१.जगदीश प्रसाद मण्डल २.रमेश रञ्जन ३.प्रकाश प्रेमी
१
जगदीश प्रसाद मण्डल
गीत-
ओस बनि आंसू पकड़ि
धार खून बहबैत
एलैए।
प्रेम सिक्त
प्रेमाश्रु पकड़ि
देह बेमाए कहबैत
एलैए।
ओस बनि........।
हाथक हस्ति पकड़ि
फाड़ि
रूप बेमाए धड़ैत
एलैए।
बाँहि पकड़ि-पकड़ि
हाथ
पएर पकड़ि कहैत
एलैए।
ओस बनि........।
आंगुर पकड़ि पकड़ि
छीनि
पएर सिर चढ़बैत
एलैए।
हस्ति हाथ
मेटा-मेटा
नाम पएर जपैत एलैए।
ओस बनि........।
२
रमेश रञ्जन
बारुद
कतेक धृष्ट छै
बरुदक वेगवान कण
छेदैत चलि जाइत छै शरीर
कमसँ कम जाति भेद तँ करितै
आन्दोलनक जाति
आन्दोलनकारीक जाति
मिथिला आन्दोलनक विध्वन्सक
चौसरपर तेहने चीत्त–पट्टक खेल रचने अछि
आन्दोलनपर गढ़गर
जातिक रंग लेपन कऽ कऽ
नरसंहारसँ रक्तच्छादित
अपना देहके
आकाशमे भूर कऽ कऽ
वर्षाब चाहैत अछि मुसलाधार पानि
रक्तरञ्जित शरीर साफ–सफाइक लेल
मुदा वारुद वेगवानके
पलखति कहाँ
जे सोचैत
पुछैत
आन्दोेलनकारीक
जाति
आ तखन
शरीरक अन्तर भाग तकक यात्रा करैत
३
प्रकाश प्रेमी
रे गोधिया तो कोन्नी छे ?
रे गोधिया तो कोन्नी छे , एन्हर आ चल देखे
तमासा ।
माईयक छाति चिरे खातिर , नेतवा आउर फेकै हई
पासा ।।
रे गोधिया तो कोन्नी छे , एन्हर आ ..........................
रे जई अचराने दुध पिने हई, तकरे इज्जत
लुटाबेला,
जाइतक नाम पसाहि लेस, ठहक्का माईर पिटै हई
तासा ।
माईयक छाति चिरे खातिर, नेतवा आउर फेकै हई
पासा ।।
रे गोधिया तो कोन्नी छे , एन्हर आ
..........................
छुच्छ दुलार अन्हरोने हई, पितियाईनक शान
सोहरोने हई,
माइयक ममता बिसैरके देखहि, कईने हई परोसिया पर
आसा ।
माईयक छाति चिरे खातिर, नेतवा आउर फेकै हई
पासा ।।
रे गोधिया तो कोन्नी छे , एन्हर आ
..........................
रे बिसैरके देखहि घुघुवामना, डिगडिगथैया
चनामना ,
झिझिरकोना आ सुरसुरके , हरिमे ठोकि करतै
दुर्दाशा ।
माईयक छाति चिरे खातिर, नेतवा आउर फेकै हर्ई
पासा ।।
रे गोधिया तो कोन्नी छे , एन्हर आ
..........................
नै एक खण्ड नै दू खण्ड, कऽ कऽ देखहि खण्ड खण्ड,
कहै हई माईयक बोलिके, ई त हई बभनाके भाषा ।
माईयक छाति चिरे खातिर,नेतवा आउर फेकै हई पासा
।।
रे गोधिया तो कोन्नी छे , एन्हर आ
..........................
१.डॉ॰ शशिधर कुमर “विदेह”२.रामविलास साहु
१
बिसरि ने सकब
(गीत)
भेटि सकलहुँ ने, सरिपहु बिसरि ने सकब ।
दूर रहितहुँ, हृदय मे अहीं
तँ रहब ।।
एहि जिनगीक बाटेँ
कतेको भेटत ।
संग लागत अनेको, अनेको छँटत ।
मुदा हृदयक ओ कोना
अहीं लए अनामति,
पवित्रहि
रहत ।
ओ
पवित्रे रहत ।।
थीक जिनगी प्रवाहित, प्रवाहित रहत ।
संग अपना मे बहुतो
समाहित करत ।
मुदा चञ्चल आवेगक
श्रोतेँ प्रतिष्ठित,
अहीं
टा रहब ।
से
अहीं टा रहब ।।
दीप बहुतो जरत, चान बहुतो उगत ।
सूर्य बहुतो उगत, उगि कऽ डुबिते रहत ।
मुदा जिनगी मे
ध्रुव सन दिशाबोधकारी,
अहीं
टा छलहुँ ।
आ
अहीं टा रहब ।।
सातो समुद्रो मे जल
थिक बहूते ।
छै सरिता अनेको, सरोवर बहूते ।
मुदा ओ सरोवर पूरित
प्रीति पय सँ,
अहाँ
लग रहए जे,
कतहुँ
नञि भेटत ।
ऐ
कतहु नञि भेटत ।।
अहँक नेह केर
छोट सनि जे छवि अछि
(गीत)
अहाँ सञो जे भेटल
क्षणिक नेह हमरा,
तकर
मुल्य
कहियो, चुका ने सकै छी ।
अहँक नेह केर छोट
सनि जे छवि अछि,
ततेक
गाढ़
अंकित, मेटा ने सकै छी ।।
टाकाक जोरेँ बहुत किछु भेटै छै,
की
काया, की मोन – सब सद्यः बिकै छै ।
एहेन प्रीत निश्छल, बिना स्वार्थ भावेँ,
छी
दुर्लभ वा शायद कतहु नञि भेटै छै ।।
छी जल तँ धरा पर, प्रति चारि तीनेँ,
मुदा
प्यास, बहुतो मेटा ने सकैत’छि ।
किञ्चित् जँ
तृट्नाश सामर्थ्येँ सक्षम,
तदपि तृप्ति - अमृत - परम ने भेटैत’छि ।।
हरेक राति प्रायः उगैत’छि चानहु,
पुनमि
चान मासेँ एकहि बेर अबैत’छि ।
पुनमि तँ पुनमि छी, मुदा स्वच्छ निर्मल,
शरद राति पुनिमक बहुत कम भेटैत’छि ।।
बहुत छी सरोवर – सरित एहि धरा पर,
ओ मानस – सरोवर एकहि टा एतए अछि ।
जतए जा भेटैत’छि, मनक
शान्ति अनुपम,
ओ
कैलास
एक्कहि
आ
सद्यः एकहि अछि ।।
हम की करू ?
