे किओ अइ पर सक्रिय देखाइ छथि?
ठीके कहै छी अहाँ। एक समयमे लघुकथा खूब लिखलहुँ, आब त’ कविता आ कथा सेहो नइँ भ’ पबै’ए। बेसी काल आलोचनात्मक निबन्ध लिखाइत अछि। मैथिलीक सम्पादक लोकनिकें हमर कोनो खगता नइँ बुझाइ छनि, तें ओहो कम्मे लिखाइत अछि। जीवनक तैस बर्ख राजकमल चौधरीक रचनावली तैयार करबामे लागि गेल। हमरा सन निराश्रित लोक लेल आत्मस्थापन लेल स्वावलम्बी शिक्षार्जन करैत-करैत, जीवन-यापनक साँगह जुटबैत एते समय लागब उचिते छलै। कारण, ई काज व्ययसाध्य, श्रमसाध्य आ समयसाध्य छलै। से अहाँ लोकनिक शुभकामनासँ आब पूर्ण भेल अछि। सम्भवतः अगिला दू-चारि मासमे छपि कए आबि जाए।...मुन्नाजी, हमर जीवनक बड़-बड़ समस्या अछि, देखब तँ अजगुत लागत। विज्ञानक छात्र छलहुँ, छिप्पी पर आबि कए साहित्य धेलहुँ। मातृभाषा मैथिलीमे लिखब शुरुह केलहुँ। हिन्दीमे रोजगार भेटल। एन.बी.टी.क काज करैत प्रकाशन-उद्योग आ बाल-साहित्य तथा अनुवादक कार्य पर चिन्तन करब विवशता बनि गेल। आब अनुवाद अध्ययनक आचार्य बना देल गेलहुँ अछि। एते तरहक दायित्वमे ओझराओल व्यक्तिकें कोनो चतुराइ, धूर्त्तता आ कूटनीति नइँ अबै छै, तें मारिते रास कुकूर पाछू-पाछू भूकि रहल छै, किछु नोछरियो लै छै। तें कोनो ठाम सम्पूर्णतासँ नइँ राखि पबै छी। आखिर एक मनुष्यक क्षमताक तँ कोनो सीमा हेतै ने?
लघुकथा लेखनकें ओइ समयमे जीवकान्त सनक थोड़ेक बोधगर लोक सब चुटकुला कहने रहथिन। मुदा लोककें बुझबाक चाहिअनि जे लघुकथा लेखन बहुत मेहनति आ जोखिमक काज थिकै। ई कथा कम आ कविता बेसी होइ छै। एकर काया छोट आ व्यंजना विराट होइ छै। नबका पीढ़ीक बहुत रास लोकक बहुत किछु पढ़ब एखन शेष अछि, तें एखनुक रचनाकारमे के-के सक्रिय छथि, से घोषित करबामे हम अक्षम छी। अहाँ चाही त’अइ बातकें हमर आयोग्यता मानि सकै छी। मुदा बहुत रास नवतुरिया बहुत उत्साहसँ काज क' रहलाह अछि। एतबा धरि अवश्य अछि जे जे किओ स्तरीय लघुकथा लिखैत हेताह,हुनका अइ बातक अनुमान हेतनि जे लघुकथा लेखनक काज ‘कठिन भूमि कोमल पगगामी’काज थिक।
13. मैथिलीमे क्रियाशील रहि अहाँ सदिखन किछु नव-नव काज करैत रहलौं,आगामी एहेन कोनो योजना अछि?
सोचै छी जे हमरे नइँ, किनकहु प्रयासें ‘रचना: पाठ-प्रक्रिया’, ‘मैथिलीक अनुवाद परम्पराक अध्ययन एवं अनुशीलन(वैश्विक सिद्धान्तक कसौटी पर)’, ‘मैथिली साहित्यक सांस्कृतिक उदग्रता(उत्तर उपनिवेशवाद, उत्तरआधुनिकता, स्त्री-विमर्श, दलित-प्रश्नक प्ररिप्रेक्ष्यमे)’ आ‘तुलनात्मक साहित्यक सम्भावना आ स्वरूप’ पर मूल मैथिलीमे पोथी आबए, आ तकरा पढ़ि कए लोक विचार-विमर्श करए। हम यथासाध्य अइ दिशामे काज करैत रही से तय केने छी। अहाँ लोकनि शुभकामना दिअ’ जे सफल भ’ सकी। मैथिल लोकनिक आघातसँ बचल रहलहुँ तँ कदाचित भ’ओ जाइ। मुदा ई बड़ पैघ काज छै, तें अइ दिशामे बेसी लोकक योगदानक अपेक्षा छै। के अग्रसर हेताह से नइँ बूझि रहल छिऐ। ओना आगू अएनिहार कोनो व्यक्तिकें हमर जाहि कोनो मदतिक प्रयोजन पड़तनि, हम तत्पर रहबनि।
14. अहाँक पीढ़ीक कतेको गोटएकें पुरस्कार सम्मान भेटि गेलनि। मुदा एते काज केलाक पछातियो अहाँ एखन धरि कतिआएल छी। एकरा कोन तरहें देखै छी अहाँ?
