जगदीश प्रसाद मण्डल
किछु
विहनि कथा
फज्झति
सोनेलाल
आ जीयालालक बीच करीब बीस बर्खसँ चिन्हा-परिचए छन्हि। ओना दू गामक, मुदा सटल गाम रहने खेतो एकबधू आ हाटो-बजारमे भेँट-घाँट होइते रहै छन्हि।
कहैले दुनूक बीच अपेछो छन्हि, एकबधू खेत रहने अड़ियो छथि
मुदा दुनू गामक विपरीत सामाजिक चालि-ढालि रहने बातो-विचारमे अन्तर छन्हियेँ।
कामेकेँ
धाम आ कर्मेकेँ धर्मक मजगू विचार रहने जीयालाल कम आँट-पेटक सम्पति रहनौं ने कहियो
बेकारी महसूस करै छथि आ ने गुजर-बसर करैमे परेशानी होइ छन्हि। जहिना मौसमी फल
बरहमसियो होइत अछि तहिना मौसमी खेतीकेँ बरहमसिया दिस ससारैमे दिन-राित लगल
रहै छथि। जखन कि सोनेलाल सोलहन्नी मौनसूनी किसान छथि।
अन्नक
खेती संग जीयालाल फलो-फलहरी आ तरकारियो-फड़कारिक खेती करै छथि। खेतक हिसावसँ
अपने भरि खेती करै छथि मुदा मेहनति बेशिया दैत छन्हि जइसँ अधा-छिधा विकरीयो-बट्टा
भइये जाइत छन्हि। जइसँ आनो-आनो काज चलिते रहै छन्हि। फलक खेती केने लताम,
नेबो, धात्री, अनारसक गाछ नर्सरी जकाँ
रहिते रहै छन्हि। मुदा जहिना धर्मक जड़ि दया छी तहिना खेतीक जड़ि बीज (बीआ)
सेहो छी, तँए फलक कोनो गाछ बेचै नै छथि। ओहिना (मंगनिये)
दोसरकेँ दैत छथि।
नेबोक
एकटा गाछ साेनेलाल जीयालालसँ मंगलनि। रस्ते-पेरेक गप छल। जीयालाल कहि कहलखिन-
“जखन
आएब भऽ जाएत।”
साल बीत
गेल। ओना दुनू गोटेक बीच भेँट-घाँट होइते छल मुदा गाछक कोनो चर्च नै।
दोसर
साल दुनू गोटेकेँ नवानी दुर्गा-पूजा मेलामे भेँट भेलनि। चाहे दोकानपर बैस दुनू
गोटेक बीच दुनियाँ-दारीक संग अपनो खेती-पथारीक गप चललनि। जेना हराएल वस्तु
भेटने देहमे पानि जगै छै तहिना सोनेलालकेँ जगलनि। दोकानपर चारि-पाँच गामक चारि-पाँच
गोटे बैसल। सोनेलाल जीयालालकेँ कहलखिन-
“हमर
बाकिये अछि?”
वाकी
सुनि जीयालालोकेँ धक् दऽ नेबो गाछ मन पड़लनि। सुहकारैत कहलखिन-
“हँ,
हँ, से तँ अछिये। भऽ जाएत।”
तेसर
साल विजलीपुरक समैध ऐठाम सोनेलाल दरबज्जापर बैसल रहथि तखने मधेपुरसँ अबैत
जीयालालपर नजरि पड़िते सोर पाड़लखिन। समाजो आ परिवारोक पान-सात गोटे बैसल रहथि।
सोनेलालक अवाज सुनि जीयालाल सड़कसँ पछिम मुँहेँ साइकिलो घुमौलनि आ विचारियो
लेलनि जे फज्झति करबनि। तइसँ पहिने मनमे उठि गेल रहनि जे जखन दुइये गोटेक
बीचक काज छी तखन दुनियाँकेँ जनबैक कोना जरूरत। जरूर किछु बात छै, तँए फज्झतिसँ जड़ि पकड़त। दलानक दावामे जीयालाल साइकिल लगबिते रहैथि
आकि सोनेलाल महाजनीक स्वरमे बाजल-
“हमर
बािकये अछि!”
सोनेलालक
स्वरो आ जगहो देखि जीयालालक देह अगिया गेल। एक तँ ओहुना परुखक आदति रहल अछि
जे घरोवाली लग आ सासुरो-समधिऔरोमे अलंकारिक भाषाक प्रयोग करैत अछि। नजरि तेज
करैत जीयालाल, लूरिगर सिपाही जकाँ जे दुश्मनेक हाथक हथियार
छीनि प्रहार करैए तहिना समाजकेँु अगुअबैत बजलाह-
“अहूँ
सभ अपन समधिक हाल सुनू। बेटा-पुतोहु, बेटी-जमाएबला भऽ गेलाह,
मुदा अखन धरि एकटा नेवोओ गाछ नै छन्हि।”
~
काँच
सूत
साठि
बर्खक संगी पैंसठिम बर्खमे रहने तँ मोहनकेँ किछु नै बूझि पड़लनि मुदा सोहनकेँ
मन कहलकनि जे भरिसक दुनू गोटेक बीचक सम्बन्ध काँच सूतमे बन्हल छल।
दुनू
गोटे, मोहनो आ सोहनोक घर बीघा दुइयेक हटल। ओना दुनू दू जातिक,
मुदा दू जातिक बीच जते दूरी बनल अछि तते नै छन्हि। कारण छैक जे
एकठाम रहने बहुत बेमारी लगियो जाइ छै आ छुटयो जाइ छै। तहिना दुनू गोटेक बीच रहने
छन्हि। दुनू लंगोटिया संगी। ओना किछुए मासक कमी-बेशी दुनूक बीच छन्हि, मुदा पाँच धरि तँ बच्चाकेँ घरे-अंगना चिन्हेमे लगि जाइ छै।
गामक
कतिका माने जाड़क मासक अखड़ाहासँ लऽ कऽ कवड्डी, गुड़ी-गुड़ीक
मैदान होइत विद्यालय धरिक संगी दुनू गोटे। ओना गामक स्कूलक पछाति दुनू गोटे दू
विद्यालयमे पढ़लनि, मुदा ग्रेजुएशन एके साल दुनू केलनि।
साइंसक विद्यार्थी रहने मोहन काँलेजमे डिमाॅसटेटर बनलाह। आ सोहन एम.ए.मे नाअों
लिखौलनि। पछाति एम.ए.सी. केलोपरान्त मोहन लेक्चरर बनि तीन साल पहिने
सेवा-निवृति भेलाह।
एक तँ
जिनगी भरिक संगी, दोसर समाजक पढ़ल-लिखल तँए बैसार-उसार अधिक
काल। रौदियाह समए भेने पहिल शिकार किसानक संग खेतसँ जुड़ल लोक हेताह, तँए अखन चौक-चौराहाक मुख्य विषय बनल अछि।
छह बजे
साँझ। टहलि-बुलि कऽ अाबि चौकपर बैसलाह। लाटक सएह पान-सात गोटे बैसलाह। धानक
जाइत खेती देखि सोहन दालिक खेतीक चर्च उठबैत कहलखिन-
“अस्सीक
दशकसँ पहिने दलिहन सस्त छल आ अखन वएह महग भऽ गेल अछि। दोसर पानि नै भेने अखन
उपायो तँ दोसर नहिये अछि। सरकारी जे अछि से कागजेमे अछि।”
जना
सोहनक बात मोहनकेँ लागि गेलनि। प्रतिवाद करैत बजलाह-
“हमरा
उमेरसँ बेसी तोरो उमेर नहिये हेतह, जहियासँ देखिलियै दलिहने
महग अछि।”
विचारमे
लोच दैत सोहन बजलाह-
“अपना
ऐठाम कहबी छै जे ‘नीच काज कऽ ली मुदा राहरिक बोनि नै ली।’
कोनो कहबी ओहिना नै होइ छै।”
जना कते
घैल घी सोहन हरा देने होन्हि तहिना आगि-बबूला भऽ उठि विदा होइत बजलाह-
“केकरो
कहने किछु भऽ जाइ छै।”
सोहन
गुमे रहलाह। किछु कालक पछाति सोहनक मनमे उठलनि कि फूिस बाजल छलौं तखन लगलनि
किअए। नजरि पाछू दिस बढ़लनि। जहिना पहिया कऽ गाड़ीक पहिया चलैत अछि तहिना
पहिया कऽ देखलापर देखलनि जे जहिना छलाॅगसँ जिनगी उठै छै तँ ओहना निच्चो होइ
छै, मुदा धड़िआ कऽ जे जिनगी उठै छै ओ धड़िआइते रहै छै, चाहे जेम्हर जाउ। आइ बुझै छी जे दूनू गोटे काँच सूतमे बन्हल छलौं जे
अबैत-अबैत आइ टूटि गेल। संगी रहने लोक हराइए, भसिआइए। मुदा
असगर चलनिहार कतए हराएत। पत्ता पकड़ि विच्ची पकड़ैक लूरि चाही।
~
बुधि-बधिया
रामकिसुन
आ देवनारायण लंगौटिया संगी। एकठाम बैस खेती-पथारीसँ लऽ कऽ कथा-कुटुमैतीक गप-सप
दुनू करैत। रामकिसुनक बेटा दरभंगासँ धड़फड़ाएल आबि कहलकनि-
“बाबू,
रूपैआक ओरियान कऽ दिअ। काल्हिये भरि फार्म भरैक समए छै।”
अपना
हाथमे रामकिसुनकेँ पनरहे सए रूपैआ, पाँच सए ओरियान करब
छलनि। जइठाम लोक बेसी गप-सप करैए तइठाम घरक नोनो-तेल आ खेतक खरीद-विक्रीक गप
सेहो करिते अछि। मनमे भेलनि जे पेंइचेक-गप अछि तँ अनका किअए कहबनि। पहिने
दोसेकेँ कहै छियनि जँ नइ हएत तखन बूझल जेतैक। कोनो कि पेंच-उघारक अकाल पड़ि
गेल अछि जे नै भेटत। यएह तँ गुण अछि जे जते खगता दुबराइए महाजन ओते मोटाइए।
देवनारायणकेँ
रामकिसुन कहलखिन-
“दोस,
पान सए रूपैआक बेगरता भऽ गेल अछि, सम्हारि
दिअ।”
देवनारायणक
हाथमे रूपैआ रहबे करनि, मुदा दोससँ सूदि केना लितथि। महाजनी
सूदिक गुण तँ बूझल छलनि। कनी-मनी झूठ-फूसि धन-सम्पतिक लेन-देनमे चलिते अछि।
सुहरदे मुँहेँ उत्तर देलखिन-
“दोस,
जखन अपना बूझि एलौं तँ घुमाएब उचिन नै हएत। मुदा इमानदारीसँ कहै
छी अपना हाथमे एको पाइ नै अछि।”
रामकिसुन-
“तब तँ काजमे बाधा हएत?”
देवनारायण-
“से नै हुअए देब?”
रामकिसुन-
“कहै छी हाथ खालिये अछि तखन विथूत केना नै हएत?”