(गीत)
हमर चेतना हेरायल अछि, हम की करू ?
सम्वेदना बिलायल अछि, हम की करू ?
हे ऐ देखल जखन सञो
अहाँ केँ प्रिय,
हमर
सुधि बुधि हेरायल अछि,
हम
की करू ??
अहाँ छी ने उर्वशी, अहाँ छी ने मेनका ।
मुदा तइयो हमर लेल चित्त केँ चोरा ।
अहँक सुन्नर छवी
(वि) हमर चञ्चल मनेँ,
बड़
थीर भए समायल अछि,
हम
की करू ??
अछि बूझल, अहूँक अछि, एहने सनि गति ।
हृदयफाँस लेपटायल
अछि, सुन्नर सनि मति ।
अहँक चञ्चल चरण आ
नयन ओ वयन,
एखन
जड़वत बन्हायल अछि,
हम
की करू ??
आइ मधुरिम मिलन, कत’
प्रतिक्षा केर बाद ।
बड़ प्रतिक्षा
कराओल, अछि अपरूब तेँ
स्वाद ।
अहँक सुन्नर सुकोमल
अरुण ठोर पर,
मन्द
हास छिरिआएल अछि,
हम
की करू ??
२
रामविलास साहु
कविता-
कर्म बिनु जग
सुन्ना
सूर्ज बिनु अकास
सुन्ना
बिजुरी बिनु वादल
सुन्ना
जीव बिनु धरती
सुन्ना
कोयल बिनु वगिया
सुन्ना
फूल बिनु फुलवारी
सुन्ना
शेर बिनु वन
सुन्ना
नयन बिनु जग
सुन्ना
प्राण बिनु देह
सुन्ना
प्राजा बिनु राज्य
सुन्ना
सत्य बिनु न्याय
सुन्ना
वाद्य बिनु संगीत
सुन्ना
नारी बिनु समाज
सुन्ना
दूध बिनु भोजन
सुन्ना
पानि बिनु नदी
सुन्ना
देव बिनु मंदिर
सुन्ना
दया बिनु धर्म
सुन्ना
प्रेम बिनु भक्ति
सुन्ना
कर्म बिनु जग
सुन्ना।
१.जगदीश चन्द्र ठाकुर अनिल २.उमेश पासवान
१
जगदीश चन्द्र ठाकुर अनिल
जगदीश चंद्र ठाकुर ‘अनिल’
किछु एहने-सन लागि
रहल अछि
चोरे जोर सं बाजि रहल
अछि |
रहता लाखो युवक कुमारे
सएह जमाना आबि रहल
अछि |
दुलहा आ दुलहिन
उदास छथि
वरियाती टा नाचि
रहल अछि |
जकर मूँह चिन्है छै
बारीक
वएह मुंगबा पाबि रहल अछि |
ककरहु ले’ मुनहारि साँझ ई
कियो पराती गाबि
रहल अछि |
एहि भीड़मे चीन्हब
मोसकिल
कंठ ककर के दाबि
रहल अछि |
हाँ जे तकलियै,हम बुझि गेलियै
ताकि मुसुकेलियै, हम बुझि गेलियै |
कोइली कुहुकलै आमक
डारि पर
अहाँ जे बजलियै, हम बुझि गेलियै |
रिमझिम-रिमझिम साओन
आ भादो
अहाँ जे कनलियै, हम बुझि गेलियै |
गुमकीक बाद बिजलोका
आ अन्हड
अहाँ चुप भेलियै, हम बुझि गेलियै |
रुसबाक मतलब इ
दुनिया हमर छी
२
सभ्यता
आ संस्कृति ( कविता )
हम कहलियनि हमरा
नोकरी भेटि गेल
बाबूजी प्रसन्न भ' गेलाह
हम कहलियनि हम अपन
विवाह सेहो ठीक क' लेलहुँ
बाबूजी नाराज भ' गेलाह
हम कहलियनि विवाहमे
दस लाख भेटत
बाबूजी प्रसन्न भ' गेलाह
हम कहलियनि टाका कनियाँक नाम पर बैकमे जमा रहत
बाबूजी नाराज भ' गेलाह
हम कहलियनि
कनियाँ सेहो नोकरी करैत छथि
बाबूजी
प्रसन्न भ' गेलाह
हम कहलियनि
कनियाँ सेहो संगे आबि गेल छथि
बाबूजी सन्न
रहि गेलाह !
२
उमेश पासवान
उमेश पासवान
कविता-
वर्णित रस
जनकल्याणक लेल
पहिल अथक प्रयास
छी वर्णित रस।
देशमे बढ़ल भ्रष्टाचारक
वैदिक इलाज छी
वर्णित रस।
जनाधिकारक लेल
बुलंद अावाज छी
वर्णित रस।
दलित उपेझित
वर्गक
पहिचान छी वर्णित
रस।
ऊँच-नीचक भेद-भाव
रखनिहारक ऊपर
शब्दक प्रहार छी
वर्णित रस।
साहित्य-पुरुष
जगदीश प्रसाद मण्डल,
गजेन्द्र ठाकुर
जीक
असिरवाद छी वर्णित
रस।
साहित्य सेवामे
जुटल व्यक्ति
उमेश मण्डलक
प्रेरणाक
परिणाम छी वर्णित
रस।
मैथिल-मथिलाक आ
अपन मातृभाषाक
गुणगाण छी वर्णित
रस।
शब्दकेँ समेटि
पोथिक रूप
देनिहार श्रुति
प्रकाशन केर
अविष्कार छी
वर्णित रस।
कागज
सादा कागज छी हम
सादगी समाएल अछि
हमरामे
मुदा तखनो हम गुलाम
बनल छी
सतरंगी रंगक कलमकेँ
पूर्ण अधिकार
जमौने अछि हमरा ऊपर
घेरल रही छी हम
कलमक मोइखसँ
आबद्घ भऽ देबालसँ
घेरल रहै छी हम
शान्तचित्त निश्चल
मनसँ
मुदा तखनो असंख्य
शब्द–चित्रसँ दबल रहै छी हम
तियाग-बलिदान दऽ
कऽ हम अपन
एक देशभक्त सन
समाज केर
सेवामे लगल रहै छी
हम
सादा कागज छी हम
सादगी समाएल अछि
हमरामे।
समाज
खुशामदी आ ने
बेगारी करब हम
अपन कर्मक बाटपर
सदिखन चलब हम
मेहनति कऽ अपन
भाग्यक
लेल परिलक्षित भऽ
कऽ
सदिखन आगू बढ़ब हम
पुरान अवधारणाकेँ
समाज
अखनो धरि पजिऔने
अछि
ऊँच-नीच जाति-पाति
अनुसारे काम-काजकेँ
ओकरा बदलब हम
दाब-चाप, दहेज-अशिक्षा, अन्धविश्वासक
जालकेँ तोड़ब हम
मृत्युसैय्या जे
धेएने अछि
दलितक अधिकार
ओकर