हमरा जनैत मान्यताक एक मात्र कसौटी पुरस्कारे टा नइँ होइत अछि। आ मैथिलीमे पुरस्कारो त’ एके दू टा देल जाइ छै प्रति वर्ष! कते गोटएकें देल जेतै? ओना एक बात तय अछि जे निर्णायक लोकनिकें हमरासँ बेसी योग्य ओ लोकनि बुझाएल हेथिन। जहिया हुनका लोकनिकें हम सर्वोपरि लगबनि, हमरहु द’ देताह। निर्णय तँ हुनके लोकनिकें करबाक छनि।
एकटा पुरस्कार समितिक खिस्सा कहै छी--समितिमे कैकटा सदस्य रहथि। हम मायानन्द मिश्रक नामक प्रस्ताव देलिअनि। किछु गोटए किछु आओर नामक प्रस्ताव केलथि। हम प्रश्न केलिअनि, जे अहाँ जिनकर नाम प्रस्तावित करै छी, हुनकर भरि जीवनक रचनात्मकतासँ मायानन्दक रचनात्मकताक तुलना करैत किछु कहू! हुनका मायानन्द मिश्रक कोन कथा, जिनकर नाम प्रस्तावित केने रहथि, हुनकहु पाँच टा कथा, दस टा कविताक शीर्षक मोन नइँ छलनि।...एहेन तरहक निर्णायक समिति जँ अहाँकें कोनो पुरस्कार द’ओ दैथ, तँ कोन प्रसन्नता होएत?
15. अपन सम्पूर्ण साहित्यिक यात्रामे प्राप्त अनुभवकें नवतुरिया रचनाकारक संग की कहि बाँट’ चाहब?
ओना तँ हम एखनहुँ धरि अपनाकें नवतुरिए मानै छी। मुदा तें हमर उमेर तँ घटि नइँ जाएत! अपन अइ तीस-बत्तीस बर्खक साहित्यिक यात्रामे अनुभव केलहुँ अछि(मैथिली, हिन्दी दुनू भाषाक इतिहासकें देखैत कहै छी) जे कोनो पुरस्कार, सम्मान, पद, मद, काज नइँ करै छै, काज करै छै रचना। अहाँक रचनामे अहाँकें जीवित रखबाक औकाति नइँ रहत, तँ सब किछु अहाँक देहावसानक संगहि छाउर भ’ जाएत। आ, अहाँक रचना अहाँकें तखनहि जीवित राखि सकत, जँ ओहिमे कोनो सार्थक जीवन-दृष्टि हो। तें सार्थक किछु रचैत रहबाक प्रयासमे हम लागल रहै छी। रचि पाबै छी कि नइँ, से हम कोना कहू। अपन स’ब मित्र लोकनिसँ आग्रह करबनि जे गहन अध्ययन, चिन्तन, मनन, आदिसँ जे समय बचि जाए ताहिमे अपन रचनाकें ईमानदार, सम्वेदनशील, ठोस, आ प्रभावी बनेबाक चेष्टा करी। आचार्य भवभूति जकाँ ई सोचैत रचना करी ते अइ अनन्त-अपार समय-संसारमे कहियो किओ निश्चये हेताह, जे हमर रचनाक संज्ञान लेताह।
16. मैथिली साहित्य सब दिन बभनौतीक(बाभनवादक) शिकार भेल रहल। मुदा अहाँ सभक समूह एकर अपवाद बनि सोझाँ आएल। बाभनक समूह मध्य गैरबाभन रचनाकारक स्वतन्त्र अस्तित्व की अछि? एकरा साहित्यिक समरसता कही वा सामाजिक समरसाक प्रतीक वा किछु आओर?