देवनारायण-
“अपन ने खाली अछि, हुनकर (पत्नीक) हाथमे छन्हि।
मुदा....?”
रामकिसुन-
“मुदा की?”
देवनारायण-
“आना दर सूदि तँ महाजनीमे चलै छै मुदा स्त्रीगणकेँ तँ माइक देलहा कोसलिया
रहै छै किने, तँए दू-आना दर सूदि लागत।”
सूदि
सुनि रामकिसुन गुम भऽ गेलाह। मनमे उठलनि जे सोझ हाथे नाक नै छुब, घुमा कऽ छुअब भेल। जते घुमाओन बाट रहै छै तते ने लोको हराइए। मुदा काज
खगौने तँ जिनगी खसै छै। यएह ने परीक्षाक घड़ी छी।
~
पहाड़क
बेथा
साओनक
फुहार पड़िते जहिना नरम-गरम बीच गप-सप्प शुरू होइत तहिना धारा संग निकलैत
पहाड़ समुद्र दिस बढ़ल तँ कबई माछ जकाँ समुद्रो िसरा ससरि पहाड़ दिस बढ़ल।
अकासक बुन पबिते पानि रंग जकाँ छुहुटि धड़ैत तहिना दुनूक बीच भेल। पनचैतीक ओइ
पंच जकाँ जे अपन बेथा कहए जाइत आ अनके तते बेथा रहैत जे अपन तर पड़ि जाइत तहिना
समुद्रोकेँ भेल। ओना अपन-अपन बेथा दुनूकेँ रहए मुदा सिर चढ़ल पहाड़ रहने समुद्र
चुपे रहए। मुदा सिर चढ़ल पहाड़ रहने समुद्र चुपे रहल। मनमे संतोष भेल जे जिनगिये
केहेन छन्हि जे बेथे कते हेतनि। कनी पछुए अपन बेथा राखब। खिलैत कली जकाँ, जे फूल बनत कि फल, विहुँसैत समुद्र पुछलक-
“भाय,
बड़ पीताएल देखै छी, पियास लगल अछि की?”
जहिना
पियासल बटोहीकेँ कोनो दरबज्जापर पानिक लोटा सोझ अबिते आत्माक तरास लपकि कऽ
पकड़ि लैत तहिना पहाड़ व्यथित भऽ बाजल-
“देखू
जे सात बीतक केहेन अछि, जे एक तँ अधासँ बेसी चीरले अछि
तइपर केहेन ठट्ठा केलक हेन?”
बेथामे
नड़ाएल पहाड़केँ देखि समुद्र पुचकारि कऽ पुछलक-
“भैया,
अहूँ जँ बेथा जेबै तँ हमरा सबहक की गति हेतै। अहींक आशामे ने हमहूँ
जीबै छी।”
रसाएल
समुद्र देखि छुब्द होइत पहाड़ बाजल-
“कहू
जे एहनो ठट्ठा हेाइ छै जे टिकमे बान्हि देने अछि, खुनलौं
पहाड़ निकलल चुहिया। यएह निसाफ होइ जे मेडिकलक किताब पढ़निहारकेँ जँ कियो
कहै जे अहाँकेँ सरदियो छोड़बैक लूरि नै अछि, ई केहेन हएत।”
~
उमकी
भोलन
बाबा गंगा नहाइले िनरधनमाक संग गेलाह। गंगामे दुनू गोटे संगे पैसलाह। ऐ आशासँ जे
जँ बूढ़ (भोलन बाबा) भँसियेता तँ पोता निरधनमा पकड़तनि आ जँ बाल-बोध निरधनमा
भँसिआएत तँ भोलन बाबा पकड़तनि। जाधरि दुनू गोटे पकड़ा-पकड़ी नै करतथि ताधरि
एक कालखंड भरि संगे केना रहि पबितथि।
गंगामे
पैसि निरधनमा पुछलकनि-
“एँ
हौ बाबा, सभ चीजक गाछमे देखै छिऐ सभटा एक-रंग रहल आ
गोटे-गोटे भुल भऽ जाइए?”
निरधनमाक
प्रश्नसँ बाबाकेँ दुख नै भेलनि जे हमरे ठीकिया कऽ ने तँ पुछलक। मुदा हमरा ठीकिया
कऽ बाल-बोध किअए पूछत। जहिना जेठुआ पानि पीविते धरती पुरना खढ़केँ गलेबो करैत
अछि आ नवकाकेँ जनमेबो करैत अछि। तहिना तँ अखन निरधनमो अछि। ताधरि दुनू गोटे
छाती भरि पानिमे पहुँचि गेलाह। छाती भरि पानिमे पहुँचिते जना सर्द माथ धरि
पहुँचि गेलनि। सर्द पहुँचिते निरधनमा दोहरा कऽ पुछलकनि-
“बाबा,
जखन छाती भरि पानिमे आबिये गेलौं तँ अहीले ने लोक एते हरान रहैए,
आब घूमि कऽ कथीले जाएब, से नइ तँ.....?”
िनरधनमाक
प्रश्न सुनि भोलन बाबा हरा गेलाह। पानिमे जना डूमि गेलाह। मनमे उठलनि जे अही
उमेरमे ने बाल-बोध पानिमे नहाइले जाइत तँ उमकए लगैत। कहीं अही उमकीमे ने िनरधनमा
बेसी पानिमे पहुँच भसि जाए। जँ भसि गेल तँ फेर एहेन लोक भेटत कि नै। मन
रोकलकनि पहिने मुँहसँ मनाही कऽ दइ छिऐ। नइ मानत तँ अपने ने गंगा लाभ हएत। मुदा
बुढ़ाड़ीक बाट तँ अपनो टूटि जाएत। ओकरा छोड़ि एक लोटा पानियो देनिहार भेटत!
तेहेन जुग-जमाना भऽ गेल अछि जे...। जइठाम ताड़ी-दारूक लाइसेंस दऽ दऽ बेरोजगारी
हटौल जाइए। की ऐ रोजगारसँ मिथिलाक माटि जे बालुसँ भरि बलुआ गेल अछि, ओ उपजाऊ भूमि बनत। जाधरि नै बनत ताधरि हम सभ ओहिना बरहमासकेँ छहमासा
बनाएब आ छहमासा चौमासा तीन मासा करैत पराती साँझ-पराती कानि-कानि गाएब, ‘माधव, हम परिणाम निराशा।’
डुमकी
लइसँ पहिने बाबा निरधनमापर नजरि देलनि तँ देखलखिन जे ओ हमरे बाट ताकि रहल
अछि। कहलखिन-
“एक्के
बेर डूम लिहेँ। सभ तीरथ बेर-बेर गंगासागर एक बेर।”
जहिना
जिनगी दोस्ती करए बेर गंगाक शपथ लैत, तहिना संगे दुनू गोरे
गंगामे डूम लैत स्नान कऽ घूमि गाम एलाह।
~
बजन्ता-वुझन्ता
पोखरिक
धड़िपर विशाल सिमरक गाछपर दूटा सुग्गा बैसि, जतिआरए संबंध
बनबैत रहए। मुदा नाम-गामक ठेकान बिनु बुझने उड़ैबलाक कोन ठेकान। तँए दुनू सहमत
भेल जे पहिने अपन ठौर-ठेकानक संबंध बना लिअ तखन कथा-कुटुमैतीक संबंधक चर्च करब।
एक डारिक सुग्गा लग पहुँचि गेल। दुनू बुझैत जे घर-परिवारक गप आन किअए सुनत।
तँए कानमे कान सटा एकटा दोसरकेँ पुछलक-
“बेरादर,
तोहर नाम की छिअह?”
कनी काल
गुम रहि दोसर बाजल-
“उढ़ड़ाकेँ
गामक ठेकान होइ छै। की नाम कहबह। तोहीं अपना विचारे राखि दाए। हमहूँ आइसँ मानि
लेब।”
पहिल
सुग्गा- “बड़बढ़ियाँ।”
बड़बढ़िया
सुनि दोसर धाँइ दऽ बाजल-
“भाय,
तोहर नाओं की छिअह?”
पहिल- “पोसा।”
दोसर- “पोसा
केकरा कहै छै?”
पोसा बाजल-
“जे
मनुक्खक संग रहैए।”
दोसर- “तब
तँ पिजरामे रखैत हेतह?”