समानता हेतु लड़ब
हम।
रावण-कंश
मूर्छित भऽ खसल
भूमिपर
गुमानक ढेरपर
जा कऽ बैसल छल ओ
तृष्णा प्रतिसोधक
आगिमे जरैत सियाह
सन
लगैत छल ओ बिनु
परबाह केने
सुकर्म तियागि कऽ
अधर्मक बाटपर
चलल छल ओ
जितबाक लेल
पुरे विश्वकेँ
लैस भऽ कऽ
आधुनिक परमाणु
हथयारक संग
विनाशक डंका बजेने
छल ओ
खूनसँ रँगि कऽ अपन
हाथ
अमेरिकाक वर्ल्ड
ट्रेड सेन्टरसँ
शुरूआत केने छल ओ
किछु छनक लेल
थर्ड़ा उठल ओ मानव
हृदए
सोचमे पड़ि गेल
की रावण-कंश अखन
धरि
नै मारल गेल जना
हू-ब-हू कर्मसँ
एक्के साँचमे गढ़ल
सन लगै छल ओ
पापक घैल
जखन भरल एक दिन
मूर्छित भऽ खसल
भूमिपर।
भरल घैल
शीतल पानिसँ भरल
घैल
आइ लड़ि रहल अछि
अपन असतित्व
बचैबाक लेल
बचौने अछि अपन
डंढक
मोस्किलमे पड़ल
अछि
सूर्जक िकरण
गुस्सा रहल अछि ओ
उम्मस भरल गर्मीपर
जे बेर-बेर
प्रयास केलाक बादो
भेद नै पाबि रहल
अछि
शीतल पानिसँ भरल
घैलक
कमजोर पड़ि गेल
सूर्जक किरण
किएक तँ
पानि सहने अछि
सभ दुख-दर्दकेँ
लड़ि कऽ पहाड़सँ
खसि कऽ झरनासँ
बहैत नदीक धारामे
निश्चल-अविचल
मनसँ
पहुँचल अछि आइ
घैल तक।
कलजुग
शिशक टुकड़ीकेँ
बिछौन बनाकेँ
हम सुतैत छी
अपन करेजमे काँटकेँ
नुका
रखैत छी हम
गरदनिमे भ्रष्टाचारक
माला
पहिरने रहैत छी हम
रोजे करबै छी नव-नव
घटना
लूट-हत्या, चोरी-डकैती
तखनो चैनसँ रहै छी
जाति धर्म मजहब
केर
नाओंपर
पैघ-पैघ फसाद हम
करबै छी
जँ अहूसँ मन नै
भड़ैए हमरा तँ
जंगलक विनास
परमाणु हथियार
आतंकवाद-उग्रवादसँ
दंगा-फसाद करबै छी
लहु-लहुआन कऽ
प्रकृतिक-सृष्टिकेँ
हम हँसैत रहै छी
तखनो मनुक्ख कऽ
रहल अछि
विकासक बात
की चिन्हलौं अपने
हम के छी
कलजुग।
उमर-अवस्था-मन
कतेक बर्खक बाद
मिलल सिनेहक पीर
जरमति वैह अछि
नोरक संग अधिर
शाश्वत पिड़ा
बूझि मन
समस्याक धनधोर
बादलमे
चमकैत बिजलीमे
भेटल आइ प्रेमक
तरंग
देखि कऽ ठमकल हमर
माथ
सभ दिन तकैत
रहलौं अर्थक बाट
अन्हार जिनगीमे
भेल ज्ञानक विहान
तखनो हम पाछाँ रहि
गेलौं
बहुत भऽ गेल देर
समैक सदुपयोग नै कए
सकलौं
छुटकारा लेल कऽ रहल
छी
लाखो जतन
अंत समैमे
अर्थी सजाओल जा रहल
अछि हमर
सभ छोड़ि जा रहल
छी
खाली हाथे बनि फकिर।
संग छोड़ि रहल अछि
उमर-अवस्था-मन आ
शरीर।
पियासल
सोन सन सुरतिकेँ
किछु नै अछि मोल
बाजू हे मैथिल
अपन मातृभाषामे
मधु सन मीठ बोल
राजा विदेहक ई गाम
सिनेहक पियासल ई
मििथला
जगत-जननी
माता सीताक जन्मभूमि
एतए माटिक कण-कणमे
अछि भरल विद्वता
स्वर्ग सन सुशोभित
देवलोक सन सुन्दर
अछि हमर मिथिला
ओहन महान
जतए सुग्गाे पढ़ैत
छल
वेद-पुराण
मुदा यौ श्रीमान्
शिशा पिघला कानमे
ढारल जाइत छल
सेहो सुनैत छी
यौ श्रीमान्।
अन्न-धन भरल अछि
पोर-पोरमे
कुहकैत चिड़ै-चुनमुन
करैए किलोल
सोना सन सुरतिक
अछि नै कोनो मोल।
१.पंकज झा २.ओमप्रकाश झा ३.रुबी झा
१.
पंकज झा
स्वयं के
रीढ़ युक्त बनाबय मे लागल छी
भ्रस्टाचार स
त्रस्त,
लोक छिलमिला रहल
छैथ,
आंदोलनक बिगुल बजा
रहल छैथ,
मुदा ओ बेखबर छैथ,
जे हुनको रक्त मे
भ्रस्ट आचरण दौर रहल छैन,
हुनक जन्म स पहिलही,
हुनकर पिता,
समाज,
दहेजक दूषित बिचार
स,
हुनकर निर्माण
प्रारंभ केलैन,
विवाहे स- आधारे स,
निर्माण के
प्रारम्भे स,
अपन दुर्बल्तक आर
मे,
हुनका जन्म देलखिन,
आ समयक क्रम मे,
हुनकर अब्चेतन मन
के,
हर भाग मे,
भ्रस्टताक उदहारण
भैर देलखिन,
हुनक रक्त मे ओ तेज
कहाँ,
जहिना अनाज, फल, फसल
,
कित्रिम खाद के प्रयोग स,
रश हिन् भ गेल अई,
तहिना आइ के युवा
उर्जा बिहीन छैथ,
जिनका सिर्फ गर्दभ गान अबै छैन,
अपन स्वाभिमान नै,
ओ पिता के आर मे,
आ पिता हुनकर आर मे,
पुनः वैह चक्र चलबैत छैथ,
आब कहू यौ युवा,
कि बिना ध्यान, ज्ञान, विज्ञान के,
अहाँ अई स उबैर सके छी,
अहाँ लग समय कहाँ
अई,
मूल्य के मूल्य आंक्कै के,
अहाँ लग उर्जा कहाँ
अई,
तटस्त रहै के,
हमरा त बुझाना जैत
अई,
अहाँ वैह राक्षस छी,
जेकरा स्त्री और धन
दुनु देल जैत छल,
आ समय के प्रवाह मे,
कोनो वीर,
अहाँ के छाती पर
बज्र प्रहार कै,
अहाँ के अंत करै
छलाह,
मुदा अई घोर कलयुग मे,
ओ वीर कतय छैथ,
से नै जनैत छी,
मुदा !