असलमे मैथिलीक मध्यकाल आ आधुनिक कालक प्रारम्भिक अन्तरालमे मैथिलीमे जतेक लोक रचनाशील भेलाह, से ब्राह्मण आ कायस्थ छलाह। स्वभावतः रचनामे अही दुनू जातिक जीवन-यापनक सांस्कृतिक वर्चस्व बनल, जे बादक समयमे आबि कए रूढ़ि आ पाखण्डक रूप ध’ लेलक। क्रमे-क्रमे ब्राह्मण आ कायस्थ बूझए लगलाह जे हम जे बजै छी, से मैथिली भाषा भेल, आ आन जे बजैए से छोटहा लोकक बोली। ब्राह्मणेतर आ कायस्थेतर लोक सहजहिं बूझए लगलाह, जे मैथिली वस्तुतः ब्राह्मण आ कायस्थक भाषा थिक। मुदा ई प्रसंग एतेक आसान नइँ अछि। अइ पर गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श करबाक प्रयोजन छै। हम उल्लेख करए चाहै छी, जे पर्याप्त तर्कक संग प्रो.रमानाथ सिद्ध क’ चुकल छथि, जे भारतीय साहित्यमे कैक भाषाक लोक ‘सिद्धसाहित्य’कें अपन भाषाक प्रारम्भिक सामग्री मानै छथि,मुदा सत्य बात ई थिक, जे ओ मैथिली साहित्यक आदिकालीन सामग्री थिक आ‘सिद्धसाहित्य’क अधिकांश रचनाकार दलित छलाह।... भाषाशास्त्रीय दृष्टिसँ देखी, तँ एक देश-राज्य-जिला-गामक बात तँ दूर, एक परिवार धरिक समस्त सदस्यक भाषामे भिन्नता रहैत अछि। ओहिमे कोन सदस्यक भाषा मानक हो, तकर निर्णय करब कठिन होएत। तें कोन जाति आ वर्गक भाषाकें मानक मानि साहित्यमे जगह देल जाए, अइ विवादमे पड़ब उचित नइँ थिक। मुदा ई सत्य थिक जे मैथिलीमे ब्राह्मण आ कायस्थ वर्गक वर्चस्व रहल अछि। हमरा जनैत मैथिली साहित्यमे ब्राह्मणेतर आ कायस्थेतर वर्गक अनुपस्थितिक दू तरहक प्रसंग छल--एक तँ ई जे मिथिलाक अइ विशाल वर्गक लोक अइ भाषामे साहित्य सृजनसँ जुड़ल नइँ छलाह; दोसर जे ओइ वर्गक जीवनक्रमक वाजिब चित्रांकन एतए नइँ होइ छल। सीताराम झा, कांचीनाथ झा ‘किरण’, यात्री, राजकमल होइत किछु आगू धरिक साहित्यमे जँ ओहि वर्गक किछु चित्र अएबो कएल, तँ पर्याप्त ईमानदार चित्रणक अछैत सम्वेदनात्मक स्तर पर ओहि गहन जीवनानुभूतिक चित्रण नइँ भेल। ई बात हम तेना जकाँ नइँ कहि रहल छी जे साहित्यमे मृत्युक वर्णन करबा लेल मरब आवश्यक अछि। मुदा एकटा बाँझ स्त्री निःसन्तान हेबाक जाहि सामाजिक तिरस्कारकें भोगैत अछि, तकरा कोनो सन्तानवती स्त्री ओहिना नइँ बूझि सकैत अछि, जेना कोनो बाँझ स्त्री प्रसव वेदनाकें नइँ बूझि सकैत अछि। तें, अइ इतर वर्गक सक्षम प्रतिनिधित्वसँ साहित्य सम्पन्न होएत, आ सम्पूर्ण मैथिल समाजक चित्र, मैथिली साहित्य प्रस्तुत क’ सकत, से विश्वास कएल जा सकैए। मुदा समस्या ई अछि मुन्नाजी, जे व्यवस्था-क्रम बड़ विकट अछि। असलमे ब्राह्मणवाद आब कोनो जातिवाद नइँ रहि गेल अछि, ई एकटा व्यवस्था बनि गेल अछि। अहाँ देखैत होएब जे कोनो ब्राह्मणेतर व्यक्तिकें प्रतिपक्षमे ठाढ़ हेबाक इच्छा होइ छै, त’ ओ जनौ पहिरए लगैए, लोककें अइसँ बचबाक चाही। कोनो व्यक्तिकें पहचान उपस्थित करबा लेल काज करब जरूरी होइ छै। काज होइत रहतै, मान्यता भेटबै करतै। अइ स्थापित रहस्य अथवा मिथ अथवा वर्चस्वक गढ़, गत शताब्दीक सातम दशकसँ टुटैत रहल अछि, आगुओ टुटैत रहत। वर्तमान समयमे कतोक रास ब्राह्मणेतर आ कायस्थेतर लोक मैथिलीमे रचना क’रहलाह अछि, आ बढ़िया क’ रहलाह अछि।
17. अहाँ सब मैथिली समीक्षाकें एकटा न’ब बाट धरौने रही। वर्तमानमे मैथिली समीक्षाक केहेन अस्तित्व छै? किओ-किओ त’ एकरा ओलि सधेबाक साधन जकाँ बुझै छथि। अहाँ की कहब?