पोसा- “हँ,
पिजरोमे रहै छै। मुदा हम ओहन पोसा छी जे बिनु पिजरेक मनुक्खक
संग रहै छी।”
~
चर्मरोग
एक तँ
कातिकक पूर्णिमा दोसर गहन सेहो लागत। तहूमे कते साल पछाति पूर्ण-गहन लगि रहल
अछि। गामक लोकक उजाहि देखि दुनू परानी दोस काका सेहो कमला नहाइक विचार केलनि।
तीनिये दिन जाइ-अबैमे लागत।
दोस
काका काकीकेँ कहलखिन-
“जखन
तीनिये दिनक बात अछि तखन किअए ने घरेसँ बटखरचा लऽ जाइ। अनेरे केहेन कहाँ
दोकानक खाएब। एक तँ बेचिनिहारक हाथ-पएर नीक नै रहै छै तहूमे कोन-कहाँ माछी सेहो
िभनकैत रहै छै।”
दोस
काकाक विचारमे अपन विचार मिलबैत काकी उत्तर देलखिन-
“अपन
घर फेर अपन घर छी। कौओ मेना अपन घरक सुख बुझैए। हम सभ तँु सहजहि मनुख छी।
एतबो-अचार विचार नै राखब से केहेन हएत। तहूमे तते ने चीज-बौस महग भऽ गेल अछि जे
लोक आब भरि पेट खाइए आकि मनकेँ बुझा पानिसँ पेट भरैए।”
दोस
काका- “काल्हि चारि बजे भोरमे गाड़ी अछि। घंटा भरि टीशन जाइमे
लागत। एक-डेढ़ बजेमे सभ कियो उठि जाएब। जाबे दुनू पुतोहु बटखरचा बनौतीह ताबे
दुनू गोटे नहा-सोना लेब।”
काकी- “बड़बढ़ियाँ।”
कमला स्नान
करबाक विचार, तँए दुनू परानी अबेर तक गपे-सपमे जगि गेलथि। अबेर कऽ सुतने
नीनो अबेर तक खेहारलकनि। एक-डेढ़ बजेक बदला अढ़ाइ बजेमे नीन टुटलनि। घड़ी देखिते
दोस काका अपन दोख घुसकबैत पत्नीपर गुम्हरलाह-
“अढ़ाइ
बजैए, आब कखन चुल्हि पजारल जाएत। तहूमे सभ सुतले अछि।”
दोस
काका दिस अपन क्रोध नै घुसका काकी जोरसँ गरजैत पुतोहुपर बजलीह-
“कोन
कुम्हकरणक बेटी सभ घर चलि आएल अछि, से नै जानि। कहू जे
एना कऽ सिखा कऽ दुनू दियादिनीकेँ कहने छेलिऐ जे एक-डेढ़ बजेमे उठि चुल्हि
पजारि बटखरचा बना देब, से चलचलउ बेर तक सुतले अछि।”
मुदा
पुतोहुक लेल धैन-सन। सूतलक गारिये की, जे सुनबे ने करत।
पुतोहुक चाल-चुल नै सुनि काकी अपने ठंढ़ा गेलीह आगू बढ़ि जेठकी पुतोहुकेँ सोर
पाड़ि काकी बजलीह-
“एना
के कहने छलाैं, से अखन तक सूतले छी।”
भलहिं
कातिक मास रोगाह किअए ने हुअए मुदा जेठक राति ओहन सोहनगर थोड़े होइए। जेहन सिनेह
सुख कातिकक निनिया देवीक होइए ओ जेठ जनीकेँ थोड़े होइ छन्हि। जहिना धानसँ
भरल बसुधा कड़कड़ाइत रहैए तहिना ने देवियो कड़कड़ाइत रहै छथि। ओछाइनेपर सँ
जेठकी पुतोहु भकुआएले जबाब देलकनि-
“अखन
बड़ राति छै, एते किअए धड़फड़ाइ छथि।”
एक तँ
ओहुना पैंतालीस-पचास बर्खक उमेर दुनू परानी दोस काकाक, तइपर सँ पुतोहुक बात आरो ढील कऽ देलकनि। मुदा तैयो रूआव झाड़ैत काकी
छोटकी पुतोहुकेँ उठबैत बजलीह-
“कनियाँ,
नै खाइक ओरियान केलौं तँ केलौं, मुदा निकलबो
बेर तँ अपन घर-दुआर सुमझि लेब कि सूतले रहब।”
पहिलुका
बात छोटकी सूतलेमे गमौलनि। मुदा अंतिम ‘सूतले रहब’ बेर नीन टूटि गेलनि। ओछाइनेपरसँ बजलीह-
“दीदी,
सूतले छथिन।”
रातिक
भुखल भोरमे जहिना छह-नंबरा कोदारि कान्हपर लऽ खढ़होरि तामए विदा होइत तहिना
खिसिआएल मने दोस काका तीन दिनक धर्मक घाट पहुँचबाक विचार जगौलनि। काकीकेँ
कहलखिन-
“पनरहे
मिनट समए बचल अछि, झब दऽ तैयार होउ, नै
तँ जहिना बटखरचा छूटल तहिना संगियो आ कमलो स्नान छूटत।”
एक तँ
ओहिना जेठुआ रौदमे सुखाएल केराउ, तइपर खापरिमे पड़िते जहिना भरभरा
कऽ उड़ए लगैत तहिना काकी भरभराइत दोस काकाकेँ कहलखिन-
“आन
पुरुखक जे बोल राखब से निमहत। कियो अपना घरमे पुतोहुओ अनलक आ दान-दहेज लछमियो
अनलक। कियो तेहेन लुरिगर पुतोहु अनलक जेकरा देहेमे सभ किछु तेहेन छै जे शिखरपर
पहुँचबैए। अहाँकेँ आँखिमे कोन चर्मरोग भऽ गेल अछि जे चूनि-चूनि पुतोहु अनलौं।”
पत्नीक
बात सुनि दोस काका सहमि गेलाह। मुदा सासुर, समधियौर आ पत्नी लग जँ
मुँह बन्न भऽ गेल तँ पुरुखे कथीक। मुदा एको डारिक पत्ता धरिक बोध तँ पत्नीकेँ
हेबे करै छन्हि जे करनी-धरनीक सीखमे सीखिते छथि। मुदा तैयो दोस काका अगुअबैत
बजलाह-
“जाएब
की नै?”
लपकि
कऽ काकी बजलीह-
“ढौआ
जेबीमे लऽ लिअ, आ झनझनबैत चलू!”
~
शंका
चालीस
बर्खसँ संग-संग रहनौं श्याम काकाकेँ काकीपर अखनो शंका बनले रहै छन्हि। ओना
सोलहन्नी शंका तँ नै मुदा तैयो शंका तँ शंके छी। सोलहन्नी ऐ लेल नै जे परिवारक आन
काजमे एको पाइ शंका नै रहै छन्हि, मुदा पाइ-कौड़ी खर्चक
भाँजमे तँ रहिते छन्हि। जइसँ आइ धरि कहियो नै मुट्ठी खोलि धड़बै छथि।
जाधरि
माए जीबैत छलनि ताधरि पुतोहुक हाथमे कहियो जरूरीसँ बेसी कोनो वस्तु नै जाए
देलकनि। कारण छलनि जे अपनो जकाँ (जकाँ जकाँ) कुशल गृहिणी बनबए चहैत छलीह। कुशल
ऐ लेल जे कमसँ कम वस्तुमे जीवन-यापन करैक लूरि भेलासँ जिनगीक गाड़ी समुचित
ढंगसँ चलैत अछि, से चलैत रहनि।
आब तँ
सहजहि नाति-नाितन, पोता-पोतीसँ घर भरि गेल छन्हि, मुदा तखन किअए शंका छन्हि? ओना ओ बुझै छथि जे
जे घरसँ बाहर धरि जोड़ि चलैक ओ कुशल गारजन भेल, मुदा से
काकी रहितो किछु विशेष सिनेह नाति-नातिन, पोता-पोतीसँ
रहने अवगुण तँ छन्हिये। ओना श्याम काकाकेँ अपन इच्छा कहियो दोकान-दौड़ीसँ
नोन-तेल करैक नै रहलनि, आब तँ सहजहि नहिये छन्हि। तँए
काकिये दोकान-दौड़ीक नोन-तेल करै छथिन। दोकान-दौड़ीक करैक पाछू दोसरो कारण छन्हि।
ओ ई छन्हि जे कनियाँ-पुतराक की मांग हेतनि से हुनका लग तँ बाजि सकै छथि, मुदा हमरा लग थोड़े बजतीह।
मुदा
काकियो कम नै ने छथिन, दोकानक (परिवारक खर्चक) सभ समान कहि पाइ
जोड़ि कऽ लऽ लैत छथिन आ तहूपर सँ किछु उधारी केने अबै छथिन। उधारीक कारण होइ
छन्हि जे काजक वस्तु कहि पुतोहु चलबाकाल कहि दैत छथिन जे चौकलेट, नवका विस्कुट दोकानमे बड़ सुन्नर एलैए। पुतोहुक आग्रह केना काकी नै
मानथिन। जइसँ किछु ने किछु उधारी दोकानक भइये जाइत छन्हि।
तगेदा
भेलापर श्याम काका बुझबे करै छथि आ देबे करै छथिन। मुदा मनमे कुवाथ तँ भइये जाइ
छन्हि जे एते धीया-पुताकेँ चसकाएब नीक नै।
भोरे की
फुड़लनि की नै, उपराग दैत काकी श्याम काकाकेँ कहलखिन-
“एते
दिनसँ एकठाँ रहलौं, मुदा भरि मन विश्वास कहियो ने भेल?”
काकीक
बातकेँ गौर करैत श्याम काका कहलखिन-
“से
केना बुझै छी?”
श्याम
काकाकेँ आगू बजैले रहबे करनि आकि बीचेमे काकी टपकि पड़लीह-
“मुट्ठी
खोलि मुट्ठा कहियो मुट्ठीमे आबए देलौं।”
~
ओसार
बीस
बर्ख नोकरीक पछाति वसन्त भाय पजेबा, सिमटी आ लोहाक दू मंजिला
घर बनौलनि। दू मंजिला बनबैक कारण छोट घराड़ी। कोठरी मात्र चारियेटा।
सभ
प्राणी मिलि वसन्त भाय घरबासो लेताह आ परदेशो छोड़ताह। रहैक घर आ जीबैक अपन
अनुकूल कारोबारक कमाइ कमा अपने छथि। आठ बजे राति घरवासक समए।
घरवासक
सभ ओरियान जुटा एकठाम सभ जुटि गप-सप्प शुरू केलनि। आइ दोसर गपे की हएत?
वसन्त भाय माएकेँ कहलखिन-
“माए,
परिवारमे आब पोता-पोती धरि भऽ गेलौ। कौआ-मेना जकाँ कते दिन जीवितो
सभसँ सिरगर परिवारमे तोंही छेँ, बाज कोन कोठरी लेमे?”
एक तँ
ओहिना माएक मन उधियाएल जे जते दिनका दुख लिखल छलए से कटलौं। आब तँ लिखलहो
कटल। धीया-पुताकेँ जे हेतै अपन कऽ लेत। हमरा जीबैत धरि तँ घरक दुख मेटा गेलै।
सौंसे परिवारपर आँखि खिड़बैत माए बजलीह-
“बौआ,
घर तोंही सभ लैह, ओसारक एके भाग बहुत हएत?”
अपन जीत
देखैत पुतोहु झाड़-झाड़ैत बजलीह-
“माएकेँ
कहियो घरसँ सिनेह भेलनि जे हेतनि?”
अपन जीत
माए सोहो देखैत। सभ दिन सहीटमे रहलौं, चललौं-फिड़लौं, आब ऐ बुढ़ाड़ीमे जे सीढ़ीपर ऊपर-निच्चा करैत टाँग-हाथ तोड़ि ली,
एहेन वुधियार हमहीं छी। पुतोहु दिस देखैत बजलीह-
“कनियाँ,
कहुना भेलौं तँ बाले-बोध भेलौं। एकटा उझटो बात बाजब तँ हम नै उरदास
करब तँ आन करत। हमरा लिऐ सभसँ नीक ओसारे। सभ दिन राति-विराति घरक चौबगली
घुमै-फिड़ै छी, घर-अंगना टहलै छी, अन्हार-धुनहारमे
ऊपर-निच्चा करब नीक हएत।”
~
छोटका
काका
दियादिक
दसो भैयारीमे मुनेसर सभसँ छोट, तँए सभ छोटका काका कहै छन्हि। जाधरि
भैयारीक सभ जीबैत छलनि ताधरि कहियो छोट-पैघिक बात मनमे नै उठलनि। उठबो उचित
नहिये। मुदा जखन उमेर बढ़लनि, भैयारीक नवो भाँइ दुनियाँ
छोड़ि देलनि तखन तँ उठबो उचिते छलनि आ उठबो केलनि। उठलनि ई जे जखन सभ भाँइ
छलाह तखन जँ छोटका काका कहैत छल तँ कहैत छल मुदा आब किअए कहैए। जँ से कहैत रहल तँ
ऑफिसक चारिम श्रेणीक कर्मचारी जकाँ बड़ाबाबू कहिया बनब?