स्वयं के रीढ़
युक्त बनाबय मे लागल छी,
२
मानु ने मानु,
नव चेतना स दूर,
हम मैथिल मजबूर,
सभ्य होबाक मुखौटा
लगौने,
स्वयं अपन रीढ़क
हड्डी तोरै छी,
जगलो में किछ नई
बुझै छी,
युवा छी,
पर साहस कहाँ ?
स्वाभिमान बनेबाक
सामर्थ्य कहाँ ?
समय संग चलैक,
दृष्टी कहाँ
?
प्रतिकार करैक,
तर्क कहाँ ?
मानु ने मानु,
अहाँक अधोगतिक,
बिज पहिनहि रोपल
गेल अई,
दहेजक बिष पैन स,
अहाँक नहौल गेल,
अहाँ महिक गेल छी,
भिनैक गेल छी,
प्रखर संस्कृति स
लुढैक गेल छी,
आनक पुरुसार्थ पर,
ठाढ़ होबाक कोशिस,
अपहिजे त बनाओत,
क्रमशः और,
२
ओमप्रकाश झा
रूबाई
कखनो तँ हम अहाँ केँ मोन पडिते हैब
यादिक दीप बनि करेज मे जरिते हैब
बनि सकलहुँ नै हम फूल अहाँक कहियो यै
मुदा काँट बनि नस नस मे तँ गडिते हैब
३
रुबी झा
गजल
कहियौ
छोड़ब नै अहाँक पछोर यौ अहाँ
जायब कतऽ
राखब संगे अहाँ के साँझ सँ भोर यौ अहाँ जायब कतऽ
चिन्हलौ
नहि जानलौ अहाँ किएक एखन धरि हमरा
प्रेम बरखा सँ करब सराबोर यौ अहाँ जायब कत़ऽ
अहाँ
लेल तियागल लाजो तियागल धाखो अहीँक लेल
प्रेम सरिता बहाएल पोरे पोर यौ अहाँ जायब कतऽ
छोरलहुँ
हम नैहर सासुरो छोरलहुँ अहिँक लेल
मायक ममताक छोड़लहुँ कोर यौ अहाँ जाएब कतऽ
अहाँ
बाजु एकबेर किरीया खाउ हम ककरा
लगा के
मात्र अहीँ टा छी" रूबी "के चितचोर यौ अहाँ जाएब कतऽ
(सरळ वार्िणक़ बहर )
बर्ण-२१
2
ओ
नहि भेलाह कहियो जौँ हमर त'
की भेल
होयत आब हुनके बिन गुजर त' की भेल
जेठक
दिवस काटल भदबरियाक रैन
आइ बितइत नहि अछि पहर त' की भेल
बिलक्षण
आर मधुर बजैत छलथि बोल
एकबेर बाजि देलथि जौ जहर त' की भेल
प्रेम
मे मीरा सनक भऽ गेल छी बताहि हम
हुनका यदि परबाह नहि तकर त' की भेल
युग-युग
सँ गाबै छी गीत हुनक पथपर
नहि एलाह एकोबेर एहि डगर त' की भेल
हुनक
आश मे अछि फाटल साड़ी आ चुनरी
जोगिनिये कहैत अछि जौ नगर त' की भेल
हुनके
आश तकैत पिबि गेलहु बिषक प्याला
बदनाम भेलहुँ जौ जग सगर त' की भ
गजल
अहाँक साधना मात्र सौं हम प्रेम करै
छी
अहाँक भावना मात्र सौं हम प्रेम करै
छी
देखू त' हमरा अगल- बगल नै छी मुदा
अहाँक कामना मात्र सौं हम प्रेम करै
छी
कहिओ एको घरी अहूँ याइद केने हैब
त' ओहि धारणा मात्र सौं हम प्रेम करै छी
हम जतए छी अहिंक छी आ सपना सेहो
त' ओहि सपना मात्र सौं हम प्रेम करै छी
एको दिन हमरा सौं अहूँ प्रेम केने हैब
अहाँक प्रेरणा मात्र सौं हम प्रेम करै
छी
प्रतिक्षा करैत रहे छी ब्याकुल भ' अहाँ के
अहाँक सामना मात्र सौं हम प्रेम करै
छी
सरल वर्णिक बहर---वर्ण १६
रूबी झा
गजल
सिहकल जखन पुरबा बसात अहाँ अयलहु किये नहि
मोन उपवन गमकल सूवास अहाँ अयलहु किये नहि
चिहुकि
उठि जगलहु आध-पहर राति सपन हेरायल
आँखि खुजितहि टुटिगेल भरोस अहाँ अयलहु किये नहि
चेतना
हमर प्रियतम फेर किएक देलहु अहाँ बौराय
बेकल उताहुल भेलहु हताश अहाँ अयलहु किये नहि
नम्र-निवेदन
हम करइत छी अहाँ सँ प्रियतम हमर
गेलहु कतय नुकाय जगा आस अहाँ अयलहु किये नहि
भेल
आतुर मोन रूबी केर निरखि-निरखि सुरत अहाँके
फागुन-चैत बित गेल मधुमास अहाँ अयलहु किये नहि
रुबी
झा
गजल
प्रेमक दीप जरा क' राखब कनेक बताहि हम छी जनु
अपन जान चोरा क' राखब कनेक बताहि हम छी जनु
कतेक पैघ-पैघ चोट भेंटल तखनो नै अनुमान भेल
विरह तीर गरा क' राखब कनेक बताहि हम छी जनु
सपना में त' पिया मिलन के हम स्वप्न सजा के राखए छी
सिनेह घैल भरा क' राखब कनेक बताहि हम छी
जनु
आँचर सौं बाट बहारब झार पात हटायेब पिपनी सौं
आँगन सौं त' परा क' राखब
कनेक बताहि हम छी जनु
इ त'
प्रेमक अनुभूति छैक कोना बूझत जे नै प्रेम करै
रूबी आइंख नोरा क' राखब कनेक बताहि हम छी
जनु
--------------सरल वार्णिक बहर वर्ण -२२ ---------------
(रूबी झा )
गजल
धूर
जाउ सम्मान क' बात करै छी
तौरे तोर छल सौं आघात करै छी
नित
बान्हि बैसई छी बरका पाग
निर्लज
बनि बिश्वासघात करै छी