मैथिली समीक्षे टा नइँ, आनो विधाक हाल-सूरतिमे थोड़-बहुत काँय-कचबच छै। जहिआसँ मैथिलीकें आठम अनुसूचीमे जगह भेटलै, झंझट आओर बढ़ि गेलै। लोककें मैथिली कोनो धन्धा बुझाए लगलै। सी.आई.आई.एल. मैसूरमे आलोचनात्मक पोथी कीनल जाएत, ताहि लेल की कहाँ छापि-छापि लोक तैयार भ’ गेलाह। सालो भरि लोक मैथिलीमे किताब छपबैत रहै छथि, किऐ छपबै छथि, देखि कए छगुन्ता लगैए, आखिर किऐ ई लोकनि कागज दूरि करै छथि?
अहाँ लेखनक गप करै छी, ‘आधुनिक साहित्यक परिदृश्य’ शीर्षक अपन पोथीमे हम सन्2000मे मैथिलीक बाइस टा रचनाकारक रचना-संसार पर एक-एक टा लेख लिखने रही,ओहिमे सँ पन्द्रह टा रचनाकार जीवित रहथि आ एखनहुँ छथि। आनक कथा तँ जाए दिअ,ओ आलोच्य रचनाकारो धरि ओहि पोथीक, कम सँ कम अपना पर लिखल लेख’क संज्ञान नइँ लेलनि, निन्दो करबा लेल किओ एकटा पोस्टकार्ड नइँ लिखलनि। हँ, थोड़ेक आन साहित्यप्रेमी ओइ पोथीक पर्याप्त प्रशंसा केलनि। अहाँ जाहि समूहबाजीक गप करै छी, जँ सत्ते हमर कोनो समूह अछि, तँ तकरहु सदस्य सब ओइ पोथीक चर्चा अपन कोनो भाषण,आलेखमे नइँ केलनि, कोनो पत्रिका ओइ पोथीक समीक्षा नइँ छपलक...आओर बहुत रास बात अछि, मुदा से एकालाप भ’ जाएत।
ओलि सधेबा लेल जे समीक्षा लिखल जाइत अछि, से हमरा जनैत साहित्य नइँ होइत अछि। पाठक बूरि नइँ होइ छथि। पाठक आ समय के अदालत, रचनाकारक न्याय अवश्य करै अछि। आलोचनाकर्म लेल बहुत बेसी ईमानदारी, मेहनति, आ निर्लिप्तताक प्रयोजन पड़ै छै। हमरा जनैत तत्काल यशःप्रार्थी लोककें साहित्य-कर्ममे नइँ अएबाक चाही। एतए दीर्घ आ निर्लिप्त साधनाक प्रयोजन होइ छै।
अन्तमे अहाँक माध्यमे हम अपना पर टिप्पणी केनिहार समस्त लोककें सूचना द’दिअनि जे राजकमल चौधरीक साहित्य पर काज केनिहार देवशंकर नवीनक नेतमे खोट तकनिहारकें सोच’क चाहिअनि, जे हम ओस आ अंगारमे दाग ताकि रहल छी। मारिते रास भाग्य-विधाता सभ साहित्यमे छथि, किनकहु कीर्तन क’ कए हम किछु प्राप्त क’ सकै छलहुँ। सब जनै छथि, जे ई काज हमरा लेल कते सुलभ छल। मुदा मनुष्यकें मरै काल कहाँ दन अपने टा कएल काज शान्ति दै छै।
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