साठि बर्खक उमेर टपलौं, माथो कारीसँ उजरा गेल मुदा छोटका
काकाक छोटके काका रहि गेलौं। एक तँ ओहुना छोटकासँ सझिला, सझिलासँ
मझिला, मझिलासँ बड़का बनैमे कते टपान अछि तइपर अखन धरि
एको टपान नै टपलौं। देहक रंग-रूपसँ बाबा बनैक खाढ़ीमे आएल जाइ छी मुदा पीराड़क गाछ
जकाँ बाढ़ि कहाँ अबैए।
असमंजसमे
पड़ल मुनेसरक मनमे उठल। प्रचार प्रसारक जमाना आबि गेल अछि नकलियो असली बनि
बजारमे दौड़ रहल अछि तँए किछु ने करब तँ ओहिना रहि जाएब। भीखमंगो तँ नहिये छी
जे जन्मेसँ बाबा कहबए लगब। अपन पैरवियो अपने केना करब। अनेरे लोक धड़खनाह कहए
लगत। मुदा जे विचार अपने उठि रहल अछि ओ हुनका (पत्नी) केँ कहाँ उठि रहल छन्हि।
ओ तँ छोटकी काकी सुनि आरेा मुस्की दैत रहै छथि।
पत्नीकेँ
सोर पाड़ि मुनेसर कहलखिन-
“देखियो
जे घर-परिवारसँ लऽ कऽ समाज धरि छोटके कक्का कहैए से उचित भेल?”
छोटका
काकाक मनमे रहनि जे स्त्रीगण जानि दस ठाम ओहुना बजतीह। तइसँ अपन काज ससरत। मुदा
छोटकी काकी गबदी मारि देलनि। कतौ किअए बजतीह। अपन लाभ के छोड़ैए जे छोड़ितथि।
काकीकेँ कहि छोटका काका कान पाथि देलनि, जे किम्हरोसँ तँ हवा
चलबे करत। मुदा कतौ चाल-चूल नै।
मास दिनक
पछाति पुन: छोटाक काका काकीकेँ मन पाड़ैत दोहरौलनि-
“कहने
जे रही तेकर सुनि-गुनि कहाँ कतौ पबै छी?”
एक दिस
छोटका काकाक उदास मन, दोसर दिस अपन ओलड़ैत-मलड़ैत। मुदा दोसरकेँ
अनुकूल बना किछु कहबोमे आनन्द अबै छै। मुदा जहिना पुरुखकेँ जेठ भेने आनन्द अबै
छै तहिना तँ स्त्रीगणोकेँ छोट भेने अबै छै। जँ नै अबैकत तँ किअए भाँजाइकेँ सभ
एक लाड़नि लाड़ि दइए। भलहिं एक लाड़निक बदला सात लाड़नि किअए ने खाए मुदा
होइ तँ सएह छै। छोट भेने एते लाभ तँ होइते अछि कि जे जेठ जकाँ अशिष्ट बोलीसँ
बँचैत अछि। मुनेसरक मनकेँ बुझबैत छोटकी काकी बजलीह-
“अच्छा
देखियो ने, समए कतौ भागल जाइए। भदबरिया मेघ साँझ-भोर तकैए।”
जहिना
चाह पीब मन तँ मानि जाइए मुदा पेट थोड़े मानत। टकटकी लगा मुनेसर छोटकी काकी
(पत्नी) दिसि देखैत रहलाह।
~
सीमा-सड़हद
खेते-पथार
जकाँ सबहक सीमा-सड़हद होइ छै। मुदा किछु मानबो करैत अछि तँ किछु अतिक्रमणो
करैत अछि। किछु बुझिनिहार बुझितो तोड़ैत अछि तँ किछु बिनु बुझनौं तोड़ैत
अछि।
इंजीनियरिंग
कओलेजसँ रिटायर भेलाक पाँच सालक पछाति सुधीर काका गामेमे रहबाक विचार केलनि।
विचार अपने नै केलनि, काकीक दबाबमे केलनि। कारण भेल जे राजधानीक
शहरमे अपन मकान कीनै काल मनमे ऐबे ने केलनि जे राजधानीक शहर राजधानीकरण भऽ जाइ
छै। सभ तरहक राजधानी बनैक लक्षण आबि जाइ छै।
अपराधीक
भाँजमे पड़ि सुधीर काकाक जे धन लुटेलनि से तँ सबूर केलनि जे बाढ़िक पानि जकाँ
आएल-गेल मुदा दुनू परानी मारि तेहेन खेलनि जे राजधानी छोड़ि गाम दिसक बाट
धेलनि।
दुनू
परानी गाम तँ आबि गेलाह मुदा इंजीनियर रहने मनमे रहबे करनि जे गामो-समाज तँ सएह
मुदा से नै भेलनि। बाहरे जकाँ गामोमे बूझि पड़नि भातीजकेँ सोर पाड़ि कहलखिन-
“मनोज,
गाम अही दुआरे एलौं जे अपन दर-दियाद, सर-समाजमे
हब-गब करैत जिनगी ससारि लेब। मुदा.....।”
सुधीर
काकाक विचार मनोज बूझि गेल। मुदा समुचित उत्तर नै बूझि,
प्रश्नकेँ बहटािर बाजल-
“काका,
गामक लोकमे ओते सूझ-बूझ छै जे......?”
मनोजक
उत्तरसँ सुधीर काकाकेँ संतोष नै भेलनि। दोहरौलनि-
“नै
बौआ, किछु दोसर बात छै?”
मनोज
कहलकनि-
“काका,
जाधरि गाम-समाजक सीमा सड़हद बूझि अपन सीमा-सड़हद नै बनाएब,
ताधरि......।”
~
रमैत
जोगी बहैत पानि
की मनमे
एलनि की नै....। राधाकान्त बाबा घर-परिवारसँ भगैक विचार कऽ लेलनि। ओना समाज
तँ समाज छी जे खेबा काल बौसैत अछि, पड़ाइत काल बौसैत अछि, रूसलमे बौसैत अछि नै जानि आरो काल बौसैत अछि। मुदा से राधाकान्त
बाबाकेँ कियो नै वौसए एलनि। ओना मनमे रहनि जे कियो औताह तँ अपन मनक बेथा कहबनि।
केना नै कहियनि उपदेश झाड़लासँ झड़ै छै आकि उपैत केलासँ। मुदा मनक बात मनेमे
अंतरी जकाँ घुरिआइत बहत्तरि हाथक भऽ गेलनि। केकरो नै देखि फेर मनमे उठलनि जे
जखन समाजे नै तखन परिवारक कते आशा। बड़ करत तँ मुँहमे आगि धराओत, कठिआरी के जाएत। तहूमे तेहेन चालि-ढालि सभ धेने जाइए जे एको दिन रहब
कि जहलसँ कम अछि। मुदा तैयो आशामे रहथि जे परिवारोक कियो जँ बौसए चलि औत तँ
बौसा जाएब। अनेरे ऐ बुढ़ाड़ीमे कतए बौआएब। मुदा आशा अशे रहि गेलनि। ओना अंत-अंत
धरि आशा रहनि जे आन-आबए वा नै, मुदा......?
दादी तँ
दािदये भऽ गेलीह। सृजनकर्ता कुम्हार तँ बर्तन गढ़ि ओकर मुँह-कान नै सोझ करए, तँ केहेन बर्तन बनत। तहिना दादी अपना बोनमे हराएल। किअए बौसए औतनि।
तहूमे कोनो कि हराएल बात अछि जे मरैबला मरबे करैए। आ चूड़ी फोड़ि, सिनूर मेटा जीबे करैए। मुदा जीवैक जगह तँ चाही।
दरबज्जासँ
उठि राधाकान्त बाबा कमलक मोटरीमे लटकैत कमंडल कान्हपर लैत ओसारसँ निच्चा
उतरलाह कि पोता देखलकनि। दौड़ल आबि पाछूसँ मोटरी पकड़ैत कहलकनि-
“कतए
चललह?”
बहैत
पवित्र धारक स्नान जकाँ राधाकान्त बाबा हरा गेलाह। मनक बेथा मनेमे गुमसरि
प्रेमक पेंपी बनि मुँहसँ निकलए लगलनि। मुदा किछु उत्तर नै पाबि पोता कहलकनि-
“हमहूँ
जेबह।”
संगी
पाबि बाबा उत्तर देलखिन-
“रमैत
जोगी बहैत पानि।”
~
गंजन
जखने
सुनीता-दादी बेटीक हाल-समाचार सुनलनि जे तेहेन रौदीमे पड़ि गेल जे एको कनमा धान
नै हेतै, तखनेसँ बाबापर आँखि गड़ौने रहथि जे जखने अवसर भेटत, नीक जकाँ गंजन करबनि। ओना बाबाकेँ बेटी कि इलाकेक समाचार बूझल रहनि
मुदा सुनीता-दादीक कानमे ऐ लेल नै देलनि जे कएले कि हेतनि, तखन तँ मनरोग चढ़ा देबनि। तइसँ नीक जे कहबे ने करबनि, अनका मुँहे जे सुनबे करतीह तँ ओहुना घोंघाउज कऽ लेब।
गर
चढ़िते सुनीता-दादी बाबाकेँ कहलखिन-
“कहाँ
दन मृत्युन्जय-बेटीकेँ एको कनमा धान नै हेतइ, सात तुर दिन
केना खेपतै? सभटा आगि लगौल अहाँक छी। जेहेन गाम तीनू बेटीक
केलौं तेहेन गाम अहाँकेँ मृत्युन्जयले नै भेटल।”
दादीक
गंजन गजिते बाबाक मनमे उठलनि जे जिनगीमे जँ किछु अरधि-संकल्पित बनि नै
चललौं तँ खाली डिब्बामे झुटका दऽ झुनझुना बनौने की हएत। “दस
कोस सीमा जे बन्हलिऐ” लोरिक की फुसिये कहलनि अछि।
जइठाम राँइ-बाँइ भेल गामक खेत जकाँ अनेको छोटका-बड़का आड़िमे जिनगी बन्हि गेल
अछि, तइठाम कैये की सकै छी। अखनो ओ विचार मनमे मरल कहाँ
अछि जे एक बाप-माइक धिया-पुता एक रंग जिनगी नै जीबए!
~
कचहरिया-भाय
कचहरिया-भायकेँ
देखिते नीरस बाजल-
“भाय,
ओहूँकेँ कचहरिया उत्तरी भरिसक नहिये उतरत?”
कचहरिया
भाय आ नीरस लंगोटिया संगी। भरिसक नै साल, तँ महिने, नै महीना तँ दिने, नै दिन तँ घंटे-मिनट नीरसे पैघ
हेतनि। जिनका जन्म–टीप्पणि लिखाएल हेतनि तिनका ने जिनका
नै लिखाएल हेतनि ओ तँ अपने टीपत। कचहरिया-भाय बच्चेसँ चंगला से नीरसमे कम छलनि।
जहिना बगुला पोखरिक वा पानिक किनछरि धड़ैत तहिना एकठाम रैन-बसेरा रहितो
कचहरिया-भाय कचहरीक लाट पकड़ि लेलक। नीरसक प्रश्न कचहरिया भाइक मन हौड़ि
देलकनि। दुनियाँ बड़ीटा छै, झूठ-सच चलिते रहतै। चलबो केना
नै करतै? कोनो की अन्हार इजोत एक दिना छी जे ओरा जाएत। तखन
तँ भेल जतए छी ततए कुहेसकेँ भगा कऽ राखी। तहूमे नीरस लंगोटिया भैयारी छी, कोन दिनक कोन गप एहेन हएत जे नै बूझल हेतइ। रसे-रसे मनकेँ सोझ करैत बाजल-
“बौआ
नीरस, रहल तँ रस, नै तँ बेरस। आब अपना
सभ अंतिम घाटक घटवार भेलौं। भगवान तोरा सन बेटा सभकेँ देथुन जे कन्हाक भार उतारि
अपना कन्हापर लऽ लेलक।”
आगूक
बात बजैले कचहरिया भाइक ठोर पटपटाइते रहनि आकि बिचहिमे नीरस टोकि देलकनि-
“अहाँक
बेटा की दब छथि?”