भोरे-
भोर देब की भाषणे बैस क'
छी
निठ्ठला मुदा माँछ भात करै छी
लुच्चा
लफाईर जेकाँ सौंसे घुमै छी
राखि
काँख तौर छुरी मात करै छी
गुण-दोख
अपन सभ क्यो जानैथ
जनितो
किएक बज्रपात करै छी
जागु
मैथिल जगाबू मिथिला चलू
भ्रस्टाचार
''रूबी''
एक कात करै छी
सरल
वार्णिक बहर वर्ण-13
रूबी झा
गजल
हम
त' छी
कनेक नादान ताहि लेल चुप छी
ई जग अछि बेसी सियान ताहि लेल चुप छी
कतेक
नुकाएल अन्देख में निर्मम निर्दय
अखनो अछि बड़ हेवान ताहि लेल चुप छी
नित
मार काट खून खुनामय होएत रहै
मांगे अछि दुष्ट वरदान ताहि लेल चुप छी
सभदिन
होए अछि गर्भे में बेटी केर हत्या
मुदा बनलि सब अंजान ताहि लेल चुप छी
जौं
कहूना मैर क' बांचल जे बेटी समाज में
दहेज प्रथा लेतेन जान ताहि लेल चुप छी
कहवाक
हिम्मत बहुते राखने छैक ''रूबी''
किन्नो भ्रष्ट नै होय सम्मान ताहि लेल चुप छी
--------सरल वार्णिक बहर वर्ण --१७----------
किशन कारीगर
ऐना किएक ई की ?
हास्य कविता
एक्के कोइख सँ जनमल दुनू
बेटा के डाक्टरी इंजीनियरिंग कराऊ
मुदा बेटी के संस्कृते सँ मध्यमा कराऊ
एहेन बेईमानी ऐना किएक ई की ?
दूल्हा अहाँ गरम-गरम
खीर खाऊ
अप्पन सुखलाहा देह के फुलाऊ
दुल्हिन भुखले सन्ठी जेंका सुखाऊ
ओकरा ने अहाँ सब पढाऊ-लिखाऊ
||
बेटी के पढ़ा लिखा के करब की ?
ओकरा त चूल्हे फूकै लेल कहैत छी
मुदा बेटा के पढ़ा लिखा के
दाम दिग्गर में रुपैया खूब गनबैत छी ||
हाय रे नारा लगौनिहार सभ
कागजी पन्ना पर बेटा बेटी एक समान
मुदा असलियत में बेटा तों स्कूल जो
बेटी तों भनसा-भात के कर ओरीयान ||
दुनू त अहींक संतान छी
फेर एहेन बेईमानी ई की?
बेटियों के पढ़ा लिखा मनूख बनाऊ
अहाँ ओकरो त शिक्षित प्रशिक्षित बनाऊ ||
बेटा के पढबय के खर्चा
अहाँ बेटीवाला सँ वसूल करैत छी
हाय रे दहेज़ लोभी दलाल
अहाँ के तैयो संतोख नहि भेल ई की ?
सामाजिक विकास लेल कही लेल "कारीगर"
मुदा अहाँ इ गप किएक नहि बुझहैत छी
समाज सँ पैघ अहाँक अप्पन स्वार्थ
एहेन जुलुम ऐना किएक ई की ?
रुपैया गनै सँ नीक त ई
जे बेटी के शिक्षित बनाऊ
नहि गनाब रुपैया आ नहि केकरो सँ गनायब
एखने सभ गोटे मिली सप्पत खाऊ ||
समाज आगू बढ़त त उन्नति होयत
ई गप अहाँ किएक नहि बुझहैत छी
आबो संकीर्ण सोच बदलू
एही सँ बेसी फरिछा के "कारीगर" कहत की ?
चंदन कुमार झा
सररा, मदनेश्वर स्थान
मधुबनी, बिहार
गजल-1
मोन एहन जे मानबे नहि करैए
आगि विरहा तैँ साउनो मे जरैए
नोर झहरै छै आँखि से, कंठ सुखले
बुन्न भरि नेहक लेल तैयो मरैए
जेठ के रौदहु जकर छाहरि जुरेलौँ
बिनु बसाते से पात आसक झरैए
डारि पर प्रीतक,फरल संबंध छल जे
पाथरे चोटायल, सड़ल फर झरैए
बाट 'चंदन' टकटक अहीँके तकैए
मोन बहसल,ने आस किन्नहु धरैए
2122-2212-2122/बहरे-खफीफ
गजल-2
राति तरेगण गनिते कटै छी
आगि विरहके जड़िते रहै छी
बाट अहीँकय तकिते रहै छी
रूप अहीँलय सजिते रहै छी
बनल बताहे हँसिते रहै छी
कोनहि बैसल कनिते रहै छी
गीत विरह के गबिते रहै छी
तामस मोनक पिबिते रहै छी
मोनहि अपने लड़िते रहै छी
"चंदन"लागय जिविते मरै छी
2-1 +1-2 + 2-1 + 1-2+ 1-2-2
---------वर्ण-१२-----------
गजल-3
मलय पवन के मदिर गंध सँ श्वास रोग उपचार करब
दुषित वायु अवरूद्ध साँस जे तकर आब प्रतिकार करब
जड़वत बनल जे जीवन जगमे तकरा पुनः बना चेतन
मधु-पराग सँ नहाके ओहिमे नवल उर्जाक संचार करब
निज अवलंबन हेतु जगायब बिसरल सभटा श्रम-शक्तिके
कर्मेक बलपर विजय प्राप्ति लय कर्मयुद्ध हुंकार करब
रहत आब नहि हारल-थाकल घर-बैसल मानव एक्कहु
चलू आब कर्मक प्रकाश सँ करिखल घर उजियार करब
एकप्रण एकनिष्ठ श्रद्धासँ निश्छल भावहि गाँथब श्रममाल
श्रमक फल भेटब छै निश्चित "चंदन" जगत प्रचार करब
--------------------वर्ण-२४-------------------------
गजल-4
आँखि खूनसँ भरल जेना
काँट हृदय गरल जेना
पानि खौलय अनल जेना
आगि लगए ठरल जेना