जना
कचहरिया भाइक छाती चहकि गेलनि। फुटल कसताराक दही जकाँ मुँहसँ निकललनि-
“रसगुल्ला
रसक चहटि शुरूहेसँ लगि गेल जे अपनो बुझै छी जे हलवाइक कुकुड़ जकाँ एक्कोटा
रुइयाँ देहमे नै अछि मुदा चहटियो तँ चुहटि कऽ चोहटबे करत।”
बाल-बोध
जकाँ नीरस मनकेँ फुसलबैत-बहलबैत बाजल-
“अच्छा
भाय, एकटा कहू जे जुआनी आ बुढ़ाड़ीमे की बूझि पड़ैए?”
सह पबैत
कचहरिया भाय भगैतक पलगाँइ जकाँ बाजल-
“गेल
रे जुआनी फेर कतए पएब।”
नहलापर
गुलाम फेकैत नीरस भाय बाजल-
“कृपा
पाबि कियो मूकसँ वाचाल बनैए तँ कियो वाचालसँ मूक!”
कहि
मुड़ी डोलबैत दुनू गोरे जिनगीक कुन्ज भवनमे घुमए लगलाह।
~
बिसवास
पनरह दिनसँ
परेशान डॉक्टर परमेश्वर ओना माझिल भाय-भागेश्वरक पेटक ऑपरेशनसँ परसुए पलखति
पौलनि मुदा अपन अस्त–व्यस्त जीवनकेँ पटरीपर अनैमे दू-दिन सेहो
लगिये गेलनि। पटरीपर अनैक मतलब भेल निश्चित समैपर िनर्धारित काज करब।
साँझक
सात बजैत। चाह पीब सिगरेट सुनगा पहिलुक दमक धुआँ मुँहसँ फेकिते रहथि आकि मनमे
उठलनि, ऑपरेशन करैबलामे हमरो लोक जनैए मुदा अपना ऑपरेशनमे भाय-सहाएबक
मन किअए ने मानलकनि। जखन अपने घरक समांग बिसवास नै करत तखन दुनियाँक अशे की? मुदा मझिलो भैया तँ ओहन नहिये छथि जे आँखि मूनि किछु करताह।
जते
डाॅ. परमेश्वर इनारक पानि जकाँ डोलसँ ऊपर करथि तइसँ बेसिये पानि तलाव टुटल
इनार जकाँ मनमे भरि जान्हि। हाँइ-हाँइ तीनटा सिगरेट पीब गेलाह मुदा पश्नक
उत्तरक माटि नै छूबि सकलाह। बिसवास करब..., नै करब..., मनमे ओझरी लागि गेलनि। जहिना नन्हकी काँट बुढ़-पुरानक नजरियोपर नै
पड़ैत आ धीया-पुता लप दऽ निकालि लैत। तहिना डॉक्टर सहाएबकेँ अंतिम विचार
मनमे अँटैक गेलनि जे भागेश्वर भैया आन थोड़े छिआ जे लाज-संकोच करब। हुनकेसँ पूछि
मन थीर कऽ लेब।
ओना
भागेश्वरक आदति छन्हि जे सोझमे पड़ैत पूछि दैत छथिन जे भैया कि काका आकि बौआ, की हाल-चाल अछि। तँए जखने पुछताह कि टटके प्रश्न पूछि देबनि।
आराम
करैत भागेश्वर गपे केनिहारक प्रतिक्षा करैत रहथि। डाॅ. परमेश्वरकेँ लगमे देखिते
पूछि बैसलाह-
“बाउ,
की हाल-चाल अछि?”
हाल-चाल
सुनिते डॉ. परमेश्वर व्याख्या करैत बजलाह-
“हाल-चाल
कि रहत भैया अहाँसँ िनवृत्ति भेलौं आ एकटा बात मनमे उठि कऽ ठाढ़ भऽ गेल अछि।”
बिच्चेमे
भागेश्वर टोकलकनि-
“एते
भूमिका बन्हैक कोन प्रयोजन, कोन बात?”
डाॅ.
परमेश्वर- “पेटक ऑपरेशनक डाॅक्टर हमहूँ, कतेको करबो
केलौं, कतौ अजस नै भेल। मुदा अहाँसँ जखन पुछलौं तँ दोसरकेँ
किअए पसिन केलिऐ?”
भागेश्वर-
“बौआ, अहाँ साधारण श्रेणीक नै छी जे किछु कहि देब।
दू रूपमे ज्ञान काज करै छै। गुण आ िनर्गुण। अहाँ छोट भाए छी, जखन पेट कटितौं तखन छाती दहैलियो सकै छलए। मुदा देखैक जे भार देलौं से
अही दुआरे जे अपन जेठ भाय बूझि नीकसँ तकतियान करितौं।”
दान-दछिना
तरगरे
उठि पंडित काका िनत्य–कर्मसँ िनवृत्ति भऽ झुनझुनाबला बत्तीक
ठेंगा लेने सड़कपर आबि चिकड़ि-चिकड़ि बजए लगलाह-
“ई
समाज रहैबला नै अछि। आन बिसरि जाए तँ बिसरि जाए मुदा मरै बेरमे केना मुँह
बन्न करब जे पुराण-पोथीक दान सभसँ नीक नै होइ छैक।”
आंगनसँ
पत्नी सुनिते धड़फड़ाएल दौगल आबि कहलकनि-
“भोरे-भोर
की भऽ गेल जे एना अड़ड़ाइ छी?”
पत्नीक
पश्नसँ पंडित काकाकेँ दुख नै भेलनि। खुशिये भेलनि। कमसँ कम पत्नियो तँ लगमे
आबि पुछलनि। खखास करैत बजलाह-
“कहू
जे भोज-काजमे लोक लाखक-लाख रूपैया फूकि दइए। धोती-लोटा बाँटि दइए। अहीं कहू जे
लोक आब जग-गिलास भऽ गेल, फुलपेंटे-कोट भऽ गेल। तइठाम
धोती-लोटाकेँ के छूअत। जे छुऐबला अछि ओइले एकोटा पाइ नै लुटबए चहैए, तखन अनेरे की करब रहि कऽ मन हुअए तँ अखने विदा भऽ जाउ।”
पंडित
काकाकेँ संगीक जरूरत देखि पंडिताइन काकी बौसैत
कहलखिन-
“अखन
धरि अहूँ ते ने कहियो बाजल छेलिऐ। समाज दोखी बनाओत। तामस मिझा लिअ।”
विजय मस्त
सुजीतक सम्पूर्ण कथा एकटा नया स्वाद देलक
की भेलै, मम्मी ? कोनो पहाड़ टूटि गेलै, कथिलाए दुखित छेँ । ककरो
मृत्यु भऽ गेल छै । हम डाक्टर लग जाइत छी, एक घण्टाक बात
अछि, बस्स सभ किछु नरमल । जिद्दी कथाक नायिका
गिन्नीद्वारा वाजल गेल ई वाक्य आजुक आधुनिकताक नामपर सिगरेट, दारु आ यौन सम्बन्धके फैशन रुपमे अपना रहल मैथिल समाजक युवा युवतीक कथा
व्यथाके कथाकार सुजीत कुमार झा वहुत सरल तरीकासँ प्रस्तुत कएने छथि । २०६९ साउनक
अन्तिम सप्ताहमे बिमोचित पत्रकार आ साहित्यकार सुजीत झाजीक तेसर कृति जिद्दी कथा संग्रहक
१२ गोट कथा हम बहुत रोचक आ जिज्ञासु भऽ पढलहुँ । ओना हुनक पहिल कृति चिडैं सेहो
पढवाक अवसर भेटल छल, वहुत रोमान्चित लागल रहए । एकटा
साहित्यके विद्यार्थीक नजरिसँ सुजीत जी मिथिला समाजमे व्याप्त पौराणिक परम्परासँ
लऽकऽ आधुनिकताक छोट—छोट विषयसभके अपन कलमक माध्यमसँ
सुसज्जित करयमे सफल छथि ।
यदि सुजीतजी अपन पाठकक विचारके सम्बोधन करैथि तऽ हमर ईच्छा अछि
जे ओ अपन तेसर कृतिक लाल डायरी आ जिद्दी कथाके उपन्यासक रुपमे आगामी दिनमे रचना
करथि ।
लाल डायरी आ जिद्दी पढैत काल हम कथामे एनाक डुवलहुँ जे एकर कथाक
रुपमे अन्त हमरा दुःखीत कऽ देलक । ताहि कारणे ई प्रतिक्रिया लिखवाक लेल हम विवश भऽ
गेलहूँ । ओ दूनु कथाक कथ्य गजब छल आ तहिना शिल्प ।
जिद्दी कथा संग्रहक पहिल कथा “फूल
फुलाइएकऽ रहल” मे जाहि तरिकासँ नायिका अपना आगु आएल
समस्याके समाधान कयलक अछि एहि समाजक महिलासभक लेल एकटा उपदेश अछि । दोसर कथा “नव व्यापार”क महिला क्लब आ साधनाके अपना
परिवार मे रहिकऽ एतेक वेशी स्वतन्त्रता मैथिल समाजमे जूनि भेटैय । तहिना तेसर कथा “खाली घर” आई काल्हि अपनाके आधुनिक बुझनिहार
महिला जिनका अपने निर्णयसँ पाछतावा हुए, ताहिके कथाकार चित्रण
करएमे सफल भेल छथि । चारिम कथा “लाल डायरी” । मुदा जतेक सत्य अछि यादवजीकें मृत्यु १७ गते भेल अछि, ओतवे निर्र्विवाद सत्य अछि फागुन १८ गते सांझ हमरा घरपर यादवजीके आएब
जेकर प्रमाण लाल डायरी अछि । वाक्य हमरा झकझोरि देलक आ लागल वास्तवमे आदमीके शरीरे
मरैत अछि आत्मा नहि । विज्ञान युगमे सेहो एहिबात के एहसास कराओल गेल अछि । एकर
प्रस्तुति एहिमे सजिवता आनि देने अछि । तहिना पांचम कथा जिद्दी प्रत्येक परिवारक
माता पिताके अपना धियापुताक देलजाएवला स्वतन्त्रताके सँग—सँग
हुनका प्रति आओर जिम्मेवारीक उपदेश दैत अछि । सुुजीतक जादूक ओ सामान बेचनिहार
युवती वास्तवमे हमरो सम्मोहित कऽ देलक । सातम कथा आदर्श हमरा कोनो खासे प्रभावित
नई कऽ सकल । मुदा अर्थहीन यात्रामे नेहा, जिनकर व्यक्तित्व
एक चुम्बक जेका छलैन्हि कोनो पुरुष स्वयं खिचाक चलि अबैत छल ताहिके ओ मात्रै नहि
समाजक बहुतो नेहा सभ दुरुपयोग करैत छथि । जाहिके कारण हुनक वैवाहिक जीवन अस्वस्थ