नोर पोखरि भरल जेना
धार खूनक बहल जेना
गाछ छलए फरल जेना
आब लगए झरल जेना
गाम छलए सजल जेना
आब "चंदन" मरल जेना
2122-2122/--------वर्ण-१०-------
गजल-5
जकरे पाय छलौँ तर-उपर
सैह पूत कमौआ धेलकै घर
मरचर बनले भरले घर
ठाठ उछेहल आँटिओ नै खर
ढनढन कोठीओ बखारी ढक
उनटल बासन भनसाघर
रकटै नेना सटकल उदर
बेदम उकासी दबाइ बेगर
चंदन'
कोनाकऽ जिनगी कटत
ॠण पैच कोना चलत गुजर
-------वर्ण-१२-----------
गजल-6
मोन केर बात सदति लिखिते रहब
चौबटिया ठाढ़ गजल कहिते रहब
जिनगीक बाट कतबो गड़ै काँट-कूश
हँसिते गुलाब सन गमकिते रहब
समाजो बरु घिसिऔत हमरा कादो मे
कदबे कमल बनि फुलाइते रहब
बरू कतबो झाँट-बिहाड़ि ऐत रस्ता मे
मुदा तैयो दीप आसक लेसिते रहब
'चंदन' पाथर समाजक छाती पिजाय
कलमक धार सँ शत्रू हनिते रहब
--------------वर्ण-१५-----------
गजल-7
आब सूतल लोक जागि रहलैए
तइँ बेछोहे चोर भागि रहलैए
देखू लागल भीड़ चौबटिया पर
बेटा माँ-बापके बेलागि रहलैए
बजरोक भीड़ तकैछ एकांत
सूतय लेल लोक जागि रहलैए
चैतक पछबा सुड्डाह भेल घर
भादबो मे धधकि आगि रहलैए
तबधल धरती दहेतै फेरो सँ
सुगरकोना मेघ लागि रहलैए
जड़लै घर, दहेलै डीह "चंदन"
डटले लोक क्यो ने भागि रहलैए
--------------वर्ण-१३------------
हजल
गुरूजी
बैसलाह खोलि खटाल
चेलवा
बनलनि गुरू घंटाल ।
घूर
जरौलन्हि पोथी केर टाल
दूध
बेचि कऽ देखू भेला नेहाल ।
ईसकुल
जाऽकऽ भेलाह कंगाल
माल
पोसिकऽ भेलाह मालामाल।
पशुगणना
कऽ फुटलनि भाल
पशुपालन
सँ रुपैयाक टाल ।
घी-दूध
पीबि भेलनि देह लाल
आब
अखाड़ा बिच ठोकथि ताल ।
गुरुआनिक
गजबे रंगताल
ठोरक
संग-संग रांगथि गाल ।
गुरुजी
बैसलाह खोलि खटाल
ज्ञानक
पूँजीओ गेलनि पताल ।-------वर्ण-१२-----------
रुबाइ-1
देखू पियक्कर बताह जमाना
के
सून्न मंदिर भरले
ताड़ीखाना के
कनैत लोक हँसी किनबा ले
लुटबैछ
पेट काटि जोगाओल खजाना के
।
रुबाइ-2
दूध सँ बेशी स्वाद लगैए
ताड़ी मे
खेत बिकैल लागल हाथ घराड़ी
मे
एखन तऽ अमृत लगैए चिखना
संगे
बुझबै जखन लीवर सड़त
बुढ़ारी मे
रुबाइ-3
ताड़ी छानब छोड़ि छानू निज
विचार
दारू ताकब त्यागि ताकू
संस्कार
अप्पन घर जाड़ि भट्ठी मे
छी बैसल
नजरि उठा देखू जड़ल केहन
कपार ।
रुबाइ-4
सत्ते अहाँ कखनो मोन नहि
पड़ैत छी,
किएकतऽ सदिखन मोने मे रहैत
छी
फूल बनि सदिखन हृदय मे
गमकैत छी
अहीँक नेहक जोत सँ हम
चमकैत छी ।
रुबाइ-5
अहीँक प्रेमक छाह जीब' चाहै छी
अहीँक आँचरक हवा पीब' चाहै छी
अपन फाटल करेजा सीब' चाहै छी
अहीँक नैनक शराब पीब' चाहै छी
रुबाइ-6
करेजक तह मे चौपैत रखलौँ
जकरा
खून अपन पिया पोसैत रहलौँ
जकरा
जुआनीक मद बौरायल सैह लगैछ
परल एकात समाज मे बनलौँ
फकरा |
रुबाइ-7
अहीँक प्रेमक छाह जीब' चाहै छी
अहीँक आँचरक हवा पीब' चाहै छी
अपन फाटल करेजा सीब' चाहै छी
अहीँक नैनक शराब पीब' चाहै छी ।
रुबाइ-8
सूर्यक प्रखर रश्मि सन
चमकैत रहू
शरदक इजोरिया सन दमकैत रहू
कामिनी रातरानी सन गमकैत
रहू
रुन-झून पायल पहिरि छमकैत
रहू ।
रुबाइ-9
अहाँक केश सँ झहरैत पानिक
बुन्नी
अहाँक गाल सँ ससरैत पानिक
बुन्नी
अहाँक ठोर सँ टपकैत पानिक
बुन्नी
हमरो देह सँ टघरैत पानिक
बुन्नी ।
रुबाइ-10
घोरनक छत्ता झाड़ि पानि
ढ़ारि देबौ
एकहि चाट मे धरती पर पारि
देबौ
रै खचराहा खचरै सभ घोसारि
देबौ
मैथिलीक अपमान करब विसारि
देबौ ।
रुबाइ-11
जौँ डेनधऽ चलबे संग तऽ
तारि देबौ
नैतऽ कलमक मारि, गत्र ससारि देबौ
मिथिलाक विरोधी, मारि खेहारि देबौ
रचलाहा प्रपंच पर पानि
ढ़ारि देबौ ।
रुबाइ-12
महगीक आगि मे जरलै जनता के
बटुआ
दिन-राति एक तीमन पिबैछी
झोर पटुआ
सरकार के विरोध मे लगबैत
छल जे नारा
खसल छै सड़क पर से लोक
लटुआ-लटुआ ।
रुबाइ-13
छाक भरि के आइ पीबय दिअ' हमरा
पोख भरि के जिनगी जीबय दिअ' हमरा
खोँचाह बात से लागल खोँच, फाटल,
गुदरी भेल जिनगी सीबय दिअ' हमरा ।
रुबाइ-14
सीता चरण नूपुर झनक झमकैत