रहल । ई कथा मात्र नई समाजक ऐना अछि ।
व्यर्थक उडानक सम्बन्धमे एक्कहिटा बात कहब कि सुजीत जी मानव
जातिक ओ उड़ान जे बहुत कम समयमे बहुत बड़का होइत छैक, जे
बहुत थोर लोक बुझि सकैया ताहिके अत्याधिक चतुरताक संग प्रस्तुत कएने छथि । नवम
कथामे नीमाद्वारा अपना पति सोहनक लेल कएल गेल व्यवहार पर जेना श्रीनाथ चिन्तित
छलथि, हमरो मोनमे स्याह प्रश्न आएल कि सोहनक पत्नीक
व्यवहार निष्ठा छल कि देखावा ? सङ्गग्रह एगारहम कथा केहन
सजायक चमेलीक प्रश्न — कोन अधिकारसं ओ हमरा पोसलन्हि आ
फेर हमरा जनसागरमे भंसा देलन्हि, हम जन्मसँ अनाथ छी ,
ओतही पलितहुँ एहि गन्दा वातावरणक असरि तऽ नहि पडितए । हमर विश्वास
किए तोड़ल गेल ? प्रश्न मात्रे चमेलीक नै भऽ समाजक
प्रत्येक बच्चाक अछि, जे पोसपुत वा सतवा माता पिताकसंग
रहैथ छथि आ दुःख भोगैत छथि । अन्तिम कथा मेनकाके हमर ह्ृदयसं धन्यवाद अछि । की आब
तऽ अहँु नीना बनि गेल छीक जवाफ नहि ओ चिचएलहि आ एकटा सुखी परिवार विध्वंश होबए सँं
बचि गेल ।
ई कृतिक रचनाकारक विषयमे कहलजाए त हमरा चिन्हल जानलमे सुजीतजी सन
बहुत कम छथि जिनका मुहसँं कहियो अपशब्द नहि सुुनलहुँ आ सदिखनी हँसैंत रहैत छथि ।
समग्रमे जिद्दी कथा संग्रह एकबेर सभके पढबाक चाही हमर तऽ इहे
सल्लाह अछि । किताबक प्रिन्टिङ्ग, डिजाइन सेहो बढिया अछि
। प्रकाशकके सेहो धन्यवाद देब जे बढिया किताब पढबाक अवसर देलन्हि ।
लेखक राजनीतिकर्मीक अतिरिक्त युवा कवि छथि ।
१.ओम प्रकाश-विहनि कथा- प्रोग्रेसिभ २.पंकज चौधरी (नवलश्री)-विहनि कथा - ई नोर छै गरीबीक
१
ओम प्रकाश
विहनि कथा- प्रोग्रेसिभ
शर्माजी आ हुनकर कनियाँ पूरा समाजमे प्रोग्रेसिभ कहाबैत छलथि। एकर कारण
ई छल जे दूटा बेटीक जन्मक उपरान्त शर्माजी बिना बेटाक लालसा केने फैमिली पलानिंगक
आपरेशन करा लेने छलाह आ दूनू बेकती बेटी सभक लालन पालनमे कोनो कसरि नै छोडने
छलखिन्ह। बेटी सबकेँ पढेबा लिखेबामे पूरा धेआन देने छलखिन्ह आ ओकरा सभकेँ तमाम सुख
सुविधा देबामे पाँछा नै रहैत छलखिन्ह। समाजमे शर्माजी दूनू बेकती बहुत आदरणीय आ
उदाहरण छलथि। बेटी सभकेँ आ शर्माजीक कनियाँकेँ कोनो दिक्कत नै होई, ऐ लेल शर्माजी किछो करबा लेल तैयार रहैत छलाह। घरक काजमे मदतिक लेल
एकटा दाई राखल गेल छल जे चौबीसो घण्टा हुनकर घरे पर रहैत छलैन्हि। ओकर नाँउ छलै
मीतू आ ओ बयसमे बारह-तेरह बरखक छल। ऐ हिसाबेँ ओ एखन बच्चे छलै आ पेटक मजबूरीमे
हुनकर घरमे काज करबा लेल बाध्य छलै। घरक पूरा साफ सफाई, पोछा,
बासन माँजनाई आ कपडा धोनाई ओकरे जिम्मा छलै। दिन भरि खटिकऽ ओ थाकि
जाईत छल आ साँझुक बाद झपकी लेबऽ लागैत छल। जखने ओकरा झपकी आबै की मलकिनीक प्रवचन
ओकर निन्न तोडि दैत छलै। रातिमे सभक खएलाक उपरान्त ओ सभटा बासन माँजि लैत छलै आ
तकर बादे खाई लेल बैसै छलै। खएबामे सबहक बचल खुचल ओकरा नसीब होईत छलै।
शर्माजी अपन बेटी सभक सब फरमाईश पूरा करैत छलखिन्ह आ कोनो वस्तुक माँग
भेला पर बाजारसँ तुरंत ओ वस्तु आनैत छलथि, चाहे ओ कोनो
खेलौनाक फरमाईश होई वा कोनो भोज्य सामग्रीक। जँ कखनो मीतू बाल सुलभ लालसामे ओइ
वस्तु सभ दिस ताकियो दैत छलै की शर्माजीक कनियाँ अनघोल उठा दैत छलखिन्ह जे आब हमर
बेटी सभकेँ ई वस्तु सब नै पचतै, देखू कोना नजरि लगा देलक
ई निराशी। एकर अलावे आरो ढेरी गपक प्रसाद मीतूकेँ भेंट जाईत छलै, तैं बेचारी ऐ सब फरमाईशी वस्तु दिस धेआन नै देबाक प्रयास करैत छल,
मुदा बच्चे छलै तैँ कखनो कालकेँ गलती भइये जाईत छलै।
एकदिन शर्माजीक बडकी बेटी गुलाबजामुनक फरमाईश केलकै। शर्माजी साँझमे घर
आबैत काल बीसटा गुलाबजामुन सबसँ नीक मधुरक दोकानसँ कीनिकऽ नेने अएलाह। पहिने तँ
दूनू बेटी आ हुनकर कनियाँ दू-दूटा गुलाबजामुनक भोग लगेलखिन्ह आ तकर बाद बचलाहा मधुरकेँ
फ्रिजमे राखि देल गेलै। मीतू कुवाचक डरे ऐ मधुर दिस ताकबो नै केलक आ नै ओकरा खएबा
लेल भेंटलै। मुदा मधुरक सुगंध ओकरा बेर-बेर अपना दिस आकर्षित करऽ लागलै। ओ एकटा
योजना मोने मोन बनेलक आ चुपचाप घरक काज करऽ लागल। रातिमे भोजन कएलाक उपरान्त
शर्माजीक कनियाँ ओकरासँ बासन मँजबेलखिन्ह आ एकर बाद ओकरा खएबा लेल बचलाहा सोहारी आ
तरकारी दैत ई ताकीद केलखिन्ह जे हम सुतै लेल जाई छियौ, तूँ
खा कऽ अपन छिपली माँजि सुतै लए जइहैं। ओ स्वीकृतिमे अपन मुडी हिलेलक आ खएबा लेल
बैसि गेल। शर्माजीक कनियाँ तकर बाद सुतै लए चलि गेलीह। आब मीतू मधुर खएबाक अपन
योजना पर काज शुरू केलक। पहिने तँ जल्दीसँ सोहारी तरकारी समाप्त कएलक आ तकर बाद
नहुँ नहुँ डेगे फ्रिज दिस बढल। एकदम स्थिरसँ ओ फ्रिजक फाटक खोललक आ फ्रिजसँ मधुरक
पैकेट निकालि कऽ एकटा गुलाबजामुन मुँहमे राखलक। फेर ओ सोचऽ लागल जे जखन एकटा खाइये
लेलौं तखन एकटा आर खा लेबामे कोनो हर्ज नै छै। तैँ ओ एकटा आर गुलाबजामुन निकालि
मुँहमे धरिते छल की पाँछासँ शर्माजीक कनियाँ ओकर केश पकडि घीचि लेलखिन्ह। असलमे
खटपटक आवाज सुनि हुनकर निन्न टूटि गेल छलैन्हि। आब तँ मीतूक जे हाल भेलै से जूनि
पूछू। मुँहमे गुलाबजामुन ठूँसल छलै तैँ ओ गोंगिया लागल। शर्माजीक कनियाँ ओकरा पर
थापड आ लातक बौछार कए देलखिन्ह। संगे अपशब्दक नब महाकाव्यक रचना सेहो करैत पूरा
घरकेँ जगा देलखिन्ह। सब मिलिकऽ मीतूक अपशब्द आ थापडक खोराक दए गेलखिन्ह। जखन ओ सब
गारिक पूरा शब्दकोश पढि गेलखिन्ह आ मारैत हाथ दुखाबऽ लागलैन्हि तखन ओ सब हँपसैत
ठाढ भऽ गेलथि। शर्माजीक कनियाँ मीतूक झोंटा घीचैत कहलखिन्ह जे हम सब प्रोग्रेसिभ
छी, तैं छोडि देलियौ नै तँ आन रहितौ ने तँ बलि चढेने बिना
नै छोडितौ। ई कहि ओ सब अपन बेडरूम दिस विदा भेलथि आ मीतू कानैत अपन बोरा लेने
ओसारा दिस सुतै लेल बढि गेल।
२
पंकज चौधरी (नवलश्री)
विहनि कथा - ई नोर छै गरीबीक
दक्षिण-पूब भरसँ अटूट मेघ घेरैत देखि बुधनी पूवैर बाधक एकपेरिया
बाट पर नमहर-नमहर डेग झटकारने घर दिश विदा भेल. माथ पर घासक छिट्टा, कांख तऽर थोड़ सुखैल राहटक जारैन आ खोइंछ में नुका धेने छल सात-आठ टा
रस्फट्टू आम जे अबैत काल बाट में बिछने छल अल्हुआ वला खेत लगका कलकतिया आमक गाछ तर
सँ.. गाम परहक चिंता जान खेने जा रहल छलै. सात वरखक बेटा बंटी के घरे पर छोड़ि आयल
छल. ओना ओ तऽ छाल छोड़ेने छल बाध अबै लेल मुदा रौद तेहन ने चंडाल उगल छलैक जे
बुधनी के मोन नहि मानलकै आ ओकरा सुगिया काकी अंगना छोडि आयल छल. बुधनी के सभ सँ
बेशी चिंता अहि गप्पक छलै जे जों ओकरा घर पर पहुंचै सँ पहिने वरखा शुरू भ गेलै तऽ
जुलुम भऽ जेतै. चिपरी सभ बाहरे में सुखाइत छलै आ अंगना में खुद्दी सेहो पसारल
छलै...आ हाँ चार पर बिरियो तऽ देने छलै बना कऽ सुखाई लेल, सभटा चौपट भऽ जेतै.. विचारक अहि उथल-पुथल में अगुताइल भागल जैत छल घर
दिश.