रहय
बाड़ी अयाची फूल सदति
गमकैत रहय
जनकक खेतक माटि माथ सजबैत
रहय
मैथिल-मिथिला कीर्ति जगत
पसरैत रहय ।
रुबाइ-15
धिया सिया सन घर-घर मे
जनमैत रहय
शंकर बनिकऽ पूत अंगना मे
खेलैत रहय
उगना सन केर चाकर बाँहि
पुरैत रहय
हरियर खेत-पथार सदति
बिहुँसैत रहय
रुबाइ-16
कल-कल कमला कोशी निर्मल
बहैत रहय
छल-छल गंगाक निश्छल जल
छलकैत रहय
बागमती गंडक धरती जी
जुड़बैत रहय
माछ मखानक डाला नित सजबैत
रहय
रुबाइ-17
उज्जर परती हरिया गेलै
जेना
दियादी झगड़ा फरिया गेलै
जेना
लागल भीड़ छिड़िया गेलै
जेना
मोनक बात मरिया गेलै जेना
।
रुबाइ-18
अनका कनिते देख भभाकऽ लोक
हँसैए
अपन विपति के बेला देखू
कोना कनैए
अनकर कान्ह कोदारि हल्लुक
लगैछै जकरा
अपना हाथ सँ धरिते बेंट
सैह लोक कुथैए ।
रुबाइ-19
नाङट गरीब, माने हकन्न कनैए
फैशने चूर धनिको, नङटे नचैए
देखू नङटा, नङटे के देखि हँसैए
एकदोसर के देख संतोष धरैए
।
आकाशवाणीक दरभंगा केन्द्र सँ दिनांक
१० मार्च २००४ के "तरुण-कुसुम" कार्यक्रम मे कविताः-
(1)"दीप"
दीप जड़ैत अछि,
हवा सामान्य रहैत छैक जखन,
कञ्पित होइत छैक दीप-शिखा,
जेना हँसैत हो दीप ।
पवनक वेग बढ़ि जाइत छैक-
अचानक...एकाएक...अकस्मात्
जोर-जोर सँ,
कञ्पित होमय लगैत अछि दीप-शिखा,
जेना जोर-जोर सँ हँसऽ लागल हो दीप ।
पवनक संग लड़ैत अछि दीप ।
मुदा, तखनहि-
पवन अपन वेग आओर बढ़ा दैत अछि,
हारि जाइत अछि दीप,
मरि जाइत अछि दीप,
मिझा जाइत छैक दीप-शिखा,
मुदा, मरियो के हमरा सभकेँ,
जीवन-पर्यन्त हँसैत रहबाक,
हँसैत-हँसैत लड़ैत रहबाक,
सनेस दऽ जाइत अछि दीप ।
(2)"भय"
हे प्रिय
हम अनंतकाल सँ,
तकैत छी अहाँक बाट ।
दिन-राति हमर
अनिमेष दूनू नेत्र सँ,
बहइछ गंगा-जमुनाक धार ।
करैत छी अहाँक स्मरण कऽ-कऽ-
करूण क्रन्दन ।
अहाँक एक झलक देखबा' लेल,
आकुल रहैछ हमर,
सर्वांग, तन-मन,
संगहि-
मोन रहैछ भयभीत-
अहाँके देखिकऽ,
अहाँके देखबाके,
हमर ई व्याकुलता
नहि कम भऽ जाइ|
(3).।।बज्जर धरती पर।।
चम्मच
सँ खुनलौँ खत्ता बज्जर धरती पर।
ठूठ
गाछ कलशल पत्ता बज्जर धरती पर।।
हरित
बाग प्रकृति सत्ता बज्जर धरती पर।
चिड़
खोप लागल कत्ता बज्जर धरती पर।।
सहसह
लोक घोरन छत्ता बज्जर धरती पर।
रंग-बिरंग
पहिरन लत्ता बज्जर धरती पर।।
लागल
भीड़ भासल हत्ता बज्जर धरती पर।
चालि
जगत के अलबत्ता बज्जर धरती पर ।।
(4)."मोन होइए जे-"
मोन
होइए जे
पसेनेक
बुन्न सँ
सुखसागर
निर्माण करी ।
मोनो
होइए जे
कोनो
कर्मयोगीए के
भगवान
कही ।
मोन
होइए जे
जीवनक
रणक्षेत्र मे
कर्मयुद्धक
आह्वान करी ।
मोन
होइए जे
अलसायल
परती कोड़ि
कर्मयुगक
आधार रची ।
मोन
होइए जे
जिनगी
मे जे किछु करी
मात्र
तकरे पर अभिमान करी ।
मोनो
होइए जे
फेर
उठी,सम्हरि,लक्ष्य संधान करी
कर्मेक
बाट प्रस्थान करी ।
मोन
होइए जे
मोनक
बात बात मोनहि नै रहै
से
कोनो अनुसंधान करी ।
(5).हमर करेजा
छन
सँ उठलै हमर करेजा
जखन
अहाँके नेह मे डुबलै
चन
सँ उठलै हमर करेजा
जखन
अहीँके नेह मे टुटलै ।
धक
दऽ रहलै हमर करेजा
जखन
अहाँके सोँझा पड़लै
फक
सँ मरलै हमर करेजा
जखन
अहीँबिनु एसगर पड़लै
(6)."बिडम्बना"
एकदिश
भरले डकैत-चोर
दोसरदिश
डरले कनैत-लोक
कोना
कटतइ राति अन्हार
क्षण-क्षण
बितैब भेल पहाड़ ।
एकदिश
कोठा-महल ठाढ़
दोसरदिश
ककरो चुबै चार
केयो
नञ्गटे घूमै बजार
ककरो
कुक्कुरो के ओहार ।
एकदिश
छप्पन भोग सचार
दोसरदिश
ककरो नून-अचार
दुश्मन
हाथ सँ लऽ के कटार
मीता
के खून करैछ भजार ।
एकदिश
अभिमानक पहाड़
दोसरदिश
मोहक अंध-इनार
बिच
मे समतल एकपैरिया
संधानि
चलू जिनगीक बाट।
(7)."मोनक बात"
आइ
फेर जनु
भरले
घर एकात भेल छी
हँसैत
परिजनक बीच
ठोहि
पाड़ि कनैत छी।
बाबू
बिमार छथि गाम मे
तैँ
माय कनैत गेलीह
कनिते
छोड़ि गेलीह हमरा
हँसैत
दुधमुँहा नेना के
कोरा
मे लऽ बैसल कनैत छी ।
एसगरि
कनिञा की-की करतीह,
कोना
के घर डेबतीह
एहि
अनचिन्हार नगर मे ?