घर पहुँचते देरी छिट्टा अंगना में
पटकि पहिने बंटी के सोर पारलक. ता धरि तऽ एकदम गुप्प अन्हार भऽ गेल छलैक आ
जोड़-जोड़ सँ बिजलोका लोकय लागल छलै. संगहिं मेघ सेहो ढन-ढन गरज लागल छलै. बुधनी
हडबडा कऽ सभटा काज करय लागल. आ बंटी... ओहो पाछू कियैक रहत..! ओहो छोटकी पथिया में
चिपरी समेट कऽ उठाब लागल. कने कालक बाद खूब जोड़ सँ वरखा शुरू भऽ गेलै. बुधनी बंटी
के लऽ कऽ दौड़ कऽ घर दिश भागल...मुदा ताहि सँ की..? घर की कोनो अंगना सँ नीक छलै..!
सड़ल खऽर... मोनो नहि जेऽ कैऽ वरख भऽ गेल छलै छड़वेला. कोरो-बाती सेहो सड़ल-गलल.
ओहिना टुक-टुक मेघ देखाइत...! राति कऽ बंटी घरे में बैसले-बैसल चंदा मामा सँ बतिया
लैत छल आ तरेगन सँ खूब लुका-छिपी खेलैत छल. सौंसे घर में गर-गर पाइन चुबैत. कनिए
काल में घर पाइन सँ भरि कऽ डबरा भऽ गेल. बुधनी छिपिया लऽ पाइन उपछ लागल. ओ पाइन
उपछैत-उपछैत अप्सियांत भेल छल. आ बंटी.... ओकरा लेखे केहनो सन नहि....आ रहबे कियैक
करतैक...? ओ तऽ कागतक नाह बना घर में अई कोन सँ ओई कोन
धरि बहा कऽ आनंद सँ विभोर भऽ रहल छल.
कने
कालक पश्चात जहन खेलाइत-खेलाइत बंटी थाकि गेल तऽ नाह के ओहिना पाइने में हेलैत
छोडि बुधनी के कोरा में जा बैसल आ बाजल माय गे भूख लागल अछि, किछु
खाई लेल दे ने...! बुधनी एक दू बेर तऽ अन्ठेलक मुदा जहन बंटी छाल छोड़बय लागल तऽ
बुधनी चिनवार पर बासन सभ के उनटा-पुन्टा कऽ देख लागल. किछु नहि भेटलैक...किछु
रहतैक तहन ने भेटतै. मुदा बंटी कियैक मानत..आ फेर जे माइन गेल से नन्ने की..?
बुधनी अकबकैल ओकर मूंह तकैत छल तखने कोठिक गोड़ा पर राखल मरुआ रोटिक
एकटा टुकड़ी पर ओकर नजरि गेलै. बुधनी मोन पारय लागल जे कहिया के छियैक.... हाँ मोन
पड़ल परसुए भोर में तऽ बनने छलियैक.. बुधनी ओ मरुआ रोटी पर थोड नून आ सुखायल अचार
धऽ बंटी के दऽ देलकै. बंटी मगन भऽ खाय लागल. नेनाक चंचल मोन तऽ देखू…खाइत-खाइत बंटी बाजल माय गेऽ दू टुकड़ी पियाउज दे ने..! बुधनी सौंसे घर
ढुरलक तऽ आधा टा पियाउज भेटलै.. ओ पियाउज सोहि बंटी के देबय लागल....! बुधनिक आंखि
में नोर भरि गेलै. बंटी माय के मुंह दिश तकलक तऽ बाजल…की
भेलऊ माय कियैक कने छिही. नहि तऽ कहाँ कनैत छी हम. नहि-नहि फेर नोर कियैक बहि रहल
छौ. मोन खराब छौ की.. माथ दुखाई छौ, हम जाइंत दियौ...?
नहि बउआ किछु नहि भेलै हमरा. हमरा कियैक माथ दुखैत…? ई सुनि बंटी चहकि कऽ बाजल... ओहो आब बुझलियौ तों पियाउज कटलहिन्ह हैं तैं
तोरा आंखि सँ नोर बहैत छौ - छैऽ नेऽ..? बुधनी मोने-मोन सोचे
लागल जे बउया तोड़ा कोना कहियौ जेऽ ई नोर माथ दुखेबाक कारणे आ की पियाउज कटबाक
कारणे नहि बहि रहल अछि.... इ नोर...इ नोर तऽ गरीबी केर छैक. मुदा बुधनी सभटा दर्द
अपना मोन में समेटने विरोगे लोल कोंचियाबैत आ जबरदस्तिये कनी मुस्कियैत बाजल
"हाँ बउया पियाउज कटलियै तहि दुआरे नोर बहय लागल...! बंटी मायक ई गप्प सुनि
ठिठिया कऽ हंसल आ मरुआ-रोटी-नून-अचार पियाउजक टुकड़ी संगे खाय में मगन भऽ गेल. गाल
पर नोरक सुखायल धार नेने बुधनी के ओकर नेनपनक सत्य आ सुन्दर छवि देखि अजीब सन
संतोषक अनूभूति भऽ रहल छलय..!!!
डॉ. अरुण कुमार सिंह, एल.डी.सी.आई.एल., भारतीय भाषा
संस्थान, मैसूर कर्नाटक
स्वातन्त्र्योत्तर मैथिली
कथामे सामाजिक समरसता
‘सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्
दुख भाक्-भवेत्।’
उपनिषदक ई सूत्र
वाक्य समरसतेक उन्नायक व परिचायक अछि। मानवमात्रक हितक कामना, सुख, समृद्धि एवं कल्याणक भावने सामाजिक
समरसता अछि जे विभिन्न जाति, वर्ण, धर्म, सम्प्रदाय, भाषाई
लोकक मन वाणी आओर कर्मसँ समरूप भए अपन प्रस्थिति एवं भूमिकाक निर्वाह करैत लक्ष्य
प्राप्ति दिस प्रेरित करैछ। सामाजिक समरसता भारतीय संस्कृतिक आत्मा अछि। धर्म
सापेक्षीकरण धर्म निरपेक्षीकरण, सर्वधर्म समभाव, मानवतावाद, बहुजनहिताय-बहुजनसुखाय आदि अवधारणा
सामाजिक समरसताक पोषक व परिणाम रहल अछि। विविधतामे एकरूपताक भावना समरसतेकेँ
प्रतिनिधित्व करैत अछि। संत, साहित्यकार, समाजवैज्ञानिक आदि सब सामाजिक व्यवस्था एवं प्रगति लेल - सामाजिक
संगठनक स्थिरता लेल सामाजिक समरसताक अपेक्षा करैत रहल अछि।
सामाजिक समरूपताक
प्रचार-प्रसारक प्रति साहित्यकार सदैव सजग रहलाह अछि। सामाजिक प्राणीक रूपमे ओ
समाजक शिल्पीए टा नहि अपितु शिक्षक, पथ-प्रदर्शक, विश्लेषक व सर्जक सेहो अछि एतदर्थ हुनक सृजनमे सामाजिक समरसताक सन्देश
रहब स्वाभाविके अछि।
मिथिलेत्तर प्रान्त
मध्य विद्यापतिक सम्मान आओर आधुनिक युगक प्रथम मैथिली गद्यकार चन्दाझाक यश देखिकेँ
मिथिलाक विद्वानमे सेहो अपन निज भाषाक सेवाक उत्सुकता जागल जकर फलस्वरूप मैथिली
कथासाहित्यक निर्माण प्रारम्भ भेल। मैथिली साहित्यक समालोचक डॉ. रामदेव झाक कहब
छन्हि जे आरम्भमे मैथिली कथा लेखकक लेल रचनाक दुई आदर्श छल पहिल संस्कृत परम्पराक
आख्यायिका-उपाख्यायन, नीति कथा आदि तथा दोसर पाश्चात्य
परिपाटीक सामाजिक परिवेश पर रचित कथा उपन्यास। ओहि समय धरि अंग्रेजी वा अन्य
पाश्चात्य साहित्यसँ मैथिली साहित्यकारक साक्षात् परिचय नहि भए सकल छल, परंच बंगला साहित्य मे पाश्चात्य कथा - उपन्यासक अनुवाद आओर ओहिसँ
प्रेरित-प्रभावित अभिनव कथा-उपन्यास विशेष समृद्ध भए बंगाल आओर बंगालसँ बाहर
लोकप्रिय भए चुकल छल। मिथिला आओर मैथिलीक पूर्वोत्तर राज्य-आसाम एवं बंगालसँ
प्राचीन कालहिसँ घनिष्ट सम्बन्ध रहल अछि, जाहिक कारणेँ
मैथिली कथा साहित्यक आरम्भिक कथामे बंगला साहित्यक प्रभाव दृष्टिगोचर होइत अछि। हम
कहि सकैत छी जे एकरे फलस्वरूप मैथिली कथा साहित्य मे नव युगक संग-संग नव
दृष्टिकोणक सूत्रपात भेल एवं पाश्चात्य साहित्य एवं भारतीय साहित्यसँ प्रभावित भए
मैथिली कथासाहित्य क्रियाशील भेल अछि।
मैथिली साहित्य मध्य
1922-23 ई. क आसपास जखन मौलिक कथा लिखल जाए लागल ताहि मध्य कुमार गंगानन्द सिंह,
कालीकुमार दास, लक्ष्मीपति सिंह,
कांची नाथ झा ‘किरण’ आदिक कथा मध्य मिथिलाक वर्त्तमान समाजक स्थितिकेँ देखैत मैथिली
कथासाहित्यकेँ सामाजिक जीवनसँ जोड़बाक भरपुर प्रयास कएलन्हि। एहि मे कुमार
गंगानन्द सिंहक ‘पंचपरमेश्वर’
एवं ‘बिहाड़ि’ मे सामाजिक
समरसताक वातावरणक अक्षरशः पालन होइत देखल गेल छल।
स्वातन्त्र्योत्तर
युगमे मैथिली साहित्यकार लोकनि अपन साहित्य मध्य पात्र चयन करबामे क्रमशः आभिजात्य
मोहक तिरस्कार करैत सामाजिक समरसताक नियोजन (समावेश) करैत गामघरक ओहि पात्रसभकेँ
साहित्यमे प्रतिष्ठित कएलनि जे परम्परासँ शोषित ओ प्रताड़ित रहल छलाह।
स्वातन्त्र्योत्तर
कालक कथाकारमे ललित, राजकमल, सोमदेव,
मायानन्द मिश्र, धीरेन्द्र, रामदेव झा, हंसराज एवं लिली रे आदि प्रमुख
अछि। मैथिली कथा साहित्य मध्य सामाजिक समरसताक दिशामे वस्तुतः ललितेक ‘रमजानी’ ओहि समयक श्रेष्ठ कथा सिद्ध भेल जे
अखन धरि टटका बनल अछि। हिनक ओवरलोड, कंचनियाँ, मुक्ति एवं जानवर आदि कथा मे समकालीन स्थितिकेँ चिन्हैत जीवनक यथार्थक
चित्रणक क्रममे समाजक सामन्ती विकारकेँ जगजियार करैत सामाजिक समरसताक बोध तँ देलनि
मुदा मुक्तिक रास्ता नहि बना सकलाह। धीरेन्द्रक अधिकांश कथाक जन्म समाजक ओहि
क्षेत्रक व्यथासँ होइत अछि जे सामाजिक स्तर पर तिरस्कृत अछि। शारीरिक स्तर पर
बात-बात पर दण्डित कएल जाइत अछि। आर्थिक स्तर पर औंठा बोरबा लेल अभिशप्त अछि। हिनक
कथा घंटी, सवाइ, हिचुकैत बहैत
सेती, गामक ठठरी, मादा काँकोड़,
बन्हकी आदि कथामे सामाजिक समरसता देखार दैत अछि। रामदेव झाक मनुक
संतान, एक खीरातीन फाँक आदि कथामे स्वतन्त्र भारतक आर्थिक
संघर्षक सामाजिक भावनासँ जाति विभेदकेँ समाप्त करैत वर्ग-संघर्षसँ मुक्त भए जाइत
अछि। सामाजिक एवं प्रशासकीय व्यवस्थाक विद्रूपताकेँ देखार करैत दलित वर्गक
विद्रोहक स्वरकेँ संगठन मे परिवर्त्तन करैत तत्कालीन समकालीन जीवनक यथार्थक चित्रण
करैत अछि। सोमदेव विशिष्ट कथाकार छथि। हिनक प्रमुख कथा भात, अंगाचोर आदि मे निम्न वर्गक जीवनक यथार्थक अत्यन्त आत्मीयतासँ चित्रण
भेल अछि। प्रभाष कुमार चौधरीक ‘मलाहक टोल’ कथा शोषित वर्गकेँ अपन अस्तित्वक रक्षा लेल प्रेरित करैत अछि।
रामानन्द रेणु आर्थिक विसंगति जन्य निम्न वर्गक दंश एवं कुण्ठाकेँ अपन कथा मध्य
विश्लेषित कएने छथि। जीवकान्तक ‘इनकिलाव’ तत्कालीन राजनीतिक सामाजिक जीवनक यथार्थसँ अछि।
1970 ई. क दशकमे
बैंकक राष्ट्रीयकरण, प्रिवीपर्सक समाप्ति, भूमि सुधार सम्बन्धी आन्दोलन, आदि किछु एहन
घटना थिक, जाहिसँ सामाजिक जागरण भेल तँ दोसर दिस
साम्यवादी आन्दोलनसँ पूँजीपति एवं श्रमिक मध्य संघर्षमे वृद्धि भेल। दलित वर्गमे
सह-अस्मिताक भावमे वृद्धि भेल। एहि यथार्थक प्रवक्ता कथाकारक रूपमे सुभाषचन्द्र
यादवक नाम महत्त्वपूर्ण अछि। हिनक महत्वपूर्ण कथा छन्हि- घरदेखिया, काठक बनल लोक, फँसरी एवं ‘बनैत बिगड़ैैत’ कथा संग्रहक कथा आदि। कथाकार
दलित अस्मिताक स्वर दैत समकालीन यथार्थक चित्रणसँ पूर्ण सफल भेल छथि। कथाकार
महाप्रकाश, सुकान्त सोम, मनमोहन
झा, उपेन्द्र दोषी, उदयचन्द्र झा
‘विनोद’, रामनरेश सिंह, राजाराम प्रसाद, महेन्द्र, विभूति आनन्द, अशोक, रमेश,
तारानन्द वियोगी, देवशंकर नवीन, प्रदीप बिहारी, रामभरोस कापड़ि ‘भ्रमर’, रमेश रंजन, शैलेन्द्र
आनन्द, केदार कानन, जगदीश प्रसाद
मंडल, उमेश पासवान, डॉ.
धीरेन्द्र, उमाकान्त, सुशील,
रघुनाथ मुखिया, कामिनी कामायनी, ऋषि वशिष्ट, उमेश मंडल, वीरेन्द्र कुमार यादव, रामदेव प्रसाद मंडल
झारूदार, मनोज कुमार मंडल, दुर्गानन्द
मंडल आदि अपन कथा मध्य तथाकथित रूपेँ शोषित-दलित निम्नवर्गक छोटसँ छोट घटनाक्रमकेँ
अपन कथानक बनबैत समाजक वास्तविक चित्रक चित्रण कए रहल छथि। एवं प्रकारेँ मैथिली
कथा अपन स्वरकेँ परिवर्त्तित करैत, नव डेग दैत सामाजिक
समरसता कायम करबा दिस विकासोन्मुख अछि।
सहायक ग्रंथसूची
1 झा, बासुकीनाथ
(डॉ.) (सम्पादक), समकालीन कथा साहित्यःसामाजिक
परिप्रेक्ष्य, चेतना समिति, पटना,1976
2 झा, दिनेश कुमार(डॉ.), मैथिली साहित्यक आलोचनात्मक इतिहास,मैथिली
अकादमी, पटना, 1989
3 झा, श्री दुर्गानाथ ‘श्रीश’ (डॉ.), मैथिली
साहित्यक इतिहास, भारती पुस्तक केन्द्र, दरभंगा, 1991
4 भारद्वाज, मोहन
(सम्पादक), मैथिली आलोचना,पत्रिका,
मित्र गोष्ठी द्वारा डॉ. भीमनाथ झा, लक्ष्मीसागर,
दरभंगा, फरबरी 1992
5 झा, रामानन्द ‘रमण’(डॉ.), अखियासल, अखियासल
प्रकाशन, लालगंज, मधुबनी,1995
6 नबीन,देवशंकर,
आधुनिक साहित्यक परिदृश्य, अंतिका
प्रकाशन, दिल्ली 2000
7 ठाकुर, प्रो. वीणा,
वाणिनी, मिथिला रिसर्च सोसाइटी, कबिलपुर, लहेरियासराय, दरभंगा, 2010
8 झा, रामानन्द ‘रमण’(डॉ.), हिआओल, अखियासल
प्रकाशन, लालगंज, मधुबनी,2012
9 झा बाल गोविन्द “व्यथित” (डॉ.)
मैथिली साहित्यक इतिहास, पटना भारती भवन, 1981
10 झा, बासुकीनाथ (डॉ.) (सम्पादक) मैथिली
साहित्यक रूपरेखा, पटना चेतना समिति, 1976
11. http://www.videha.co.in
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5. रचना/ प्रस्तुतिपर अहाँक कोनो आर सुझाव ।
6. रचना/ प्रस्तुतिक उज्जवल पक्ष/ विशेषता|
7. रचना प्रस्तुतिक शास्त्रीय समीक्षा।
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"विदेह" मानुषिमिह संस्कृताम् :- मैथिली साहित्य आन्दोलनकेँ आगाँ बढ़ाऊ।- सम्पादक। http://www.videha.co.in/
पूर्वपीठिका : इंटरनेटपर मैथिलीक प्रारम्भ हम कएने रही 2000 ई. मे अपन भेल एक्सीडेंट केर बाद, याहू जियोसिटीजपर 2000-2001 मे ढेर रास साइट मैथिलीमे बनेलहुँ, मुदा ओ सभ फ्री साइट छल से किछु दिनमे अपने डिलीट भऽ जाइत छल। ५ जुलाई २००४ केँ बनाओल “भालसरिक गाछ” जे http://gajendrathakur.blogspot.com/ पर एखनो उपलब्ध अछि, मैथिलीक इंटरनेटपर प्रथम उपस्थितिक रूपमे अखनो विद्यमान अछि। फेर आएल “विदेह” प्रथम मैथिली पाक्षिक ई-पत्रिका http://www.videha.co.in/पर। “विदेह” देश-विदेशक मैथिलीभाषीक बीच विभिन्न कारणसँ लोकप्रिय भेल। “विदेह” मैथिलक लेल मैथिली साहित्यक नवीन आन्दोलनक प्रारम्भ कएने अछि। प्रिंट फॉर्ममे, ऑडियो-विजुअल आ सूचनाक सभटा नवीनतम तकनीक द्वारा साहित्यक आदान-प्रदानक लेखकसँ पाठक धरि करबामे हमरा सभ जुटल छी। नीक साहित्यकेँ सेहो सभ फॉरमपर प्रचार चाही, लोकसँ आ माटिसँ स्नेह चाही। “विदेह” एहि कुप्रचारकेँ तोड़ि देलक, जे मैथिलीमे लेखक आ पाठक एके छथि। कथा, महाकाव्य,नाटक, एकाङ्की आ उपन्यासक संग, कला-चित्रकला, संगीत, पाबनि-तिहार, मिथिलाक-तीर्थ,मिथिला-रत्न, मिथिलाक-खोज आ सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक समस्यापर सारगर्भित मनन। “विदेह” मे संस्कृत आ इंग्लिश कॉलम सेहो देल गेल, कारण ई ई-पत्रिका मैथिलक लेल अछि, मैथिली शिक्षाक प्रारम्भ कएल गेल संस्कृत शिक्षाक संग। रचना लेखन आ शोध-प्रबंधक संग पञ्जी आ मैथिली-इंग्लिश कोषक डेटाबेस देखिते-देखिते ठाढ़ भए गेल। इंटरनेट पर ई-प्रकाशित करबाक उद्देश्य छल एकटा एहन फॉरम केर स्थापना जाहिमे लेखक आ पाठकक बीच एकटा एहन माध्यम होए जे कतहुसँ चौबीसो घंटा आ सातो दिन उपलब्ध होअए। जाहिमे प्रकाशनक नियमितता होअए आ जाहिसँ वितरण केर समस्या आ भौगोलिक दूरीक अंत भऽ जाय। फेर सूचना-प्रौद्योगिकीक क्षेत्रमे क्रांतिक फलस्वरूप एकटा नव पाठक आ लेखक वर्गक हेतु, पुरान पाठक आ लेखकक संग, फॉरम प्रदान कएनाइ सेहो एकर उद्देश्य छ्ल। एहि हेतु दू टा काज भेल। नव अंकक संग पुरान अंक सेहो देल जा रहल अछि। विदेहक सभटा पुरान अंक pdf स्वरूपमे देवनागरी, मिथिलाक्षर आ ब्रेल, तीनू लिपिमे, डाउनलोड लेल उपलब्ध अछि आ जतए इंटरनेटक स्पीड कम छैक वा इंटरनेट महग छैक ओतहु ग्राहक बड्ड कम समयमे ‘विदेह’ केर पुरान अंकक फाइल डाउनलोड कए अपन कंप्युटरमे सुरक्षित राखि सकैत छथि आ अपना सुविधानुसारे एकरा पढ़ि सकैत छथि।
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