अनंत
सोच मे पड़ल छी ।
माथ
पर लाखो कर्जा
कमा-कमा
सूदि चुकबै छी
मूल
कोना सधत
कोनो
ने बाट देखै छी ।
समाजक
नजरि मे
कमौआ
पूत बनल छी
फेर
के बुझत जे हकन्न कनै छी ।
आब
तऽ दोसरक मिसिया भरि सुख
लोक
पहाड़ सन बुझैत अछि
आ' तै तऽ तुरंते
ओकर
जड़ि खोधय लगैत अछि
मुदा, अनकर पहाड़ सनक दुख
ककरो
नहि सुझैत छै
ककरो
हृदय के नहि चिरैत छै
लोक
तऽ ओकरा
फुल
सन हल्लुक बुझैत अछि
ओहि
सँ सुख पबैत अछि ।
मोनक
बात मोनहि मे रहल
सभटा
आस नोरहि मे बहल
ककरा
कहबै,के पतिएतै,
तैँ
एसगरे लड़ैत छी
उदीग्न
मोन बुझबैत छी
कर्मण्येवाधिकारस्ते
...पढ़ैत छी
कर्म
करैत छी
जिनगीक
बाट चलैत छी
छिड़िआयल
काँट-कुश बिछैत छी
दुधमुँहा
नेनाक संग बिहुसैत छी
नहाइत
काल कनैत छी
बकोर
लागल अछि
बकार
नहि फुटैए
फेर, मोनक बात कहब कोना
तैँ
लिखैत छी ।
(8.)
मूरख
मंत्री, निरपट सरकार
तकरा
संग आफिसर बुधियार
जनता
संगहि करैछ खेलबार
हनि
रहल महगीक तलवार।
एमहर
गरीब गुरबा लचार
ओमहर
ककरो बढ़ल बेपार
ककरो
देह जनु सूखल अचार
ककरो
धोधि जनु उठल पहाड़।
कतहु
सौजनिया नोत हकार
तीमन
तरुआ मधुर सचार
ककरो
सेहन्ता नोन अचार
कोना
के कटतै जिनगी पहाड़ ?
जनता
के बुझि गाय धेनुआर
दुहि
रहलै निष्ठुर सरकार
टुटतै
मूँह आ' फुटतै कपार
जहिया
परतै एकर लथार ।
हाइकू
पाथर
तोड़ै
जेठ
दुपहरिया
टपके
घाम ।
नञ्गटे
देह
जरठुआ
रौदहि
जड़लै
चाम ।
गुमकी
सौँसे
पात
डोलय नहि
विधातो
वाम।
ढनकै
मेघ
चमकल
विजुरी
सुखल
घाम ।
सुपक्क
गोपी
खसल
छहोछित
पकलै
आम ।
अगता
खेती
नक्षत्र
अरदारा
सुखी
किसान ।
हाइकु
बेघर
बच्चा
ढेरिऔलक
बालु
बनेतै
घर ।
सिन्धु
कछेर
उधियाइत
पानि
दहेलै
घर ।
गाछक
तर
सिखैछ
लिखनाइ
बच्चा
'घर' !
कहाँ
छै ठर
बुढ-पुरान
केर
अपने
घर ।
अँगना
घर
बनल
मरचर
घरहि-घर
।
जगदानन्द झा 'मनु'
ग्राम पोस्ट- हरिपुर डीह्टोंल, मधुबनी
रुबाइ-१
आँचर नहि उठाबू आँखि सँ तँ पिबअ दिय
हम जन्म सँ पियासल करेज जुड़बअ दिय
केँ कहैत अछि निसाँ शराब में बड अछि
कनीक अपन प्रेमक निसाँ तँ पाबअ दिय
रुबाइ-२
छी हम पिबैत सभ कहलक शराबी अछि
हमरो आँखि सँ देखू की खराबी अछि
बुझलौं अहाँ सभ दुनियाक ठेकेदार
आबू संग पीबि केँ नहि शराबी अछि
रुबाइ-३
पीबू नै शराब हम जीबू कोना क'
फाटल करेज केँ हम सीबू कोना क'
सगरो जमाना भेल दुश्मन शराबक
सबहक सोंझा तँ आब पीबू कोना क'
रुबाइ-४
पीलौं शराब तँ दुनिआ कहलक बताह
नहि पिने ई दुनिआ लगैत अछि कटाह
बिन पिने सभतरि मचल अछि हाहाकार
तँ पिबिए क' किएक नहि बनि जाइ घताह
रुबाइ-५
ढोलक धम-धमा-धम बजैत किएक छै
घुघरू खन-खना-खन खनकैत किएक छै
दुनू भीतर सँ छैक एक्केसन खाली
दुनू अपन गप नहि बुझहैत किएक छै
रुबाइ-६
भेटल नहि स्नेह तँ हम
शराबे पीलौं
रहितौं अहाँक संग तँ जुनि किछु छुबितौं
केँ कहैत अछि छथि भगबान मंदिर में
हुनकर दर्शन अहाँक स्नेह में पेलौं
रुबाइ-७
पीलौं नहि शराब तँ हम किछ बूझब की
बिन पीने दुनिआ में करब तँ करब की
एक दोसर केँ सभ अछि खून पिबैत
नहि पीने खूनक घोंट पी क' रहब
की
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"विदेह" प्रथम मैथिली पाक्षिक ई पत्रिका http://www.videha.co.in/:-
सम्पादक/ लेखककेँ अपन रचनात्मक सुझाव आ टीका-टिप्पणीसँ अवगत कराऊ, जेना:-
1. रचना/ प्रस्तुतिमे की तथ्यगत कमी अछि:- (स्पष्ट करैत लिखू)|
2. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो सम्पादकीय परिमार्जन आवश्यक अछि: (सङ्केत दिअ)|
3. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो भाषागत, तकनीकी वा टंकन सम्बन्धी अस्पष्टता अछि: (निर्दिष्ट करू कतए-कतए आ कोन पाँतीमे वा कोन ठाम)|
4. रचना/ प्रस्तुतिमे की कोनो आर त्रुटि भेटल ।
5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव ।
6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता|
7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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